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प्रकृति के अदृश्य अर्थशास्त्र को समझना होगा

दुनिया भर के राजनेताओं को, जो देश की सीमाओं के नाम पर लड़ते रहते हैं

प्रकृति के अदृश्य अर्थशास्त्र को समझना होगा
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- पवन सुखदेव

हम में से कुछ स्वाभाविक रूप से प्रकृति के मूल्य को समझ सकते हैं लेकिन दुर्भाग्य से हमारी प्रणालियां इसे समझती नहीं हैं। इसका परिणाम यह है कि निर्णय नीतिगत स्तर, कार्यकारी और सूक्ष्म आर्थिक स्तर पर किए जा रहे हैं। ये लोग इसके लिए हर समय आदान-प्रदान किए जा रहे विशाल मूल्य से पूरी तरह से अनजान हैं- जो हमारी अर्थव्यवस्था का प्राकृतिक आधार है। यही असली चुनौती है।

दुनिया भर के राजनेताओं को, जो देश की सीमाओं के नाम पर लड़ते रहते हैं, जो हमारे बीच बंटवारा करने की कोशिश करते हैं या विभाजन रेखाएं खींचते हैं, मैं पृथ्वी की वर्षा प्रणाली का एक वीडियो देखने की चुनौती दूंगा और उनसे कहूंगा- 'मुझे बताइये कि आप यहां कौन सी सीमाएं देखते हैं?' इसका एक ही सरल जवाब है- कोई भी नहीं है। केवल एक वैश्विक प्रणाली है जो तीन धड़कते दिलों द्वारा संचालित है: अमेजन वर्षा वन, उप-सहारा अफ्रीका और इंडोनेशियाई द्वीप समूह। आप उन्हें हमारी पृथ्वी की वर्षा फैक्टरियां कह सकते हैं और वे प्रकृति के छिपे हुए अर्थशास्त्र के एक आदर्श उदाहरण का प्रतिनिधित्व करते हैं।

उदाहरण के लिए अमेजन वर्षा वनों को लें। अमेजोन्स के ऊपर से जैसे ही उत्तर-पूर्वी व्यापारिक हवाएं जाती हैं वे प्रतिदिन लगभग 20 बिलियन टन जल वाष्प इक_ा करती हैं जो अंतत: ला प्लाटा बेसिन में बारिश के रूप में गिरती हैं। यह वर्षा चक्र- या वर्षा फैक्टरी- प्रभावी रूप से लैटिन अमेरिका में प्रतिवर्ष लगभग 250 बिलियन डॉलर की कृषि अर्थव्यवस्था को पोषित करता है।

तब सवाल उठता है- उरुग्वे, पैराग्वे, अर्जेंटीना और वास्तव में ब्राजील में माटो ग्रोसो राज्य अपनी अर्थव्यवस्था के इस महत्वपूर्ण इनपुट के लिए अमेजन राज्य को कितना भुगतान करते हैं? जवाब है शून्य, बिल्कुल शून्य।

जब अमेजन वर्षा वन और इसके वर्षा चक्र द्वारा भारी मदद की जा रही है तो उसके बदले में कोई कीमत क्यों नहीं वसूली जा रही है? क्योंकि मूल्य वह है जिसका आप भुगतान करते हैं और आदर्श वे हैं जो आपको प्राप्त होते हैं- और प्रकृति किसी प्रकार की कीमत वसूलने के लिए कोई चालान नहीं भेजती है। यह प्रकृति की आर्थिक अदृश्य उदारता है।

वैसे यह सिर्फ अमेजन के बारे में या वास्तव में वर्षा वनों के बारे में नहीं है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस स्तर पर देखते हैं, चाहे वह पारिस्थितिकी तंत्र स्तर, प्रजातियों का स्तर या आनुवंशिक स्तर हो, हम एक ही समस्या को बार-बार देखते हैं।

प्रजातियों के स्तर पर देखे तो अनुमान बताते हैं कि मधुमक्खियों द्वारा फसलों के लिए प्रदान किए गए परागण का अनुमानित कुल मूल्य लगभग 200 बिलियन डॉलर है जो कृषि फसलों के कुल मूल्य के दसवें हिस्से के करीब है। फिर भी क्या आप बता सकते हैं कि आपको आखिरी बार 'परागण सेवाओं' के लिए मधुमक्खियों से चालान कब प्राप्त हुआ था?

या यदि आप उत्पत्ति मूलक स्तर पर देखते हैं तो आज हम जिन दवाओं का उपयोग करते हैं उनमें से अधिकांश पहले वर्षा वन या चट्टानों में पाई गई थीं और फिर बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए उनके अणुओं को कारखाने में दोहराया गया था।

प्रकृति की हर परत हमें कोई न कोई कीमती चीज दे रही है- उनमें से अधिकांश चीजें मुफ्त में हैं। यही मुफ्तखोरी समस्या का हिस्सा है। एक समाज के रूप में आजकल हमारी मानसिकता सार्वजनिक धन को मान्यता नहीं देती है। हम बाजारों के जादू से इतने मंत्रमुग्ध हैं कि हम मूल्य को समझने में तब तक विफल रहते हैं जब तक कि इसे आर्थिक शब्दों में (रुपयों में) व्यक्त नहीं किया जाता है और बाजार में कुछ कारोबार नहीं किया जाता है।

हम में से कुछ स्वाभाविक रूप से प्रकृति के मूल्य को समझ सकते हैं लेकिन दुर्भाग्य से हमारी प्रणालियां इसे समझती नहीं हैं। इसका परिणाम यह है कि निर्णय नीतिगत स्तर, कार्यकारी और सूक्ष्म आर्थिक स्तर पर किए जा रहे हैं। ये लोग इसके लिए हर समय आदान-प्रदान किए जा रहे विशाल मूल्य से पूरी तरह से अनजान हैं- जो हमारी अर्थव्यवस्था का प्राकृतिक आधार है। यही असली चुनौती है।

यह बात आज मेरे समक्ष दो प्रमुख प्रश्न उत्पन्न करते हैं: 'अदृश्य को दृश्यमान बनाने' से हम क्या अंतर्दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं? यह अंतर्दृष्टि किन कार्यों को सूचित कर सकती है और किसके द्वारा?

पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता (दी इकॉनामिक्स ऑफ इकोसिस्टम एंड बॉयोडायवर्सिटी- टीईईबी) परियोजना के अर्थशास्त्र के एक अध्ययन के हिस्से के रूप में हमने देखा कि ब्राजील, भारत और इंडोनेशिया में अर्थव्यवस्था का कौन सा हिस्सा प्रकृति पर प्रभावशाली ढंग से निर्भर है, यह सकल घरेलू उत्पाद के कितने भाग को दर्शाता है और प्रकृति के अर्थशास्त्र और गरीबों के जीवन के बीच इसका क्या संबंध है। भले ही पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं से जो लाभ प्रकृति से मानवता को मुफ्त में मिलते हैं वे जीडीपी प्रतिशत के संदर्भ में बहुत बड़े नहीं थे- क्रमश: 10, 16 व 21 प्रतिशत थे।

अगर हम यह मापते हैं कि वे गरीबों के लिए कितने मूल्यवान थे तो उत्तर 90 प्रतिशत, 84 प्रतिशत और 79 प्रतिशत आता है। अर्थात इसके परिणाम स्पष्ट थे- यदि हम प्रकृति को नष्ट करते हैं तो हम गरीबों की आजीविका को नष्ट करते हैं।
यह एक महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि है क्योंकि यदि आप विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति- पारिस्थितिक बुनियादी ढांचे को नष्ट करते हैं या उसे घटाने की अनुमति देते हैं जो गरीब ग्रामीण समुदायों को आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति सुनिश्चित करता है तो आपके पास वास्तव में विकास के लिए एक उचित मॉडल नहीं हो सकता है।

जिन कारणों से हम प्रकृति को खो रहे हैं, मेरी समझ में वह एक बुनियादी समस्या है: सार्वजनिक लाभ और निजी मुनाफे के बीच अंतर को समझने में हमारी असमर्थता।
थाईलैंड का एक उदाहरण है जहां हमने पाया कि मैंग्रोव (मैंग्रोव एक छोटा पेड़ या झाड़ी है जो समुद्र तट के किनारे उगती है, इसकी जड़ें अक्सर पानी के नीचे नमकीन तलछट में होती हैं।) का मूल्य उतना नहीं है- नौ वर्ष पूर्व की कीमत से लगभग 600 डालर अधिक है। इसके बजाय झींगा फार्म के रूप में इसका मूल्य (कृषि लाभ का 9,600डालर) है। इस अंतर के कारण मैंग्रोव को कम करने और उन्हें झींगा फार्म में बदलने की क्रमिक प्रवृत्ति रही है।

यदि आप देखें कि वे लाभ वास्तव में क्या हैं तो उन डॉलरों में से लगभग 8,000 वास्तव में सब्सिडी के रूप में हैं। इसके अलावा यदि आप इस बात का हिसाब रखते हैं कि नमक और रासायनिक जमाव के प्रभाव होने के बाद भूमि को उत्पादन योग्य उपयोग में वापस लाने में कितना खर्च होता है तो इस पर करीब 9,300 डालर खर्च होते हैं। फिर, यदि आप तूफानों से संरक्षण, मत्स्य पालन और मछली नर्सरी के संदर्भ में मैंग्रोव के अदृश्य लाभों को महत्व देते हैं तो यह खर्च 12,000 डालर हो जाता है। इसलिए यदि इसे आप निजी मुनाफे के नजरिए से न देखते हुए सार्वजनिक धन के समग्र दृष्टिकोण से देखेंगे तो आपको पूरी तरह से एक अलग जवाब मिलता है कि विनाश की तुलना में मैंग्रोव संरक्षण में स्पष्ट रूप से अधिक आर्थिक समझदारी है।

इस तरह की अंतर्दृष्टि सब कुछ 'निजी मुनाफे' के लेंस से देखने के खतरे की व्याख्या करती है। प्रकृति के अदृश्य अर्थशास्त्र के कारण आप भारी 'सार्वजनिक नुकसान' का हिसाब देना भूल जाते हैं और एक के बाद एक गलत निर्णय लेते हैं। यह एक वैश्विक कहानी है जो हमारे खाद्य प्रणालियों और हमारे मत्स्य पालन में कई तरीकों से प्रकट होती है लेकिन यह इस समस्या के समाधान की ओर भी इशारा करती है। उदाहरण के लिए रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों के उपयोग से होने वाली औद्योगिक खेती की हमारी वर्तमान प्रणाली के बजाय प्राकृतिक खेती बेहतर समाधान प्रदान करती है जो प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचाती है, कम पानी का उपयोग करती है, कार्बन को कम करती है तथा मानव और मिट्टी के स्वास्थ्य को नुकसान नहीं पहुंचाती। आंध्र प्रदेश में सामुदायिक-प्रबंधित प्राकृतिक कृषि प्रणाली किसानों को अधिक पैदावार और लाभ प्रदान करने तथा लोगों को स्वस्थ भोजन प्रदान करने का एक अचूक व सही तरीका साबित हुआ है। इसमें रासायनिक खेती के कारण होने वाला कोई गंभीर नुकसान नहीं हुआ है। सामुदायिक-प्रबंधित प्राकृतिक कृषि प्रणाली को अब 600,000 से अधिक किसानों ने अपनाया है।

क्या अच्छा अर्थशास्त्र सब कुछ हल कर देगा? मुझे डर है कि ऐसा नहीं होगा। तो भी ये कुछ उदाहरण प्रकृति के अदृश्य अर्थशास्त्र को समझने और उस पर कार्य करने के महत्व को स्पष्ट करते हैं। ऐसा करने में हम 'सामान्य रूप से व्यवसाय' की लागतों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और प्रकृति को होने वाले दीर्घकालिक नुकसान को कम करने के लिए सही परिस्थितियों और नीतियों का निर्माण कर सकते हैं जो भविष्य में आने वाली पीढ़ियों की वास्तविक संपत्ति होगी।

(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद और आर्थिक विशेषज्ञ हैं। यह लेख मुंबई प्रेस क्लब, मराठी पत्रकार संघ और फोरम ऑफ एनवायरनमेंटल जर्नलिस्ट्स इन इंडिया के तत्वावधान में पहले 'डैरिल डी मोंटे मेमोरियल व्याख्यान' में दिये गये उनके उद्बोधन का संक्षिप्त रूप है। सिंडिकेट:दी बिलियन प्रेस)


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