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भारत: अडानी से जुड़ा कंटेंट हटाने का आदेश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए बन सकता है खतरा

दिल्ली की एक अदालत ने भारतीय कारोबारी समूह अडानी एंटरप्राइजेज के पक्ष में फैसला सुनाया. इसके तहत, नौ पत्रकारों और डिजिटल प्लेटफार्म के खिलाफ निषेधाज्ञा का आदेश दिया

भारत: अडानी से जुड़ा कंटेंट हटाने का आदेश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए बन सकता है खतरा
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भारत की एक अदालत ने एक बड़े कारोबारी समूह की आलोचना करने वाले कंटेंट को हटाने का आदेश दिया है. इस पर पत्रकारों ने चेतावनी दी है कि यह फैसला भारत में प्रेस की स्वतंत्रता के लिए एक बुरा उदाहरण बन सकता है.

6 सितंबर को दिल्ली की एक अदालत ने भारतीय कारोबारी समूह अडानी एंटरप्राइजेज के पक्ष में फैसला सुनाया. इसके तहत, नौ पत्रकारों और डिजिटल प्लेटफार्म के खिलाफ निषेधाज्ञा का आदेश दिया. अदालत ने इन पर ऐसा कंटेंट प्रकाशित और वितरित करने पर रोक लगा दी, जिसे अडानी समूह ने ‘अपुष्ट और मानहानिकारक' बताया था.

पाबंदी वाला यह आदेश (गैग ऑर्डर) भारत के कुछ जाने-माने पत्रकारों और कंटेंट क्रिएटर्स पर लागू होता है, जैसे कि रवीश कुमार, ध्रुव राठी, परंजॉय गुहा ठाकुरता और अभिसार शर्मा. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इन्हें लाखों लोग फॉलो करते हैं.

अदालत ने प्रमुख मीडिया संस्थानों और टिप्पणीकारों के करीब 140 यूट्यूब वीडियो और 80 से ज्यादा इंस्टाग्राम पोस्ट सहित अन्य मीडिया कंटेंट को तुरंत हटाने का आदेश दिया. भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (एमआईबी) ने ऐसे कंटेंट को तुरंत हटाने का नोटिस जारी करते हुए इस आदेश को लागू किया.

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अडानी मामले से जुड़े आदेश ने बढ़ाई ‘चिंता'

अदालत ने अपने आदेश में कहा कि ‘पुष्टि और सत्यापित सामग्री पर आधारित निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग' पर कोई रोक नहीं लगेगी और वह सुरक्षित रहेगी. हालांकि, अटॉर्नी नकुल गांधी ने डीडब्ल्यू को बताया कि आदेश की ‘एक्स पार्टी यानी एकपक्षीय' प्रकृति प्रेस की स्वतंत्रता के लिए चिंताजनक है.

एकपक्षीय आदेश एक अस्थायी अदालती आदेश होता है जो एक पक्ष की ही बात सुनकर, दूसरे पक्ष को सूचित किए बिना या अपना पक्ष रखने का मौका दिए बिना जारी किया जाता है. यह आमतौर पर एक पक्ष को दूसरे पक्ष को नुकसान पहुंचाने से रोकने के लिए जारी किया जाता है.

हालांकि, इस मामले में, एकपक्षीय आदेश का अर्थ यह हो सकता है कि मीडिया कंटेंट को कानूनी रूप से मानहानिकारक या असत्यापित घोषित किए जाने से पहले ही उसे सेंसर किया जा सकता है.

नकुल गांधी इस मामले में कुछ पत्रकारों का प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं. वह कहते हैं, "मूल आदेश की एकपक्षीय प्रकृति, प्राकृतिक न्याय के मूलभूत सिद्धांतों और संवैधानिक रूप से दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षण का उल्लंघन करती है.”

गांधी ने यह भी कहा कि इस आदेश का असर बड़े पैमाने पर हुआ है. सरकार की एजेंसियां इसे इतनी तेजी से लागू कर रही हैं कि यह एक बुरा उदाहरण बन सकता है. इससे खबरें छपने से पहले ही उन पर रोक लगाना एक आम बात बन सकती है.

गांधी ने कहा, "यह गैग ऑर्डर भारत में डिजिटल बातचीत को नियंत्रित करने के लिए कानूनी और प्रशासनिक शक्तियों के गलत इस्तेमाल का एक बुरा उदाहरण बन सकता है. इससे किसी भी व्यक्ति की बोलने की आजादी कम हो सकती है.”

अडानी से जुड़ा यह फैसला उन व्यक्तियों पर भी लागू होता है जिनका इस मामले में विशेष रूप से नाम नहीं लिया गया है. अमेरिका में, इन्हें जॉन डो ऑर्डर कहा जाता है. वहीं, भारत में इन्हें ‘अशोक कुमार' ऑर्डर कहा जाता है.

आम तौर पर इन कानूनों का इस्तेमाल, बौद्धिक संपदा के मामलों में किया जाता रहा है, जहां प्रतिवादी अज्ञात होते हैं. अब यह चिंता है कि इन तरीकों का दायरा मीडिया को सेंसर करने के लिए बढ़ाया जा रहा है.

अदालत के इस आदेश में पत्रकार अबीर दासगुप्ता को भी शामिल किया गया है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "प्रतिवादियों की बात सुने बिना जारी किया गया यह अदालती आदेश और गैग ऑर्डर ‘जॉन डो' प्रतिवादियों पर भी लागू होता है. इसका मतलब है कि यह किसी पर भी लागू हो सकता है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस फैसले का नकारात्मक असर भविष्य में की जाने वाली रिपोर्टिंग पर पड़ेगा.”

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भारतीय मीडिया ने कैसी प्रतिक्रिया दी?

व्यंग्यात्मक यूट्यूब चैनल ‘द देशभक्त' चलाने वाले आकाश बनर्जी ने कहा कि सात साल तक खुले तौर पर और सावधानी से काम करने के बावजूद, उन्हें अडानी गैग ऑर्डर स्वीप में शामिल किया गया.

बनर्जी ने डीडब्ल्यू को बताया, "देखिए, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने अदालती आदेश का कितनी तत्परता और तेजी से पालन किया. इन कार्रवाइयों का असर सिर्फ उन लोगों पर नहीं पड़ा है जिनका नाम इस आदेश में शामिल किया गया है, बल्कि बहुत सारे लोग इससे डर गए हैं. एक तरफ, प्रेस की आजादी की बात की जाती है, जबकि दूसरी तरफ इस तरह के फैसले लिए जा रहे हैं.”

डिजिटल न्यूज प्लेटफॉर्म ‘द वायर' के सह-संस्थापक एम के वेणु को भी इस अदालती आदेश में शामिल किया गया है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि यह खतरनाक फैसला है, क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाली संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन करता है.

वेणु ने कहा, "इस मामले में, सरकार ने बड़ी संख्या में ऑनलाइन मीडिया प्लेटफॉर्म को अडानी समूह से संबंधित यूट्यूब और इंस्टाग्राम लिंक हटाने के असाधारण निर्देश दिए हैं. इस बाबत उनका कहना है कि ये कंटेंट मानहानिकारक यानी अपमानजनक हैं.”

उन्होंने कहा, "अगर अदालती हस्तक्षेप के बिना इस पर रोक नहीं लगाई गई जो मीडिया के स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार को मजबूत करता है, तो एक समय ऐसा आएगा जब पत्रकार उन बड़ी कंपनियों या कारोबारी समूहों से सवाल नहीं कर पाएंगे जो अप्रत्यक्ष सरकारी समर्थन से बिना किसी रोक-टोक के बढ़ रहे हैं.”

‘प्रक्रिया ही सजा बन जाती है'

इस फैसले के खिलाफ कुछ विरोध-प्रदर्शन हुए हैं. पिछले हफ्ते, दिल्ली की एक अदालत ने चार पत्रकारों (जिनका प्रतिनिधित्व नकुल गांधी कर रहे थे) के पक्ष में फैसला सुनाया, जिन्होंने गैग ऑर्डर के खिलाफ अपील की थी. अदालत ने पुराने फैसले को इस आधार पर रोक लगा दी कि उन्हें चुप कराने से पहले खुद का बचाव करने का मौका नहीं दिया गया था.

उन चार पत्रकारों में से एक, खोजी पत्रकार रवि नायर ने कहा कि अडानी के पक्ष में हाल का फैसला, पत्रकारों को चुप कराने के लिए पूर्व प्रतिबंध का इस्तेमाल करने का एक और उदाहरण है.

कॉर्पोरेट और राजनीतिक मुद्दों पर अपनी रिपोर्टिंग के लिए चर्चित नायर ने कहा कि एकतरफा फैसलों का इस्तेमाल तथाकथित जनभागीदारी के विरुद्ध रणनीतिक मुकदमे (एसएलएपीपी) जैसे कानूनी हथकंडों की याद दिलाता है.

एसएलएपीपी ऐसे मुकदमे होते हैं जो मुख्य रूप से आलोचकों को डराने, चुप कराने या उन्हें परेशान करने के लिए दायर किए जाते हैं. इन मुकदमों का मकसद कानूनी तौर पर जीतना नहीं होता, बल्कि लोगों को महंगे और लंबे कानूनी पचड़ों में फंसाना होता है.

नायर ने डीडब्ल्यू को बताया, "मैं 2021 में अडानी समूह की ओर से दायर एक और मानहानि का मुकदमा लड़ रहा हूं. ऐसे मुकदमों के पीछे मकसद यह है कि पत्रकार कानूनी खर्च, समय की बर्बादी और मानसिक उत्पीड़न के कारण थक जाएं.”

उन्होंने आगे कहा, "यह पूरी प्रक्रिया ही एक सजा बन जाती है. इसलिए, लोग आम तौर पर इन कॉर्पोरेट घरानों के भ्रष्ट आचरण की जांच करने से हिचकिचाते हैं.”

भारत में कम हो रही प्रेस की स्वतंत्रता

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने अदालती आदेश और कंटेंट हटाने के आदेश को ‘चिंताजनक' बताया है. गिल्ड ने एक बयान में कहा, "कार्यकारी शक्ति यानी सरकारी शक्तियों के इस विस्तार ने एक निजी कंपनी को यह तय करने का अधिकार दे दिया है कि उसके मामलों में कौन-सा कंटेंट मानहानिकारक है. इससे उन्हें सीधे तौर पर कंटेंट हटाने के लिए आदेश देने की शक्ति मिल गई है.”

इस साल मई में इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट (आईएफजे) ने साउथ एशिया प्रेस फ्रीडम रिपोर्ट जारी की. इसमें भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर गंभीर चिंता जताई गई है. यह रिपोर्ट भारत के पत्रकारों और मीडिया संगठनों के लिए लगातार बढ़ती चुनौतियों को उजागर करती है.

रिपोर्ट में कहा गया है, "दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक प्रमुख स्तंभ माने जाने वाले मीडिया को बेड़ियों में जकड़ दिया गया है और उसे पंगु बनाने की एक व्यवस्थित रणनीति अपनाई गई है. पिछले बारह वर्षों में, सरकार और कॉर्पोरेट घरानों के मालिकों के हस्तक्षेप से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को वश में कर लिया गया है.”

अडानी के बारे में हम क्या जानते हैं?

अरबपति कारोबारी गौतम अडानी, भारतीय कारोबारी समूह अडानी ग्रुप के अध्यक्ष हैं. उनका समूह बुनियादी ढांचा, ऊर्जा, परिवहन, खनन, और रोजाना इस्तेमाल की चीजों सहित कई क्षेत्रों से जुड़ा कारोबार करता है. यह समूह पूरे भारत में कई प्रमुख हवाई अड्डों और सड़कों का भी संचालन करता है.

अडानी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी सहयोगी माना जाता है, जिनके व्यावसायिक हित अक्सर सरकार के विकास लक्ष्यों से मेल खाते हैं.

अडानी समूह ने अंतरिम निषेधाज्ञा (अदालती आदेश) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं प्रेस की स्वतंत्रता पर इसके असर से जुड़े सवालों का सार्वजनिक रूप से जवाब नहीं दिया है.

हालांकि, अडानी का प्रतिनिधित्व करने वालों में शामिल वकील जगदीप शर्मा ने डीडब्ल्यू को बताया कि पत्रकारों के खिलाफ सुनाया गया फैसला सही था. अडानी के मानहानि के मुकदमे में दावा किया गया था कि संबंधित रिपोर्टिंग ‘भारत विरोधी हितों' से जुड़ी थी.

शर्मा ने कहा, "यह नकारात्मक रिपोर्टिंग, समूह के खिलाफ चलाए गए एक दुर्भावनापूर्ण अभियान की तरह थी, जिससे उसकी प्रतिष्ठा को नुकसान हुआ और उसके अच्छे कामों को धूमिल किया गया. इसके पीछे कुछ लोगों का अपना स्वार्थ है.”

पिछले हफ्ते, अमेरिकी शॉर्ट सेलिंग फर्म ‘हिंडनबर्ग रिसर्च' की ओर से अडानी के खिलाफ 2023 में लगाए गए स्टॉक हेरफेर और अन्य गड़बड़ियों के आरोपों को भारतीय नियामकों ने खारिज कर दिया था.


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