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भारत में वामपंथ के सौ सालः सुनहरे अतीत से अनिश्चित भविष्य तक

भारत में वामपंथ ने हाल में अपने सौ साल का सफर पूरा किया है. लेकिन वामपंथी पार्टियां अब अपने लंबे और सुनहरे अतीत के सहारे अपने पैरों तले से खिसकती जमीन को थामने की जद्दोजहद में जुटी हैं. कितनी मुश्किल है उनकी राह?

भारत में वामपंथ के सौ सालः सुनहरे अतीत से अनिश्चित भविष्य तक
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भारत में वामपंथ ने हाल में अपने सौ साल का सफर पूरा किया है. लेकिन वामपंथी पार्टियां अब अपने लंबे और सुनहरे अतीत के सहारे अपने पैरों तले से खिसकती जमीन को थामने की जद्दोजहद में जुटी हैं. कितनी मुश्किल है उनकी राह?

वामपंथी पार्टी की स्थापना के सवाल पर मतभेद रहे हैं. 17 अक्तूबर 1920 को मानवेंद्र नाथ राय ने कई अन्य नेताओं के साथ मिल कर ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी. लेकिन भारत के वामपंथी 1925 में गठित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई को ही भारत की पहली वामपंथी पार्टी मानते हैं.

इस लंबे सफर में वामपंथियों की भूमिका बेदाग नहीं रही है. उन पर महात्मा गांधी के 'भारत छोड़ो' आंदोलन के विरोध, चीन और सोवियत संघ के समर्थन और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अपमान जैसे आरोप लगते रहे हैं.

जब मजबूत हुआ आंदोलन

भारतीय वामपंथी ब्रिटिश शासन से पूरी तरह आजादी चाहते थे और उनका लक्ष्य एक ऐसे समाज का गठन करना था जिसमें कामकाजी तबका खुद अपना भाग्य और भविष्य तय कर सकें. इस मामले में तत्कालीन सोवियत संघ उनका आदर्श था. इसी मकसद से उन्होंने 1920 के दशक में ट्रेड यूनियन आंदोलन को मजबूत करने की दिशा में काम शुरू किया. उनकी बढ़ती सांगठनिक ताकत और ट्रेड यूनियन आंदोलन के कारण ही वर्ष 1828 और 1929 में देश के विभिन्न इलाकों में कामकाजी तबके ने कई हड़तालें कीं. इनमें तत्कालीन बंबई के कपड़ा मिल मजदूरों और बंगाल के रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल का खास तौर पर जिक्र होता है.

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वामपंथियों ने मजदूरों के साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन में छात्रों, युवाओं और बुद्धिजीवियों की भूमिका की अहमियत समझते हुए उनको भी बड़े पैमाने पर अपने साथ जोड़ना शुरू किया. उनको अहसास हुआ कि जिस देश में 80 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है वहां किसानों को साथ लिए बिना देश की आजादी के आंदोलन की कामयाबी संभव नहीं है. इसी मकसद ने पार्टी ने वर्ष 1936 में ऑल इंडिया किसान सभा, ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के अलावा इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन यानी इप्टा का गठन किया. इन संगठनों के जरिए तब तक शहरों तक सीमित रहा वामपंथी आंदोलन ग्रामीण इलाकों में भी पांव पसारने लगा.

वामपंथी पार्टी पर वर्ष 1934 में ही पाबंदी लगा दी गई थी जिसे जुलाई 1942 में हटाया गया. उसके बाद जेल में बंद वामपंथियो को रिहा कर दिया गया.

पार्टी का विभाजन और कुछ अहम पड़ाव

हर राजनीतिक पार्टी की तरह सीपीआई भी अपने नेताओं के बढ़ती महत्वाकांक्षा और आपसी मतभेदो से अछूती नहीं रही. अपने गठन के करीब चार दशक बाद वह भी दो-फाड़ हो गई,. तब एक गुट ने सीपीआई से अलग होकर कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम का गठन कर लिया. उसके चार साल बाद ही चारू मजूमदार के नेतृत्व में पार्टी के एक गुट ने चीनी आंदोलन की तर्ज पर हिंसक आंदोलन शुरू किया जो आगे चल कर नक्सल आंदोलन के नाम से कुख्यात हुआ. तब इस गुट ने उत्तर बंगाल के नक्सलबाड़ी में खासकर जमींदारों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसक हमले शुरू किए थे.

देश के कुछ राज्यों में वामपंथी सरकार के गठन को उनके आंदोलन का सबसे अहम पड़ाव माना जा सकता है.

देश की आजादी के बाद विभिन्न इलाकों में खासकर किसानों को एकजुट करने की वामपंथी पार्टी की मुहिम ने उसका आधार मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई थी. अब वह चुनाव जीत कर राज्यों में सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच गई थी. उसके बाद पार्टी ने वैकल्पिक नीतियां पेश की और खुद को कामकाजी तबके और किसानों का सबसे बड़े हितैषी के तौर पर स्थापित किया.

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वामपंथियों ने पहले आंध्र प्रदेश में सरकार बनाने की कोशिश की थी. लेकिन तब इसमें कामयाबी नहीं मिली थी. उसके बाद केरल में उसे ऐतिहासिक जीत मिली. सीपीआई ने 1957 में आयोजित पहला विधानसभा चुनाव जीत कर ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में सरकार का गठन किया था. वहां भी कामकाजी तबके और किसानों के आंदोलन के कारण ही पार्टी को सत्ता तक पहुंचने में मदद मिली थी. सत्ता में आने के बाद सरकार ने किसानों के हित में कई नीतियां बनाई. इनमें जमींदारों पर बटाईदार किसानों को उजाड़ने पर पाबंदी लगाना सबसे अहम था.

पश्चिम बंगाल को ब्रिटिश शासन का सबसे ज्यादा दंश झेलना पड़ा था. ब्रिटिश शासकों की नीतियों के कारण राज्य में भयावह अकाल में लाखों लोगों की मौत हो गई थी. राज्य के किसानों का भी जमकर शोषण किया गया था. इसके अलावा देश के विभाजन के समय हुए जातीय दंगे में भी लाखों लोगों की मौत हो गई थी. बंगाल के दो टुकड़े कर पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान का हिस्सा बनाते हुए उसका नाम बदल कर पूर्वी पाकिस्तान कर दिया गया था. उस दौर में पूर्वी बंगाल से बड़ी तादाद में शरणार्थियों का पलायन शुरू हुआ.

बंगाल में वामपंथियों ने अकाल के दौरान बड़े पैमाने पर राहत का काम किया और 1950 के दशक में खाद्य आंदोलन का नेतृत्व किया. पार्टी की इन गतिविधियों ने राज्य में उसका आधार मजबूत करते हुए उसके सत्ता में पहुंचने की राह बनाई थी. राज्य में 1967-69 और 1969-70 में बनी संयुक्त मोर्चा सरकार में सीपीएम और सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) भी शामिल थी. वर्ष 1977 में वामपंथी दलों के समूह वाममोर्चा ने चुनाव जीत कर ज्योति बसु के नेतृत्व पहली बार सरकार का गठन किया. इस सरकार ने अगले 34 वर्षों तक राज किया.

पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में भी आदिवासियों के हक की लड़ाई के लिए वामपंथियों के नेतृत्व में लिबरेशन काउंसिल का गठन किया गया. सीपीएम की अगुवाई वाले वाममोर्चा ने 1978 में चुनाव जीत कर राज्य में पहली बार नृपेन चक्रवर्ती के नेतृत्व में सरकार का गठन किया. सत्ता में आने के बाद सरकार ने बड़े पैमाने पर भूमि सुधार लागू किए. इन सुधारों ने उसके सत्ता में बने रहने का आधार मजबूत किया. वामपंथी 1978 से 1988 और पिर 1883 से 2018 तक सत्ता में रहे. 2018 में उनको हार का सामना करना पड़ा.

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सत्तर के दशक के बाद देश में वामपंथी आंदोलन लगातार मजबूत हुआ और इसके साथ ही राजनीति में भी उसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती रही. माना जाता है कि वर्ष 1996 में पश्चिम बंगाल के के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को देश का प्रधानमंत्री बनने का भी मौका मिला था. लेकिन पार्टी ने इसमें अड़ंगा लगा दिया. बरसों बाद एक अखबार को दिए गए इंटरव्यू में बसु ने इस फैसले को ऐतिहासिक भूल करार दिया था.

उस दौर में वामपंथी दलों ने केंद्र की संयुक्त मोर्चा सरकार को समर्थन दिया था और उसके कुछ नेता सरकार में शामिल रहे थे.

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कमजोर होती पकड़

21वीं सदी के पहले दशक से ही वामपंथ की जड़ें कमजोर होने लगीं. पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में भी विभिन्न मुद्दों पर मतभेद उभरने लगे. पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सत्ता संभाली थी. लेकिन उनके दौर में ही जमीन अधिग्रहण आंदोलनों के कारण पार्टी की नींव कमजोर होने लगी थी. आखिर 2011 में सत्ता से उसकी विदाई हो गई. उसके बाद वामपंथी दलों के पैरों तले की जमीन लगातार खिसकती रही है. अब हालत यह है कि लोकसभा या विधानसभा में उसका कोई सदस्य नहीं है.

त्रिपुरा में विभिन्न वजहों से पार्टी 2018 तक सत्ता में बनी रही. मुख्यमंत्री माणिक सरकार को देश का सबसे गरीब मुख्यमंत्री माना जाता था. उनका राजनीतिक करियर भी बेदाग रहा था. लेकिन शीर्ष स्तर पर पार्टी में पनपने वाले मतभेदों और कई अन्य वजहों ने वामपंथी दल के सत्ता से हटने की जमीन तैयार कर दी थी.

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वामपंथी सत्ता वाले तीसरे राज्य केरल में वामपंथी दल अब भी प्रासंगिक है. राज्य में बीते चार दशकों से भी लंबे समय से हर पांच साल बाद सरकार बदलती रही है. वहां पिनराई विजयन के नेतृत्व में वर्ष 2016 के बाद 2021 में लगातार दूसरी बार पार्टी ने सरकार बनाई है.

क्या रही वजह?

लेकिन पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे मजबूत गढ़ में पार्टी की यह स्थिति क्यों हुई. राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ चक्रवर्ती डीडब्ल्यू से कहते हैं, "समय के साथ नहीं बदलने, शीर्ष नेतृत्व के साथ बढ़ते मतभेदों और नेताओं की दूसरी पीढ़ी तैयार करने में नाकाम रहने के कारण ही पार्टी की ऐसी हालत हुई है. लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण पार्टी के नेताओं में अहंकार बढ़ने लगा था और वो खुद को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे थे. इसकी वजह से वो उन उद्देश्यों और नीतियों की ही अनदेखी करने लगे जिन्होंने उसे सत्ता में पहुंचाया और टिकाए रखा था."

उत्तर बंगाल के एक कालेज में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर रहीं सुष्मिता मंडल डीडब्ल्यू से कहती हैं, "सीपीएम के नेतृत्व वाली सरकार ने अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा. वो खुद को अजेय मान कर आम लोगों के हितों की अनदेखी करती रही. आखिरी कार्यकाल में उस पर किसानों और मजदूरों की जगह पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करने के आरोप लगे. इसके साथ ही आक्रामक ट्रेड यूनियन आंदोलन के कारण राज्य से पूंजी और व्यापार का भी बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हुआ. वाममोर्चा के पास ज्योति बसु के कद का दूसरा कोई ऐसा नेता नहीं था जो आम लोगों को पार्टी के साथ जोड़े रख सके. ऐसी ही तमाम वजहें अपने इस सबसे मजबूत गढ़ में उसके पतन की वजह बनी."

सीपीएम के एक वरिष्ठ नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू से बातचीत में मानते हैं कि बीते दो दशकों के दौरान कई रणनीतिक गलतियों के कारण पार्टी की यह दशा हुई है. इसमें खासकर ग्रामीण इलाकों में संगठन का कमजोर होना और सत्तारूढ़ पार्टी के डर से आम लोगों का समर्थन घटने जैसे कई कारण शामिल हैं. उनका दावा है कि वामपंथी दल और उनकी नीतियां अब भी राजनीति में प्रासंगिक बनी हुई हैं.


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