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बिहार की सियासत में क्षेत्रीय दलों के पीछे खड़े राष्ट्रीय दल!

बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर गुरुवार से नामांकन का पर्चा दाखिल करने का काम शुरू हो गया

बिहार की सियासत में क्षेत्रीय दलों के पीछे खड़े राष्ट्रीय दल!
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पटना | बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर गुरुवार से नामांकन का पर्चा दाखिल करने का काम शुरू हो गया, लेकिन अब तक राज्य के दोनों प्रमुख गठबंधनों में सीट बंटवारे को लेकर लगी गांठ नहीं खुाल सकी है।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में जहां लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के कारण सीट बंटवारे का पेंच फंसा हुआ है, वहीं महागठबंधन में राजद राष्ट्रीय दल, कांग्रेस की सीटों की मांग पूरी नहीं कर पा रही है।

इधर, देखा जाए तो पिछले तीन दशकों से बिहार की सत्ता तक राष्ट्रीय दल को पहुंचने के लिए क्षेत्रीय दलों का सहारा रहा है, ऐसे में माना जा रहा है कि राष्ट्रीय दल किसी भी परिस्थिति में छोटे और क्षेत्रीय दलों को नाखुश करना नहीं चाह रहे हैं।

माना जा रहा है कि यही कारण है कि क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय स्तर के दलों को आंखें भी दिखाते रहते हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो भाजपा और कांग्रेस दोनों राष्ट्रीय पार्टियां वर्ष 1990 से अब तक किसी भी विधानसभा चुनाव में 100 के आंकड़े को पार नहीं कर सकी है।

पिछले चुनाव पर गौर करें तो पिछले चुनाव में जदयू और राजद के सहारे कांग्रेस सत्ता का स्वाद चख सकी थी, लेकिन जदयू के महागठबंधन से बाहर निकलने के बाद नीतीश कुमार की सरकार गिर गई थी और फि र नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। इस चुनाव में कांग्रेस को 27, जबकि भााजपा को 53 सीटों पर संतोष करना पड़ा था।

इसके अलावा, 2010 के विधानसभा चुनाव पर गौर करें तो इस चुनाव में भी भाजपा को सत्ता तक पहुंचने के लिए जदयू का सहारा मिला था। इस चुनाव में भी जदयू को 115 सीटें मिली थी, जबकि भाजपा को 91 सीटों पर संतोष करना पड़ा था।

यही स्थिति 2005 के चुनाव में भी देखने को मिली था जहां भाजपा सत्ता तक पहुंची जरूर, लेकिन उसे जदयू के सहारे चुनाव मैदान में उतरना पड़ा था।

वर्ष 2000 के चुनाव की बात करें तो इस चुनाव में बिहार के 243 विधानसभा सीटों में से आधे से अधिक पर राजद ने अपना परचम लहरा कर सत्ता तक पहुंची थी। 1995 के चुनाव की बात करें तो उस चुनाव में भी राष्ट्रीय दल कांग्रेस को 29 सीटों पर संतोष करना पड़ा था जबकि भाजपा को 41 सीटें मिली थी। इससे पहले 1990 में भी दोनों राष्ट्रीय दलों को 100 से कम सीटों पर ही संतोष करना पडा था।

राजनीतिक समीक्षक संतोष सिंह कहते हैं कि वर्ष 1989 के भागलपुर दंगे के दौरान ही कांग्रेस के लिए अंतिम कील ठोंक दी गई थी जब अल्पसंख्यक इससे नाराज हो गए थे। उस समय बिहार में भाजपा का बिहार में उदय हो रहा था।

उन्होंने हालांकि यह भी कहा कि कांग्रेस तो 'बैकफुट' पर चली गई लेकिन कलांतर में भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ हो गई, लेकिन बिहार में अब भी वह जदयू के पिछलग्गू बनी है।

सिंह कहते हैं, "पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव में राजग ने 40 में से 39 सीटों पर विजयी हुई थी, जिसमें भाजपा के 17 उम्मीदवार उतारे थे और सभी विजयी हुए थे, उसके बावजूद भाजपा ने बिहार विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव मैदान में उतरने की हिम्मत नहीं की। इस चुनाव में भी वह जदयू के साथ है।"

वैसे उन्होंने यह भी कहा कि अगर इस चुनाव में राजग के घटक दल जदयू और भाजपा बराबर सीटों पर चुनाव लड़ती है, तब परिणाम देखने वाला होगा और यह भी देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर रूतबा कायम करने वाली भाजपा बिहार में अपना रूतबा बना सकी या नहीं ?


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