Top
Begin typing your search above and press return to search.

नानक नाम चढ़दी कलां-तेरे भाणे सरबत दा भला

हरमिंदर साहिब, अमृतसर का यात्रा संस्मरण

नानक नाम चढ़दी कलां-तेरे भाणे सरबत दा भला
X

मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे हरमिंदर साहिब से लेकर हिन्दी पट्टी के अधिकाँश गुरुद्वारों में गुरुग्रंथ साहिब का दर्शन करने और उसका पाठ सुनने का शफ़र् हासिल हुआ है। मैं जहाँ भी पर्यटन के लिए गया अगर वहाँ गुरुद्वारा है तो मेरे क़दम बेखुदी में उस ओर उठ ही गए। यूँ कहिये कि गुरूद्वारे मुझे अपनी ओर खींचते हैं। इस बारे में एक व्यक्तिगत अनुभव आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। हम सपरिवार जनवरी 2010 में इंदौर से अमृतसर,दिल्ली, आगरा और फतेहपुर सीकरी पर्यटन के लिए निकले।

दु निया के सभी धर्म अपने पवित्र ग्रंथों में समस्त मानवता के लिए करुणा और प्रेम का सन्देश देते हैं लेकिन इन धर्म ग्रंथों को आम तौर पर कोई अन्य धर्मावलम्बी नहीं पढ़ता। वो इनके अनुयायियों को देखता है और उस धर्म के बारे में, उसके दूतों, अवतारों और पैगंबरों के बारे में अपनी राय क़ायम करता है। मेरा अपना अनुभव और मानना है कि इस मामले में सिख धर्म के अनुयायी अन्य धर्मों के अनुयायियों से अक़्सर बेहतर साबित हुए हैं।

पंद्रहवीं शताब्दी में गुरु नानक देव जी द्वारा सिखी की स्थापना से ही सिखों ने सम्पूर्ण मानवता की सेवा और राष्ट्रप्रेम के अनुपम प्रतिमान स्थापित किये हैं यद्यपि अपने धर्म की स्थापना से ही उन्होंने अत्याचार का दंश झेला है। शुरुआत में मुगलों ने अपने राजनैतिक मक़सद के लिए उनका दमन किया। विभाजन के समय भी सबसे ज़्यादा हिंसा उन्हीं के ख़िलाफ़ हुई। इंदिरा जी की हत्या से उपजे आक्रोश के फलस्वरूप उन्हें जान और माल का अपूरणीय नुक़सान हुआ पर सलाम इस क़ौम को कि उनके दिल में किसी धर्म के प्रति कटुता स्थायी रूप से जग़ह नहीं बना पाई।

व्यक्तिगत तौर पर आप किसी भी सिख से मिलिए उसकी गर्मजोशी और मृदु व्यवहार आपको इस क़ौम का क़ायल बना देगा। अपने गुरुओं की सीख को उन्होंने पूरी तरह आत्मसात किया हुआ है। खालसा एड इंटरनेशनल के सेवा कार्यों के बारे में तो अब लगभग सारी दुनिया जान ही चुकी है। आप दुनिया के किसी भी गुरूद्वारे में चले जाइये वहाँ का आत्मीय माहौल, सेवा की परम्परा और हर मज़हब के दर्शनार्थियों के लिए निरंतर चलते लंगर आपको अपना मुरीद बना लेंगे। जब तक आप दर्शन कर के बाहर आएंगे सेवादार आपके जूते चमका देंगे, आपको पता भी नहीं चलेगा की आपके जूते चमकाने वाला कौन है? हो सकता है कि वह विदेश में रहने वाला कोई अरबपति सिख या आईएएस-आईपीएस हो।

मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे हरमिंदर साहिब से लेकर हिन्दी पट्टी के अधिकाँश गुरुद्वारों में गुरुग्रंथ साहिब का दर्शन करने और उसका पाठ सुनने का शफ़र् हासिल हुआ है। मैं जहाँ भी पर्यटन के लिए गया अगर वहाँ गुरुद्वारा है तो मेरे क़दम बेखुदी में उस ओर उठ ही गए। यूँ कहिये कि गुरूद्वारे मुझे अपनी ओर खींचते हैं। इस बारे में एक व्यक्तिगत अनुभव आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। हम सपरिवार जनवरी 2010 में इंदौर से अमृतसर,दिल्ली, आगरा और फतेहपुर सीकरी पर्यटन के लिए निकले। इंदौर से पहला पड़ाव अमृतसर था। लगभग शाम के 5 बजे ट्रेन इंदौर से निकली। हमारे कूपे में सामने वाली बर्थ पर एक छोटा सा सिख परिवार बैठा था - माँ, उनका नौजवान बेटा और एक किशोरवय बेटी। उनके पिता और चाचा पकिस्तान से लरकाना साहिब में मत्था टेक कर 3 दिन बाद आने वाले थे और वे उन्हें लिवाने के लिये अमृतसर जा रहे थे।

जैसा कि अमूमन ट्रेन यात्राओं में होता है परिचय की शुरुआत 'आप कहाँ जा रहे हैं' से हुई। जैसे ही उन्हें पता चला कि हम मुस्लिम हैं और हरमिंदर साहिब दर्शन के लिए जा रहे हैं वो इतने प्रसन्न और अभिभूत हुए कि उसको बयाँ करना मुश्किल है। पंजाबी अपने खाने/खिलाने के शौक के लिए पूरी दुनिया में मशहूर हैं आप यक़ीन नहीं करेंगे दोस्तो, अमृतसर तक लगभग 35 घंटों के सफर में उन्होंने हमें 35 रूपये भी खर्च नहीं करने दिए। इतना सारा और इतनी तरह का खाना ले कर वो चले थे कि पूरे सफर के दौरान हम अपना टिफ़िन निकाल ही नहीं पाए। यही नहीं अपने परिजनों के लिए स्वर्णमंदिर परिसर के बाहर ट्रस्ट की धर्मशाला में आरक्षित एसी कक्ष 24 घंटे के लिए हमें उपलब्ध करा दिया, अपने साथ हरमिंदर साहिब के दर्शन कराये और वाघा सरहद तक लेकर गये।

दूसरे दिन हम स्वर्ण मंदिर परिसर में शाम को टहल रहे थे। मग़रिब की नमाज़ का वक़्त हो गया था, मैं टहलता हुआ बच्चों से थोड़ा दूर आ गया था। बेटे ने मुझ से आ कर कहा-'डैडी मम्मी नमाज़ पढ़ने का बोल रही हैं।' मैंने कहा-'ठीक है परिसर के बाहर चलते हैं।'

तब तक श्रीमती जी भी वहां आ गईं और कहा कि 'इतनी भीड़ है बाहर निकलने में और कमरे तक पहुँचने में एक घंटे से ज़्यादा वक़्त लग जायेगा और नमाज़ कज़ा हो जायगी।' अब मैं सकपकाया मुझे पता था कि उन्होंने किशोरावस्था के बाद अब तक शायद एक नमाज़ भी नहीं छोड़ी थी। वे बोलीं -'यहीं कहीं पढ़ लें।'

मैं सिखों और मुस्लिमों के रक्त-रंजित इतिहास को जानता था। यद्यपि यह भी जानता था कि 1588 में गुरु अर्जन साहिब ने लाहौर के एक मुस्लिम फ़क़ीर(सूफी संत) हजरत मियां मीर जी से हरमिन्दर साहिब की नींव रखवाई थी पर यह भी सत्य है कि पिछले 422 सालों में पंजाब की पांचो नदियों में दोनों क़ौमों का बहुत रक्त बह चुका था। घर से दूर हजारों सिखों के बीच उनके सबसे पवित्र धर्म-स्थल पर बीबी-बच्चों को नमाज़ पढ़ने का कहने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। शायद पढ़ा-लिखा होना इंसान को पूर्वाग्रही भी बना देता है। हमारी इस उहापोह को वहाँ तैनात एक सेवादार ने भांप लिया और हिन्दी मिश्रित गुरुमुखी में मुझसे कहा -'बोलें क्या बात है ?'

मेरे कुछ कहने से पहले ही बिटिया ज़ेनिफ़र ने उन्हें सारा माज़रा कह सुनाया। सेवादार महाशय मुस्कराये और बोले-' तो इसमें क्या दिक़्क़त है?' बस, फिर क्या था पवित्र सरोवर मेरे परिवार के लिए वज़ुख़ाना बन गया। सेवादार ने भीड़ को एक तरफ़ किया। दिशा भ्रम होने के कारण हमें बताया कि मग़रिब (पश्चिम) किस तरफ़ है। अपने उत्तरीय को पवित्र सरोवर में डुबो कर नमाज़ पढ़ने के स्थान को पोंछा, जब तक श्रीमती जी और बच्चे नमाज़ पढ़ते रहे, वे अपनी चिर-परिचित नीले रंग की पोशाक में चार फ़ीट लम्बी तलवार क़मर से लटकाये वहीं खड़े रहकर नमाज़ियों के सामने से लोगों को निकलने से रोके रहे।

ज़रा तसव्वुर कीजिये मित्रों दुनिया के सबसे पवित्र सिख धर्मस्थल पर हज़ारों सिखों के बीच में मेरा परिवार हरमिंदर साहिब में अपने रब की बारग़ाह में सज़दा कर रहा था। बेटे के सर पर टोपी के स्थान पर अकाल तख़्त के प्रतीक वाला भगवा सरोपा (रुमाला) बंधा हुआ था। बिटिया और श्रीमती जी के सर पर हिज़ाब था। उन तीन नमाज़ियों के एहतराम में निहंग सर पर पगड़ी और क़मर में तलवार बांधे खड़ा था। यह एक कल्पनातीत दृश्य था। जिसका चित्रण करना नामुमकिन है। जो संवेदनशील होंगे उन्हें दिख रहा होगा कि इन नमाज़ियों, उस निहंग और वहाँ से ख़ामोशी से गुज़र रहे दर्शनार्थियों पर अल्लाह की रहमत के साथ-साथ तमाम प्रात:स्मरणीय गुरुओं और मियां मीर का आशीर्वाद भी बरस रहा था।

बच्चों की नमाज़ के बाद मैंने अपनी भीग आई आँखों की कोर को पोंछा और उस मोहब्बत के फ़रिश्ते से मुसाफ़ा( दोनों हाथ मिलाना ) कर उसका शुक्रिया अदा किया। सेवादार महाशय 'कोई गल नी जी, कोई गल नी' कहते हुए वापस अपने काम में लग गये। हम भी मोहब्बत और सर्वधर्म समभाव का एक अमिट पाठ अपने हृदय पर अंकित कर वहाँ से विदा हुए।


Next Story

Related Stories

All Rights Reserved. Copyright @2019
Share it