मेरे मामा, मेरे मार्गदर्शक
उन्नीसवीं सदी का पहला दशक- होशंगाबाद के एक समृद्ध कस्बे में रहते दो मध्यवित्त परिवार- सुरजन परिवार के कर्त्ता- श्री गणेशरामजी और तिवारी परिवार के मुखिया-श्री राधाशरणजी- दोनों प्रगाढ़ मित्र और दोनों ही गांव की मालगुजारी में कार्यरत

- अनुपम पुरोहित
उन्नीसवीं सदी का पहला दशक- होशंगाबाद के एक समृद्ध कस्बे में रहते दो मध्यवित्त परिवार-
सुरजन परिवार के कर्त्ता- श्री गणेशरामजी और तिवारी परिवार के मुखिया-श्री राधाशरणजी-
दोनों प्रगाढ़ मित्र और दोनों ही गांव की मालगुजारी में कार्यरत।
दोनों परिवारों के सुख शांति पूर्ण जीवन में खुशियाँ आईं और गणेशरामजी ने अपने नवजात पुत्र का नाम रखा-मायाराम। उधर राधाशरणजी के पुत्र कहलाये-राधाकृष्ण और पुत्री-विमल।
तीनों समवय बच्चे अपने-अपने माता-पिता के समान संयुक्त परिवार की भांति सौहार्द्रय व स्नेहपूर्ण संबंधों में पलते बड़े होते गये।
समय भी बीतता गया- राधाकृष्ण को दसवीं कक्षा विशेष योग्यता से उत्तीर्ण करके पूना के फर्ग्युसन कॉलेज में प्रवेश मिला।
मायाराम ने अपनी प्रखरता और पत्रकारिता में महारत के माध्यम से जबलपुर से प्रकाशित एक प्रसिद्ध हिन्दी दैनिक की बागडोर संभाल ली।
विमल ने उन दिनों भी जबकि महिलाएं शिक्षा से अप्रभावित थीं-अपनी योग्यता और लगन से मैट्रिक, फिर दिशारद किया, और विवाहोपरांत-तिवारी से पुरोहित बनीं और अपने पति-ललिताप्रसाद के साथ-अकोला जा बसीं।
उन दिनों-सदी के तीसरे-चौथे दशक में-अकोला में श्री बृजलाल बियाणी-एक प्रसिद्ध नेता, पत्रकार, साहित्यकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कार्यशील थे।
ललित प्रसाद उनके साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बन गये। अंग्रेज सरकार के विरोध में उत्तेजक और पे्ररणात्मक पत्रकारिता के आरोप में उन्हें कारावास भी हो गया। विमल एक स्थानीय पुत्री पाठशाला में शिक्षिका नियुक्त हो गईं।
इन्हीं दिनों में उनके पुत्र का जन्म हुआ और वो था मैं-अनुपम। वर्ष था 1944।
आजादी आई और ललिता प्रसाद जी (मेरे पिताजी) नागपुर आ गये। संयोगवश वे उसी हिन्दी दैनिक के नागपुर संस्करण के उप संपादक व संवाददाता बन गये, जिसके जबलपुर संस्करण का कार्यभार मायाराम जी संभाल रहे थे।
ये था वह सुसमय, जब एक लंबे अंतराल के बाद बाल्यकाल के मित्रों का सपरिवार पुनर्मिलन हुआ संयोगवश तीसरे मित्र-राधाकृष्णजी (मेरे मामाजी) भी नागपुर में ही सरकारी सेवारत थे।
सन् 1953- एक हृदयविदारक घटना घटी- नव विवाहित राधाकृष्णजी की अकाल मृत्यु हो गई। उनकी माताजी (मेरी नानीजी) पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा और उन्हें इस नश्वर संसार से विरक्ति हो गई। इस घोर संकट की घड़ी में सांत्वना देने आये-मायारामजी-नानीजी के बेटे, विमल (मेरी मां) के भाई और मेरे मामा बनकर।
नानीजी ने वैराग्य मायाराम मामाजी ने उनकी वृन्दावन वासिनी होने की इच्छा उन्हें स्वयं वहां पहुंचा कर की। मां को पुन: भाई और मुझे फिर से मामा मिल गये। बचपन की मित्रता, एक पवित्र और निस्वार्थ रिश्ता बन गई।
सन् 1956-मामाजी ने संबंधों की नींव और मजबूत कर दी- यह निर्णय लेकर किउनके तीनों पुत्र- ललित, दिनेश और देवेन्द्र-नागपुर में अपनी बुआजी और भैया (माँ और मैं) के पास रहकर ही आगे पढ़ेंगे। बचपन से एकाकी इकलौती संतान-मैं, तीन-तीन छोटे भाईयों का साथ पाकर बरसों अकेलेपन से मुक्त हुआ।
लगभग इसी अरसे में-मामाजी और पिताजी, दोनों ने ही उस हिन्दी दैनिक समाचार पत्र को त्याग पत्र दे दिया। मामाजी ने जबलपुर से एक नये हिन्दी दैनिक का प्रकाशन किया और पिताजी सूचना एवं प्रकाशन विभाग में अधिकारी बन गये।
1958 में राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन हुआ। और हम ग्वालियर आ गये। नागपुर में रहते- मामाजी के उत्साहित करने पर मैंने पहले भारत स्काउट फिर एनसीसी की वर्दी पहनी।
ग्वालियर आकर एनसीसी सीनियर डिवीजन, सीनियर अण्डर ऑफिसर का पद, 1961 की दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड और कई अखिल भारतीय शिविरों में सम्मानित होकर- भारतीय सेना मेरी महत्वाकांक्षा और एकमात्र लक्ष्य बन गया।
एकमात्र संतान फौज में और वह भी भारत-चीन के 1962 के युद्ध के वातावरण में। मेरे मां-पिताजी का धर्म संकट स्वाभाविक था।
पर मेरे पक्ष में थे मेरे मामाजी। उन्होंने माँ से कहा, कि जब तुम्हारे पति स्वाधीनता संग्राम के सेनानी हैं तो तुम्हारा बेटा स्वतंत्र भारत का सेनानी क्यों नहीं बन सकता। और अगर तुम्हें बेटे के जाने से सूनापन लगे, तो मैं देवेन्द्र और ममता (ललित, दिनेश, देवेन्द्र की बहिन) को तुम्हारे पास भेज दूंगा।
वितर्क होकर-माँ, पिताजी को अनुमति देनी ही पड़ी और 1963 में मैं सैनिक प्रशिक्षण के लिये पूना चला गया।
1965 और 1969 में भारत-पाक युद्ध, कश्मीर, आसाम और दूरदराज की तैनाती के बीच स्वाभाविक था कि मामाजी और भाई बहिनों से उनका संपर्क नहीं हो पाया। बड़ी मुश्किल से छुट्टी लेकर ममता की शादी में सम्मिलित हो पाया। लेकिन जहां भी शांति कालीन छावनियों में मेरी नियुक्ति रही, मामाजी कम से कम एक बार तो अवश्य ही-कभी अकेले, कभी सपरिवार हमारे पास आते रहे।
कालचक्र की गति कब थमी है? अब वे सब हमारे बीच कहां है? केवल मधुर स्मृतियां ही शेष हैं। मामाजी, मामीजी, माँ, पिताजी और भाई बहिनों के साथ नैनीताल, मसूरी, देहरादून पूरे राजस्थान, पचमढ़ी, अमरकंटक आदि के सैर सपाटे। दिल्ली की अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों और उस समय की प्रसिद्ध हस्तियों से भेंट और उनके दर्शन का सौभाग्य-ये सब मामाजी की स्नेहमय स्मृतियां सदा मन में रहेंगी।
आज मैंने और मेरे सभी भाई बहिनों की अपने-अपने क्षेत्र में जो भी उपलब्धियां हैं- उसकी प्रेरणा का स्त्रोत और मार्ग दर्शक हैं वो-जिनकी पुण्य स्मृति में आज यह समारोह आयोजित है।
जहां पत्रकारिता में उनको महारत हासिल थी, उनकी कविताएं उनके काव्यात्मक रुझान का प्रमाण देती हैं। वे लंबी-लंबी यात्राओं में कार चलाते थे और बगल वाली सीट पर मैं ही बैठता था, क्योंकि मैं ऊंघता नहीं था। पीछे की सीटों पर सब सोते रहते और मैं उन्हें अपनी कविताएं गुनगुनाते सुनता रहता-
'तुम भी पथ पर चरण धर रहे, मैं भी पथ पर चरण रख रहा।
मंजिल की ऐसी मजबूरी, अपनी राहें अलग-अलग हैं।'
ये पंक्तियां अब तक मुझे याद हैं।
उनकी अन्य विशेषताओं में प्रत्युत्पन्नमति और विनोदप्रियता भी शामिल थे। मोटरकारों का उन्हें बहुत शौक था और वे अत्यंत कुशल चालक भी थे। उन दिनों भारत में कारें केवल विदेशों से ही आती थीं। बेबी ऑस्टिन, मॉरिस-8 और हिलमैन मिंक्स जैसी कारें, जो वे हर दो-तीन वर्षों में बदलते रहते थे। एक बड़ी कार वे मद्रास से लेकर आये। फोर्ड वी-8, जिसका नंबर था-एम.एस.पी. 2923। मैंने कहा-मामाजी इसका नंबर तो आपकी जन्मतिथि व वर्ष है। तो वे तुरंत बोले- और हां। नाम भी तो अपना ही है-मायाराम सुरजन पत्रकार (एम.एस.पी.)।


