मन ना लागो मेरा यार इंडिया गठबन्धन में...!
जब बिहार विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के दौरान तेजस्वी यादव बतलाते हैं कि नीतीश कुमार कहते थे कि 'उनका इंडिया गठबन्धन में मन नहीं लगता

- डॉ. दीपक पाचपोर
जब बिहार विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के दौरान तेजस्वी यादव बतलाते हैं कि नीतीश कुमार कहते थे कि 'उनका इंडिया गठबन्धन में मन नहीं लगता।' अगर किसी का विरोधी खेमे में मन नहीं लग रहा तो उसमें बुरा लगा लेने वाली कोई बात नहीं है। हालांकि नीतीश बाबू के संदर्भ में यह बात थोड़ी आश्चर्यकारी हो सकती है कि उनके घर में कभी जांच अधिकारी पहुंचते क्योंकि उन पर ऐसा कोई आरोप कभी नहीं रहा।
मन लागो मेरा यार फकीरी में।
आखिर यह तन खाक मिलेगा,
क्यूं फिरता मगरूरी में।।
कबीर दास जी ने जब यह भजन लिखा होगा तब उनके सामने बहुत विकल्प नहीं होगे, तभी उन्हें आगे की निम्नलिखित पंक्तियां भी सूझी होंगी-
जो सुख पावो राम भजन में, वो सुख नाही अमीरी में।
भला बुरा सब का सुन लीजै, कर गुजरान गरीबी में।।
कबीर का जीवन तीन मुस्लिम शासकों के कालखंडों से होकर गुजरा था। जब उनकी आंखें खुली थीं, तो तुगलक राज लगभग मिट चुका था और भारत पर तैमूर लंग का आक्रमण होने ही वाला था। कबीर ने बड़े होते हुए पूरा सैयद काल देखा। उन्होंने जब मगहर में 1518 में अपनी आंखें मूंदी थीं तब तक लोदी वंश का राज 67वें वर्ष में पहुंच चुका था। 12वीं सदी से मोहम्मद गौरी के जरिये भारत में प्रारम्भ होकर परवर्ती मुस्लिमों के सम्पूर्ण शासनकाल में अपेक्षाकृत सबसे उदार मुगलिया सल्तनत की स्थापना करने वाला बाबर कबीर साहेब की मृत्यु से 18 साल दूर खड़ा था। यहां इतिहास को हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक क्रांतिकारी संत कवि के जीवन काल को इन सन्दर्भों के साथ इसलिये देखा जा रहा है क्योंकि यही वह काल था जब सारे कवियों, संतों के पास दो ऑप्शन थे (बाद में भी रहे)- उपरोक्त किसी के भी दरबार में रहकर सम्पन्नता का जीवन जियें, या फिर 'संतन को कहां सीकरी सो काम' की तज़र् पर जनता के बीच रहकर हरिनाम जपते रहें। कबीर ने बताया कि उनका मन गरीबी में लगता है। इसलिए कबीर का गुजरान गरीबी में आसानी से हो गया। उन्होंने न सत्ताधीशों की संगत में बैठना पसंद किया और न ही दरबार से जुड़े लोगों के गठबन्धन में वे शामिल हुए- जो कि उस वक्त भी ज़रूर रहा होगा। जैसा कि हर दौर में हुआ करता है।
अब स्थिति दूसरी है। कम से कम भारत के सियासी हवाले से कह सकते हैं कि आज, खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शासनकाल के तमाम राजनीतिक दलों के पास तीन-चार ऑप्शन उपलब्ध हैं- या तो भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में बने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबन्धन में जाकर सुकून से रहें; या फिर कांग्रेस की रहनुमाई में बने विपक्षी गठबन्धन इंडिया में रहकर तमाम खतरे मोल लें। तीसरा विकल्प भी ज़रूर है; वह है दोनों से अलग रहें और जब जिसके साथ जाने में फायदा मिले, उसके साथ निकल लिये। मायावती, रामदास अठावले, दिवंगत रामविलास पासवान आदि। हां, एक और रास्ता है जिसे भूलना अनुचित होगा- वह है अरविंद केजरीवाल, असदुद्दीन ओवैसी, के चंद्रशेखर राव, जगन मोहन रेड्डी आदि। अगर वे किसी की 'बी' टीम भी कहलाते हैं तो उन्हें उससे कोई गुरेज़ नहीं। वैसे भारतीय राजनीति में इस तरह की जितनी पार्टियां हैं वे और भाजपा एक दूसरे को तौलती व आजमाती रहती हैं। भाजपा से बाकी दलों का सम्बन्ध इतने भर का नहीं है कि केन्द्र के साथ रहने का फायदा उठाया जाये, बल्कि उनके सम्बन्धों का आधार केन्द्रीय जांच एजेंसियों का भय भी है। गिनती के ही कुछ नेता हैं जो बेहद निर्लिप्त किस्म के हैं, मसलन नवीन पटनायक आदि। वे शांत चित्त प्रदेश के लिये अपना काम करते हैं और दोनों ही खेमों से दूर रहते हैं। न तीन में न तेरह में।
बहरहाल, आज दरबार लगाकर दिल्ली के तख्ते ताऊस पर बैठे लोग पुराने समय के मुकाबले काफी उदार भी हुए हैं। अब वे उन लोगों के लिये भी तपाक से अपने द्वार खोल देते हैं जिनके लिये कभी वे सार्वजनिक मंचों से ऐलान कर चुके होते हैं कि 'फलां-फलां कान खोलकर सुन लें कि उनके लिये महल के दरवाजे बन्द हो चुके हैं।' उनके हृदय की यह विशालता ही कही जायेगी कि जिन लोगों को वे देश के सबसे भ्रष्ट नेता, मंत्री या मुख्यमंत्री करार दे चुके होते हैं उनके साथ मिलकर वे चुनाव लड़ लेते हैं और जीत जाने पर सरकार भी बना लेते हैं; उनके तहत काम करने के लिये तक सहर्ष तैयार हो जाते हैं। अब शासकों को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अनैतिकता का नया नाम 'चाणक्यगिरी' है। विरोधियों को साथ लेने के लिये केवल चुनावी रणनीति या कोई साझा कार्यक्रम ही नहीं बनता बल्कि अब किसी का साथ पाने के लिये उनके पितामहों या आदर्श पुरुषों को 'भारत रत्न' से भी नवाज़ा जाता है, फिर चाहे उनके साथ कितना भी वैचारिक विरोध ही क्यों न रहा हो।
इसके विपरीत जो दरबार में हाजिरी नहीं बजाते उनका जीवन बड़ा कठिन होता है। किस रोज उनके द्वार पर सीबीआई, ईडी, आयकर अधिकारी दस्तक दे देंगे, कहा नहीं जा सकता। ऐसे गैर दरबारी नेताओं व दलों में हमेशा टूट-फूट होती रहती है और उनकी सरकारें कब गिर जायें- इसका बिलकुल भरोसा नहीं रहता। दरबार से बाहर रहने वाले दलों के विधायकों पर हमेशा दबाव रहता है। दबाव हर तरह के होते हैं- जैसा कि ऊपर बताया गया- जांच एजेंसियों का या थैलियों का। जो जिस लायक होता है उसके साथ वैसी डील करने में दरबार माहिर है। जिसे कमज़ोर नब्ज़ पर हाथ रखना भी कहा जाता है। कभी-कभी इस बात की सख्त ज़रूरत तो महसूस होती है कि ऐसे दरबार के खिलाफ विद्रोह कर दिया जाये, उसे उखाड़ फेंका जाये। सताये हुए या समविचारी साथी भी जुट जाते हैं लेकिन यह बहुत आसान नहीं होता। उसके लिये राहुल गांधी बनना होता है, हेमंत सोरेन, स्टालिन, सिद्धारमैया, डीके शिवकुमार और तेजस्वी यादव बनना होता है।
इसलिये बड़ी बात नहीं कि जब बिहार विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के दौरान तेजस्वी यादव बतलाते हैं कि नीतीश कुमार कहते थे कि 'उनका इंडिया गठबन्धन में मन नहीं लगता।' अगर किसी का विरोधी खेमे में मन नहीं लग रहा तो उसमें बुरा लगा लेने वाली कोई बात नहीं है। हालांकि नीतीश बाबू के संदर्भ में यह बात थोड़ी आश्चर्यकारी हो सकती है कि उनके घर में कभी जांच अधिकारी पहुंचते क्योंकि उन पर ऐसा कोई आरोप कभी नहीं रहा और वे साफ छवि के नेता माने जाते हैं। इसलिये तो वे मोदी विरोधी खेमे इंडिया के झंडाबरदार बने। हालांकि वर्तमान दौर में बिना आधार व कारण के भी जांच एजेंसियां धमक सकती हैं। राहुल के इस कथन का शायद कभी खुलासा हो कि आखिर वह 'थोड़ा सा दबाव' किस बात का था जिससे कि 'नीतीश कुमार टूट गये'। वैसे नीतीश की तरह ही बहुतों को लगता है कि दरबार के साथ बने रहे तो उनके राज्य में विकास के काम जल्दी होंगे; जहां कथित डबल इंजिन की सरकारें हैं, वहां काम की दशा और गति को देखकर जाना जा सकता है कि इसकी कोई गारंटी नहीं कि दरबार का आशीर्वाद सभी को मिलेगा ही। फिर, जैसा कि अष्टछाप कवियों में से एक कुंभनदास कह गये हैं-
संतन को कहां सीकरी सो काम
आवत जावत पनिहा टूटी, बिसरी गयो हरिनाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत
तिनको करिबे परी सलाम।।
नीतीश की दिक्कत अब यह होगी कि वे हरिनाम की तरह सामाजिक न्याय, जातिगत जनगणना, विशेष राज्य का दर्जा, पैकेज आदि का अब तक जो सुमिरन करते थे, सब भूल जाएंगे। अभी तक जिन मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के मुख देखते ही उनके मन में दुख उपजता था, उन्हें भी नीतीश बाबू को सलाम करना पड़ेगा।
गरीबी में जिसका मन लग जाये, आखिर वही तो कबीर होता है; जो हर कोई तो हो नहीं सकता।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


