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बेसब्र न हो मुस्लिम समाज

पिछले साल रामनवमी और हनुमान जयंती पर देश के अलग-अलग हिस्सों को साम्प्रदायिकता की आग में झुलसते हम सबने देखा था

बेसब्र न हो मुस्लिम समाज
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पिछले साल रामनवमी और हनुमान जयंती पर देश के अलग-अलग हिस्सों को साम्प्रदायिकता की आग में झुलसते हम सबने देखा था। अभी मई के महीने में फिर कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनसे मालूम होता है कि दो समुदायों के बीच नफ़रत की चिंगारी कभी भी, कैसे भी भड़काई जा सकती है।

तेलंगाना के मेडक जिले के नरसापुर में एक रेस्तरां मालिक और गैस सिलेंडर की डिलीवरी देने वाले शख्स के बीच हुई हल्की सी हाथापाई देखते ही देखते एक मजहबी वारदात में बदल गई। रेस्तरां मालिक था मोईनुद्दीन और डिलीवरी बॉय लिंगम, और ये नाम तिल का ताड़ बनाने के लिए काफ़ी थे। स्थानीय नगर पालिका अध्यक्ष मुरली यादव और पार्षद राजेन्द्र - जिनका सम्बन्ध भाजपा से बताया जाता है, की अगुआई में भीड़ ने मोईनुद्दीन की जमकर पिटाई कर दी। अपनी माँ के साथ बीच-बचाव करने आई मोईनुद्दीन की गर्भवती बहन को भी भीड़ ने नहीं बख्शा और उसका गर्भपात हो गया। नपा अध्यक्ष, पार्षद और बाकी बलवाइयों के ख़िलाफ़ तो पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की लेकिन मोईनुद्दीन को ज़रूर जेल भेज दिया।

दूसरी घटना महाराष्ट्र में औरंगाबाद के सिल्लोद में हुई, जहां सागर विट्ठल वानखेड़े नामक एक शख्स को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उसने सोशल मीडिया पर अपने प्रोफाइल पिक्चर में ऐसी तस्वीर लगाई थी जिसमें औरंगज़ेब ज़मीन पर पड़ा है और शिवाजी का एक पैर उसके ऊपर है। अमीर शौकत शाह नाम के एक शख्स ने मुसलमानों की भावनाएं आहत करने का आरोप लगाते हुए सागर के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करवाने की कोशिश की, लेकिन जब पुलिस ने ऐसा करने से मना कर दिया तो शिंदे गुट की शिवसेना के विधायक अब्दुल सत्तार ने दखल दिया और पुलिस को अंतत: सागर के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी पड़ी। हालांकि बाद में सागर को गिरफ्तार करने वाले पुलिस कर्मी को निलंबित कर दिया गया।

तीसरी घटना मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर में घटी। यहां डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे भावेश सुनहरे को मुस्लिम महिला मित्र के साथ घूमते देख मुसलमान युवकों ने घेर लिया और उसके साथ मारपीट की, उसकी मित्र को भी इस्लाम को लेकर भाषण पिलाया गया। जो लोग बीच बचाव करने आए, उन्हें चाकुओं के वार झेलने पड़े। इससे कुछ ही दिन पहले इसी शहर के अल्पसंख्यक बहुल इलाके में द केरला स्टोरी फ़िल्म के विरोध में या कहें कि उसके जवाब में बेनामी पोस्टर लगाए गए थे जिनमें मुस्लिम लड़कियों से भगवा लव ट्रैप में न फंसने की अपील की गई थी और हिंदू संगठनों से सावधान रहने को भी कहा गया था। गनीमत है कि दोनों मामलों में पुलिस ने त्वरित कार्रवाई कर आरोपियों को पकड़ लिया गया है।

इन सभी घटनाओं में एक बात साफ़ है कि इनमें बेवजह बात का बतंगड़ बनाया गया। मेडक में जिस मामूली से विवाद को समझा बुझाकर शांत करवाया जा सकता था, उसे जान बूझकर भड़काने और उसकी आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश की गई। सिल्लोद का प्रसंग तो हास्यास्पद है और आश्चर्यजनक भी। आख़िर आज के मुसलमान को औरंगजेब से क्या लेना-देना है जो एक तस्वीर से उसकी भावनाएं आहत हुई जा रही हैं। और ऐसे मामले में विधायक महोदय की दखलंदाजी समझ से परे है, ख़ास तौर से तब जब वे अपनी पार्टी की विचारधारा को अच्छी तरह जानते-समझते हैं। वे भलीभांति जानते होंगे कि उनकी पार्टी और सरकार उनके ऐसे क्रियाकलाप से कभी सहमत नहीं होगी।

महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की घटनाओं में यह भी नज़र आ रहा है कि मुस्लिम समुदाय - जिसने हाल के ज़्यादातर मामलों में बहुत समझदारी दिखाई, भड़काऊ बातों पर प्रतिक्रिया नहीं दी, उलटे हिन्दुओं के धार्मिक आयोजनों में फूल बरसाकर, शरबत पिलाकर अपनी तरफ से सद्भाव जताने की कोशिश की, अब शायद अपना सब्र खोने लगा है। लेकिन अगर वह किसी तस्वीर को मुद्दा बनाने की कोशिश करके, किसी फ़िल्म का जवाब आपत्तिजनक पोस्टरों से देकर या अपने समाज की लड़की के गैर मुस्लिम लड़के से दोस्ती पर ऐतराज़ करके अपनी बेचैनी का इज़हार कर रहा है तो कहना होगा कि ये तरीके कतई ठीक नहीं हैं। नफ़रत का जवाब नफ़रत से देना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।


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