उत्पादकता बढ़ाने के लिए मूर्ति का गैर-उत्पादक सुझाव
एनआर नारायण मूर्ति ने कहा है कि राष्ट्रीय उत्पादकता बढ़ाने में मदद के लिए युवाओं को 70 घंटे काम करना चाहिए

- जगदीश रत्तनानी
भारत में कई लोग कम मजदूरी, शून्य लाभ और लंबे समय तक काम के घंटों के चक्र में फंसे हैं। मूर्ति की टिप्पणी का इस्तेमाल इन कदाचारों को वैध बनाने के लिए किया जाएगा। कम शब्दों में कहें तो यह इस घातक तर्क को आगे बढ़ाता है कि गरीब आलसी हैं, कि अमीर इसलिए अमीर हैं क्योंकि वे कड़ी मेहनत करने वाले नागरिक हैं जो राष्ट्र को आगे ले जाते हैं और इस गलत तर्क के लिए मंच तैयार करते हैं।
एनआर नारायण मूर्ति ने कहा है कि राष्ट्रीय उत्पादकता बढ़ाने में मदद के लिए युवाओं को 70 घंटे काम करना चाहिए। यह बहुत कुछ 19वीं शताब्दी जैसा ही है। 18 के दशक के अंत और 19 के दशक की शुरुआत में मिल मजदूरों ने कड़ी मेहनत की और उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित किया गया। काम करने के आदर्श घंटे सूर्योदय से सूर्यास्त तक थे जो बिजली के बल्ब की तकनीक के आने के बाद और अधिक बढ़ गये। अब काम को सूर्यास्त के समय रोकना और खींचना नहीं पड़ता था। यह तब तक चलता रहा जब तक कि श्रमिकों ने प्रौद्योगिकी द्वारा लाए गए अमानवीय शोषण का विरोध करने के लिए फिलामेंट बल्बों को तोड़ नहीं दिया।
आईटी की दुनिया आज बहुत अलग है जिसमें मूर्ति और उनके द्वारा सह-स्थापित कंपनी इंफोसिस का काम और उनकी बात बहुत महत्व रखती है। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए मूर्ति की टिप्पणी आईटी सेवा क्षेत्र पर तुरंत लागू होगी जो वैश्विक बाजारों में भारत की भागीदारी में क्रांति लाते हुए अनिवार्य रूप से श्रम अदला बदली पर निर्मित मजदूरों का अड्डा रहा है। कुछ लोग तर्क देंगे कि यही कारण है कि कंपनी और इस क्षेत्र में कई लोग आईटी कर्मियों का श्रम निर्यात करने वाले पेशेवर बने रहे और बड़े पैमाने पर मूल्य श्रृंखला को आगे बढ़ाने में विफल रहे। अन्य बाजारों से नवाचार आना जारी है, एआई ( आर्टिफिशिअल इंटलिजेंस) की पेशकश केवल एक पारिस्थितिकी प्रणाली से आ रही है जो नाटकीय रूप से यहां प्राप्त की गई चीजों से अलग है। गैर वर्गीकृत, प्रयोग की भावना, जोखिम लेने और विफलता की स्वीकार्यता इसके कुछ हाईलाइट्स हैं। इनमें से कोई भी अनिवार्य, विनियमित, निगरानी की गई कड़ी मेहनत के साथ अच्छी तरह से मेल नहीं खाता है जिस अर्थ में इसे भारत में समझा जाता है जो बड़े पैमाने पर एक ही समय में नीरस, रोमांचक और शोषक कार्य दर्शन तथा 'जितना बताया गया है, उतना करो' की नीति पर चलता है।
यह मालूम होना चाहिए कि कड़ी मेहनत से आवश्यक रूप से उच्च श्रम उत्पादकता नहीं होती है। यदि ऐसा हुआ भी तो तब मिलों में और अब सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में यह देश को कहीं नहीं ले जाएगा। इससे तब मिल मालिकों को फायदा हुआ था और अब आईटी दिग्गजों को लाभ होगा। वास्तव में यह मानव पूंजी में निवेश किए बिना एक कार्य बल के शोषण की संस्कृति को मजबूत करता है ताकि अधिकांश लोगों का उनकी क्षमता के निर्माण में उचित निवेश के बिना 'उपयोग' किया जा सके और उन्हें बढ़ने के लिए अपेक्षित सहायता प्रदान की जा सके
यह अल्पकालिकता व्यवसायी को तात्कालिक रूप से लाभ पहुंचाती है लेकिन दीर्घकाल में प्रणाली और उत्पादकता को नुकसान पहुंचाती है। यह एक ऐसा दृष्टिकोण है जो अब तक भारत की विकास कहानी के कई पहलुओं की विशेषता रही है। कमजोर श्रम कानून, श्रम बल की बढ़ती ठेकेदारी, ट्रेड यूनियनों की घटती शक्ति, शोषण का लंबा इतिहास और नौकरी, मतलब किसी भी प्रकार की नौकरी की सख्त जरूरत जैसे कारकों के संयोजन से यह स्थिति और भी बदतर हो जाती है। इस वजह से कार्य बल के प्रणालीगत दुरुपयोग के लिए स्थितियां अनुकूल हो जाती हैं।
आईटी क्षेत्र में, यह बहुत कम उम्र में श्रमिकों को थोक में जिन्दा प्रेत 'जाम्बीज़' बना देता है। किसी और चीज के बारे में कम जागरूकता के साथ उन्हें स्क्रीन पर काम करने के लिए धकेल दिया जाता है। उन्हें उद्यमी या अभिनव किसी भी चीज़ से बहुत दूर ले जाया जाता है। काम के दबाव का मतलब है कि भारत के शिक्षित युवा, विशेष रूप से आईटी-सक्षम सेवा क्षेत्र में कार्यरत अनुमानित 54 लाख युवा कम कौशल, कम वेतन और लंबे समय तक काम के घंटों के साथ मूल्य श्रृंखला के निचले छोर पर हैं। हफ्ते के अंत में वे आराम करने के लिए बार और क्लबों में जाते हैं। वे एक ऐसी दिनचर्या से अपना समय निकालते हैं जो कमर तोड़ने वाली और आत्म-पराजित होती है, जिसमें समग्र विकास के लिए बहुत कम विकल्प होते हैं और सामान्य तौर पर उनमें मानसिक बीमारी की संभावना अधिक होती है।
मूर्ति ने यह टिप्पणी इंफोसिस के पूर्व सीएफओ टीवी मोहनदास पई के साथ एक साक्षात्कार की है। मूर्ति इस बात से अनजान नहीं हो सकते कि पई वह व्यक्ति हैं जिसने जेएनयू में छात्रों के राजनीतिक रुख अपनाने पर आपत्ति जताई थी और इसे 'करदाताओं के पैसे का दुरुपयोग' कहा था। उनका (पई का) मतलब है कि शिक्षा राजनीतिक समझ या राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग लेने से रहित होनी चाहिए। अर्थात संदेश यह है कि आप 'कठिन अध्ययन' करें लेकिन आप किसी विषय पर एक स्टैंड नहीं ले सकते, खासकर अगर वह स्टैंड मेरी पसंद का नहीं है। यह सुविधा हार्वर्ड के उन लोगों को दी जानी है जहां मूर्ति के बेटे ने पीएचडी की है न कि जेएनयू में, जहां कन्हैया कुमार ने पीएचडी की है। जब कन्हैया कुमार को विपक्ष ने लोकसभा सीट के लिए साझा उम्मीदवार बनाया था तब पई ने पूछा था कि कन्हैया कुमार की पीएचडी का क्या हुआ? 70 घंटे के कार्य सप्ताह पर मौजूदा विवाद में जब सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी में इंफोसिस को आईटी 'कुली' प्रदाता के रूप में रखने वाली मानसिकता की व्याख्या करते हुए आलोचना की तो पई ने लेखक को जवाब दिया कि जब तक वह इंफोसिस जैसी कंपनी नहीं बनाते तब तक चुप रहें- अगर आपके पास पैसा नहीं है, तो बात न करें!
यह विचार इंफोसिस को 'जाम्बीज़' रखने की सुविधा दे सकता है लेकिन यह कभी भी राष्ट्र की सेवा नहीं कर सकता है और न इसे राष्ट्रीय पुनरुद्धार के मार्ग के रूप में पेश कर सकता है। भारत में कई लोग कम मजदूरी, शून्य लाभ और लंबे समय तक काम के घंटों के चक्र में फंसे हैं। मूर्ति की टिप्पणी का इस्तेमाल इन कदाचारों को वैध बनाने के लिए किया जाएगा। कम शब्दों में कहें तो यह इस घातक तर्क को आगे बढ़ाता है कि गरीब आलसी हैं, कि अमीर इसलिए अमीर हैं क्योंकि वे कड़ी मेहनत करने वाले नागरिक हैं जो राष्ट्र को आगे ले जाते हैं और इस गलत तर्क के लिए मंच तैयार करते हैं कि टैक्स देने वाले 'दाता' हैं और बाकी लोग 'लेने' वाले हैं; और यह कि वंचितों को दी जाने वाली सब्सिडी कड़ी मेहनत करने वालों पर अनुचित बोझ है।
भारतीय शिक्षा और कार्य प्रणाली की समस्याओं में से एक समस्या यह है कि हम जिज्ञासा की कीमत पर तत्काल काम पर ध्यान केंद्रित करना या दीर्घकालिक मनोरम दृश्य या भविष्य के साथ जुड़ाव चाहते हैं। यह अंत:विषय ज्ञान को सीमित करता है, रिक्त स्थानों को जोड़ने की क्षमता को बाधित करता है तथा छात्रों और श्रमिकों को तेजी से परिवर्तन व उच्च जटिलता द्वारा चिह्नित दुनिया की व्यापक तस्वीर देखने के लिए सशक्त नहीं बनाता।
यह खतरा बिना किसी उद्देश्य के श्रमिकों और नेताओं के साथ समाप्त हो रहा है जो यूनिडायरेक्शनल फोकस के साथ टारगेट पर अपना दिमाग, अपने समय के महत्वहीन कार्यों पर ध्यान केंद्रित करते हैं और नैतिक रूप से उन महत्वपूर्ण मुद्दों से अनजान हैं जो आज उनके संगठन और वास्तव में राष्ट्र का सामना करते हैं। ये लोग 'गति' के बारे में चिंतित हैं न कि उस 'दिशा' के बारे में, जिस दिशा में हम जा रहे हैं। इस तरह के नजरिये के साथ पहले से कहीं अधिक तेजी से पहुंचने और समय से पहले गलत जगह पर उतरने का खतरा बना हुआ है। भारत के लिए इससे ज्यादा विनाशकारी कुछ नहीं हो सकता।
मूर्ति अपनी वरिष्ठता और सम्मान के साथ एक बहुत अलग संदेश दे सकते थे- हमारे युवाओं को तत्काल से परे एक बड़े उद्देश्य से प्रेरित होना चाहिए। हमें दूसरों की देखभाल, उनका दर्द समझने तथा साझा करने के विचार का निर्माण करने की आवश्यकता है और यह महसूस करने की आवश्यकता है कि भारत केवल तभी विकसित हो सकता है जब हम सभी- सभी क्षेत्र, धर्म, जातियां, समूह, स्तर और समुदाय, एक साथ बढ़ते हैं। यह एक ऐसा भारत है जहां मजदूरी असमानताएं पहले से कहीं कम हैं, जहां सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाती हैं और हमारे कार्य बल को मेहनती, भ्रष्टाचार मुक्त और आम नागरिक की सेवा में तैयार होने के लिए जाना जाता है। मूर्ति का ऐसा संदेश,जश्न मनाने वाला एक संदेश होता।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट: दी बिलियन प्रेस)


