मटियामेट
अर्धचन्द्राकार में चार अस्पष्ट मूर्तियाँ व्यवस्थित हैं 7 सामने माताज़ी का चौपड़

- अनुवादक : डॉ. सोमाभाई पटेल
अर्धचन्द्राकार में चार अस्पष्ट मूर्तियाँ व्यवस्थित हैं 7 सामने माताज़ी का चौपड़। वहां माताज़ी का मुख्य भुआ (भक्त) प्रणाम की मुद्रा में लीन हो गया। पीछे दसेक भक्त भी उसका अनुकरण कर रहे थे। मूर्तियों के पीछे दो बुजुर्ग मिट्टी के गड्ढों से जवारा के लिए मिट्टी के बर्तन निकाल कर उन्हें व्यवस्थित कर रहे थे। थोड़ा दूर दसेक बालिकाएँ मानो जवारा सिर पर उठाने का इंतजार कर रही थी। हम दोनों को देखकर 'हे राम राम साहेब' पधारें ! पधारें !' कहते हुए गाँव के मुखी और कुछ लोग मेरी ओर दौड़ पड़े। उनके भाव और स्वागत से मेरा दिल खुश हो गया। मैंने भी प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़े और सभी ने राम राम कहकर हाथ मिलाया।
दूर से धुँधली और गूंगी दिखाई देती पहाड़ी अब चहचहाने लगी थी। रंग-बिरंगे पक्षियों का झुंड उड़ता और सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से चहचहाने लगता। हवा के झोके से झूमते पेड़ मानो पंख लहरा रहे हों ऐसा लगता था। आगे मौन पटवारी मोहनलाल और पीछे पीछे मैं । उन्होंने कहा : 'इस जंगल में जंगली जानवरों से नहीं, बल्कि सांप या अजगर से डर लगता है। इसलिए हाथ में डंडा लिया है ।'
कॉलेज में जब से लोकसाहित्य पढ़ने का अवसर मिला तब से अज्ञात जातियों के जीवन की, रहन-सहन एवं पर्व-त्यौहारों के बारे में जानने की जिज्ञासा बढी थी। आज मोहनलाल के कारण उसे प्रत्यक्ष देखने और अनुभव करने का सुखद अवसर मिला था। हम थोड़ा चढ़ाव चढ़े होंगे, वहीँ मोहनलाल ने पूछा: 'साहब, वनवासी विस्तार में पहली मुलाक़ात होगी !'
'हाँ, हाँ,' कहते हुए मैंने जोड़ा : 'अच्छा हुआ जो आपसे परिचय हुआ। नहीं तो मेरा यहाँ आना नामुमकिन होता!'
'ऐसा नहीं है साहब, अज्ञात और वनवासी लोगों के बारे में जानने की जिज्ञासा तो आपको पहले से ही थी। मैं नहीं तो कोई दूसरा...' ऐसा नहीं, यार, आपको भी कहाँ ख़बर थी कि मुझे वनवासियों के बारे में जानने का विशेष रस है? उच्च वर्ग के कर्मचारियों के प्रति सामान्य वर्ग के कर्मचारी किस प्रकार अंतर बनाए रखते हैं यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। लेकिन हमारे बीच अच्छा ट्यूनिंग या दोस्ती जैसा कुछ है।
पहाड़ी की चोटी पर पहुंचते ही प्रकृति का एक सुंदर नज़ारा देखा! दूर तक दिखाई देने वाली पहाड़ियों की हारमाला । बीच में मिट्टी के घर धारण किये हुए नृत्य की मुद्रा में दिखती अनगिनत तलहटियाँ! 'कितना भाग्यशाली है वह जो यहाँ रहता है ! 'बिलकुल प्राकृतिक... बिलकुल स्वर्ग!' मन ही मन बुदबुदाते हुए मैं उस सुंदर नज़ारे को देखकर कहीं खो गया था। वहीँ एक बड़ी पहाड़ी पर लहराती ध्वजा की ओर इशारा करते हुए पटवारी ने कहा, 'साहब, हमें जिस जगह पहुँचना है, वह ध्वजा वाली पहाड़ी है।
और पहाड़ी से नीचे उतरते वक्त मैंने वहां के वासियों की नवरात्री-साधना, उत्सव-समारोहों में होने वाले विधि-विधान और नृत्य की रोचक कथाएँ सुनीं। सारी बातों में कब रास्ता गुजर गया पता ही नहीं चला ! जैसे ही हम पहाड़ी से उतरे; ध्वजा की ओर से बज रहा ढोल स्पष्ट सुनाई दिया ।
'यह ढोल क्यों पीटा जाता है?' मैंने पूछ लिया ।
मोहनलाल के मतानुसार, ढोल नवरात्रि की समाप्ति के अवसर पर बजाया जा रहा था । नवरात्रि समाप्ति के अवसर पर पूरा पंथक उमड़ेगा । अनुष्ठानिक रूप से माताज़ी; भूत, प्रेत, डायन और जादू-टोने से पीड़ित लोगों की पीड़ा को दूर करेगी । इस पूरे आयोजन का आनंद लेने के लिए ह्रदय बावला हो रहा था । और ध्वजा वाली पहाड़ी के नजदीक पहुंचकर देखा तो बड़ी भीड़ उमड़ी थी। कोई नारियल-अगरबत्ती के साथ, कोई लोटा में घी लेकर तो कोई थाली के साथ, कोई नंगे पाँव माताज़ी के दरबार में आया था । कोई तो बार-बार ध्वजा की ओर देखकर मत्था टेक रहा था । 'आस्था का कोई विकल्प नहीं है।' आगे मोहनलाल और पीछे मैं ! भावुकतापूर्ण अवस्था में ही हम दोनों माताज़ी के स्थानक तक पहुँच गये।
अर्धचन्द्राकार में चार अस्पष्ट मूर्तियाँ व्यवस्थित हैं । सामने माताज़ी का चौपड़ । वहां माताज़ी का मुख्य भुआ (भक्त) प्रणाम की मुद्रा में लीन हो गया । पीछे दसेक भक्त भी उसका अनुकरण कर रहे थे । मूर्तियों के पीछे दो बुजुर्ग मिट्टी के गड्ढों से जवारा के लिए मिट्टी के बर्तन निकाल कर उन्हें व्यवस्थित कर रहे थे । थोड़ा दूर दसेक बालिकाएँ मानो जवारा सिर पर उठाने का इंतजार कर रही थी । हम दोनों को देखकर 'हे राम राम साहेब' पधारें ! पधारें !' कहते हुए गाँव के मुखी और कुछ लोग मेरी ओर दौड़ पड़े । उनके भाव और स्वागत से मेरा दिल खुश हो गया । मैंने भी प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़े और सभी ने राम राम कहकर हाथ मिलाया । जैसा कि पहले हम मान चुके थे, पटवारी ने मेरा परिचय उनके मित्र के रूप में दिया । कुछ ही मिनटों में माताजी का डेरा लोगों से भर गया और हमने नीचे ही आसन ग्रहण कर लिया । अब भुए ने पात्र में अगरबत्ती जलाई और सभी मूर्तियों को धूप किया । फिर वह ध्यान की मुद्रा में बैठ कर मूर्तियों को ताकता रहा । सभी को थोड़ी देर के लिए आश्चर्य हुआ । और वह 'अहे, अहे, सभाजनों' पुकार कर और फिर 'अहे आजी कालिका... आजी अम्बा...' बोलते हुए धुनने लगा । मानो करंट लगा हो वैसे अन्य भक्त भी अपनी अपनी जगह खड़े हो गए और चिल्लाने लगे । फ़ौरन मुखिया ने 'घणी खम्मा माँ... घणी खम्मा' कहकर भुए में जोश भर दिया । उसने तीन-चार बार लोहे की जंजीर अपने पीठ पर मारी ।
भुए के बाद तीन-चार साधकों ने भी अनुकरण किया । यह देखकर मन में हुआ: 'अवश्य कोई सत होगा, नहीं तो जंजीरों की मार !' जंजीर डाल दी और सभी साधकों को एक अर्धवृत्ताकार में व्यवस्थित किया गया और वे धुनने लगे । और पीछे मोरपिंछ का जाडू घुमाते हुए भुआ ऐसे चक्कर लगा रहा था मानो गोपालक गाय चराने निकला हो! पंद्रह मिनट तक मनन करने के बाद भुआ माताज़ी की मूर्ति के सामने मत्था टेकते हुए बैठ गया। सिर और पूरे शरीर को ज़ोर से धुनाते हुए एकदम सीधा बैठ गया। साधकों ने भी उसका अनुकरण किया। माहौल गंभीर और शांत हो गया। सभी साधकों ने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर और अपने विचार प्रकट किये । एकाध मिनट के बाद सब चुपचाप वहीँ बैठ गये । फिर भुआ ने मुखी के सामने नजर मिलाई और चौतरफ़ देख लिया । मूर्तियों को फिर से धूप करते हुए प्रमुख मानी जाती मूर्ति के सामने वह बैठ गया। मानो नज़र बाँध रहा हो ! मुखी ने पुकारा: 'चलें भई ! सभी दुखीजन, चलें । माताज़ी के दरबार में बैठ जाएँ।'
माताज़ी के दरबार में कुछ लोग बैठ गये । उनमें से कुछ लोगों को हल्की-सी कंपकंपी का अनुभव हुआ । कोई चिल्लाते हुए माहौल को गुंजित कर रहा था । और बाक़ी लोग माताज़ी का प्रताप मानकर माँ को बार-बार प्रणाम करते थे।
एक-एक करके दुखीजन भुए के पास अपना स्थान बना लेते हैं। बगल में बैठे हुए अनुभवी साधक ने पूछा :
'कौन-सा दु:ख आ पड़ा कि माताज़ी के पास आना हुआ ?'
यदि कोई भूत-पिशाच से पीड़ित है तो वह धुनने लगता है, या उत्तर ही नहीं देता है । सामान्य तकलीफ़ वाला बोलने लगता है । भुआ अपने सामने रखे हुए अनाज के ढेर में से अनाज उठाकर दूर फेंकता है । उसमें से वेण (दो-दो की जोड़ी) बनाकर संगीत की भाषा में कहता है । और सहायक साधक 'हाँ' कहते हुए 'माताज़ी की जय' पुकार रहा है । जादू-टोना, भूत-प्रेत के विभिन्न कारणों के उपचार में भुआ पीड़ित व्यक्ति के शरीर पर तेजी से जलती मशाल फेरता । काला धागा मंतर कर बांधता । अनाज के दाने मु_ी में लेकर उस पर फूंक मारते हुए पीड़ित को खिलाता । फिर उसकी पीठ पर एक हल्की जंजीर फटकारता । पीड़ित व्यक्ति संतुष्टि और ख़ुशी की भावना के साथ उठ खडा होता ।
मेरा मन उछलकूद करने लगा।
'यह सच में भुए का ढोंग है या सच ?'
'नहीं, नहीं, यदि कोई ढोंग होता तो पीड़ित लोग स्वस्थ और खुश होते ?'
'हाँ, यह सच है लेकिन...'
'उसमें ग़लत क्या है? जहाँ आस्था है, वहां सब कुछ..!' और अंत में एक दुखी महिला की बारी थी जो लगातार फुसफुसाती और चिल्लाती रहती थी । उसे एक साधक ने आगे आने के लिए कहा । लेकिन वह आगे आएँ तब न ! दो साधकों ने खड़े होकर उसकी बांह पकड़ा तो वह आगे बढ़ने की बजाय चीखती हुई नीचे गिर जाती।
'माई के पास जाने में क्यों नानी मरती है ? कहते हुए एक साधक ने लात मार दी और चिल्लाती हुई वह भुए के सामने ढेर हो गई । अब माताज़ी के रूप में भुआ पुलिस और जज की दोहरी भूमिका निभा रहा था । उसने औरत की चोटी पकड़ा तो चिल्लाहट के साथ वह बैठ गई और बिना पूछे ही बोलने लगी :
'मुझे छोड़ दें माँ, मैं चली जाती हूँ ।'
'इस प्रकार सरलता से तू नहीं जाने वाली है ।' कहते हुए भुए ने गर्जना की ।
'नहीं, नहीं, खाता खुलवाकर ऐसे कैसे जा सकती है ?' इस औरत को फिर से परेशान करने का षडयंत्र रचना चाहती है ?'
औरत की बाजुओं पर मार के निशाँ उभरने लगे । बिखरे हुए बाल और फटी हुई आँखें देखकर मैं तो हैरान रह गया। मेरे मन में दया जगी। उसे खड़ी करने की कोशिश कर रहा था कि मोहनलाल ने मुझे ऐसा न करने से रोकना चाहा । और मैं वापस बैठ गया।
अब मामले की डोर साधक ने पकड़ी । बड़ी सख्ती से पूछा : ' तू कौन है ? और कहाँ से आयी है ?'
'मैं पहाड़ी पर रमने वाली... जंगल में भटकने वाली जोगणी माँ आयी हूँ।'
भुआ दहाड़ कर धुनने लगा और महिला को पीटना शुरू कर दिया। 'मैं पूरे मलक मैं घुमने वाली और काले सिर वाले मनुजों का दु:ख दूर करने वाली; मेरे सामने ही झूठ ?' माताज़ी के दहाड़ते ही दुखीयारी ने बोलना शुरू किया।
'झूठ नहीं बोलूँगी रे माई, मैं काले सिर वाला मनुज । इस बचुड़ी की जरा-सी भूल में मैं उसमें पैठी, माई।'
'इस बालक को दु:ख किस बात का है ? उसका क्या गुनाह है ? बोल, बोल !'
'मैंने एक दिन थोड़ा सा दूध (छाछ) माँगा। इसने छाछ होते हुए भी मुझे धकेल दिया था। मैं दरवाजे से बाहर निकली कि इसने मेरी खिल्ली उड़ाई।'
दरमियान, सभी लोग आश्चर्य के साथ एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे ।
'तू कौन है, यह बोल... और प्रकट हो !' कहते हुए भुए ने उसके बाल खींचना शुरू किया ।
'नहीं, कहती हूँ रे... माई मारने बैठी हो ?' कहते हुए औरत रोते हुए धुनने लगी : 'मुझे छोड़ दें माई... मुझे जाना है... जल गई... ओय माँ जल गई रे !' कहते हुए ज़ोर से रोने लगी । 'माई के दरबार में से कोई बिना पहचान दिए गया है क्या ? फिर तू ऐसे ही कैसे जा सकती है ?' कहते हुए भुए ने चुटकी ली और अपना इरादा स्पष्ट किया ।
'आग में मिर्च का धूप कीजिए !'
'ऐसा न कीजिए, माई !'
'ऐसा है ?' हा... हा... हा... करते हुए माँ (भुए) ने कहा : 'लें मिर्ची धूप ! माफ़... और नाम नहीं देगी तो भी माफ़.... लेकिन, तुझे कोई निशानी तो देनी होगी ।'
'देती हूँ, निशानी देती हूँ ।'
पूर्व में हरा नीम ही मेरा ठिकाना है ।
उसके सामने वाले खेत में पानी की डंकी (हैण्डपंप) ही मेरी निशानी है ।'
'बस, इतना ही ? आगे कुछ अधिक बता दे ।'
'अपने दो दो बेटे । उनको मैंने ही मुई ने...' कहते हुए ज़ोर से रोने लगी ।
भुआ दहाड़ा : 'सगे बेटे को ? ससुरी सापिन !'
इसी बीच एक युवक अपने आप में कुछ बुदबुदा रहा था । दो-तीन युवकों ने उसे समझा-बुझाकर बैठा दिया कि वह हट जाएँ। पर वह हड़बड़ी में मु_ियाँ भींचता हुआ उत्तर की ओर भागने लगा। दूसरों ने उसका पीछा किया। दूसरी तरफ़, भुए ने दुखियारी के सभी अनुष्ठानों को अचानक पूरा कर देने का आदेश किया।
इस प्रकार अनुष्ठान समाप्त हो गया । बाद में, आगे ढोली, पीछे जवारा धारण करने वाली बालिकाएँ और उनके पीछे भुए तथा साधकों के बीच रमते माताज़ी और अंत में भक्त; सभी लोग नदी की ओर जा रहे थे । हम भी सीधे घर जाने के लिए नदी की ओर पहाड़ी पर चढ़ने लगे । उत्तर की ओर से ढोल-नगाड़ों की आवाज को भी निगल जाने वाली तबाही और चीख-पुकार सुनाई दी । मैं तो सोचता ही रह गया और आकाश को चीरती हुई जानलेवा चीख आकाश में गूंज उठी । सुंदर पहाड़ियों के साथ ही मेरी आँखों में भी अँधेरा छाने लगा । एक झलक उस युवक और उसके साथियों की मिली । तो दूसरी, मानो घर का कोना ढूंढती और बचने हेतु भागने की कोशिश करती औरत की मिली । मैं सोचने लगा कि 'किसी कलयुगी बल ने इस जंगल और आदिवासियों की सहज भोली भावनाओं, आस्थाओं को मटियामेट करना चाहा है।'


