'दूर हटो ऐ दुनिया वालों...'
वह गीतकार जिसने ग़ुलाम भारत में अंग्रेज़ों को ललकारा

- ज़ाहिद ख़ान
साल 1954 में आई फ़िल्म 'जागृति' में भी गीतकार प्रदीप ने कई यादगार गीत लिखे। 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की...', 'हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के...,' और 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल...' आदि गीतों ने बच्चों में जितनी धूम उस ज़माने में मचाई थी, उतनी ही मक़बूलियत आज भी क़ायम है। एक के बाद एक आये इन देशभक्ति भरे गीतों ने कवि प्रदीप को राष्ट्रकवि का मर्तबा दिला दिया। प्रदीप को सिफ़र् देशभक्ति भरे गीत लिखने में ही अकेले महारत नहीं थी, बल्कि उन्होंने अनेक धार्मिक और दार्शनिक गीत भी सफलता से लिखे।
हिंदी सिनेमा में गीतकार प्रदीप वह हस्ती हैं, जो अपने देश प्रेम और देशभक्ति गीतों की वजह से सारे देश में जाने-पहचाने जाते हैं। साल 1943 में फ़िल्म 'किस्मत' में लिखे उनके क्रांतिकारी गीत 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों...' की लोकप्रियता से घबराकर, बर्तानिया हुकूमत ने गीतकार प्रदीप के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी वारंट जारी कर दिया था। जिसके चलते प्रदीप कई दिनों तक अंडरग्राउंड रहे, लेकिन न तो फ़िल्म से यह गाना हटाया गया और न ही उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत से माफ़ी मांगी। उस ज़माने में यह गीत इस क़दर लोकप्रिय हुआ कि सिनेमाघरों में दर्शक इसे बार-बार सुनने की फ़रमाइश करते थे। आलम यह था कि दर्शकों की फ़रमाइश पर फ़िल्म के आख़िर में इस गीत को दोबारा सुनाया जाने लगा। गीतकार प्रदीप के देशभक्ति गीत की बात हो, और 'चल चल रे नौजवान...'का ज़िक्र न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। फ़िल्म 'बंधन' (1940) में लिखे उनके इस गीत को, तो राष्ट्रीय गीत का मर्तबा मिला। वह दौर, देश की ग़ुलामी का दौर था। सिंध और पंजाब असेंबली ने इस गीत को राष्ट्रीय गीत की मान्यता दे दी और ये गीत वहां की असेंबली में गाया जाने लगा। अदाकार बलराज साहनी, उस वक़्त लंदन में बीबीसी हिंदी रेडियो में एनाउंसर थे, वे भी इस गीत को वहां प्रसारित करने से अपने आप को नहीं रोक पाये। स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस 'ऐ मेरे वतन के लोगों...' गीत के बिना अधूरा होता है।
साल 1954 में आई फ़िल्म 'जागृति' में भी गीतकार प्रदीप ने कई यादगार गीत लिखे। 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की...', 'हम लाए हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के...,' और 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल...' आदि गीतों ने बच्चों में जितनी धूम उस ज़माने में मचाई थी, उतनी ही मक़बूलियत आज भी क़ायम है। एक के बाद एक आये इन देशभक्ति भरे गीतों ने कवि प्रदीप को राष्ट्रकवि का मर्तबा दिला दिया। प्रदीप को सिफ़र् देशभक्ति भरे गीत लिखने में ही अकेले महारत नहीं थी, बल्कि उन्होंने अनेक धार्मिक और दार्शनिक गीत भी सफलता से लिखे। उनकी मधुर आवाज़ ने इन गीतों को और नई ऊंचाईयां दीं। 'देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान' (फ़िल्म-नास्तिक), 'तेरे द्वार खड़ा भगवान' (फ़िल्म-वामन अवतार), 'काहे को बिसारा हरी नाम...', 'माटी के पुतले...' (फ़िल्म-चक्रधारी), 'पिंजरे के पंक्षी रे...' (फ़िल्म-नागमणि), 'कोई लाख़ करे चतुराई...' (फ़िल्म-चंडीपूजा), 'दूसरों का दुखड़ा दूर करने वाले' (फ़िल्म-दशहरा), 'मुखड़ा देख ले प्राणी' (फ़िल्म-दो बहन), 'सुख दु:ख दोनों रहते' (फ़िल्म-कभी धूप कभी छांव)। प्रेरणास्पद गीत लिखने में भी प्रदीप का कोई सानी नहीं था। फ़िल्म 'पैग़ाम' का 'इंसान का इंसान से हो भाईचारा...' और फ़िल्म 'संबंध' का 'चल अकेला चल अकेला तेरा मेला पीछे छूटा....' ऐसे ही कुछ नग़में हैं, जिनके ज़रिए उन्होंने समाज को एक पैग़ाम देने की कोशिश की। यह गाने आज भी अंधेरे में हमें एक नई राह दिखलाते हैं।
कवि प्रदीप ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की। अपने कॉलेज के दिनों में वह आनंद भवन के नज़दीक रहते थे। पं. जवाहरलाल नेहरू का घर होने की वजह से यह स्थान उस वक़्त सियासत का मरक़ज था। जहां आये दिन सियासी बैठकें होती रहतीं। नौजवान रामचन्द्र नारायण द्विवेदी भी इनमें शामिल होते। उन्हें बचपन से ही लिखने का भी बड़ा शौक़ था। साहित्यिक दिलचस्पी बढ़ी, तो गीत-कविताएं लिखने लगे।
इलाहाबाद के साहित्यिक वातावरण ने उनके इस शौक़ को और बढ़ाया। वह कवि सम्मेलनों में शिरकत करने लगे और उन्होंने अपना उपनाम 'प्रदीप' रख लिया। अपने उत्कृष्ट लेखन और सुरीली आवाज़ से वह थोड़े से ही अरसे में साहित्यिक जगत में लोकप्रिय हो गए। यहां तक कि महाकवि निराला भी उनके गीत-कविताओं की तारीफ़ करने से अपने आप को नहीं रोक पाए। कवि प्रदीप फ़िल्मों में कैसे आये ?, इसका मुख़्तर सा कि़स्सा कुछ इस तरह से है, एक बार वह कवि सम्मेलन के लिए मुंबई गए, तो उनकी मुलाक़ात 'बॉम्बे टॉकीज' से जुड़े निर्देशक एनआर आचार्य से हुई। उन्होंने प्रदीप को 'बॉम्बे टॉकीज' के मालिक हिमांशु रॉय से मिलवाया। उन्होंने प्रदीप को अपनी फ़िल्म 'कंगन' के लिए साइन कर लिया। हर महीने उनकी तनख़्वाह 200 रुपए मुक़र्रर की गई। ज़ाहिर है वह इस नौकरी के वास्ते मुम्बई में ही शिफ़्ट हो गए।
बतौर गीतकार प्रदीप ने इस फ़िल्म में चार गाने लिखे और इनमें से तीन को अपनी आवाज़ भी दी। साल 1939 में आई इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर सिल्वर जुबली मनाई। फ़िल्म में उनके लिखे गीत 'हवा तुम धीरे बहो...', 'हम आज़ाद परिंदों को..' खू़ब लोकप्रिय हुए।
'कंगन' फ़िल्म की कामयाबी के बाद गीतकार प्रदीप 'बॉम्बे टॉकीज' का अभिन्न हिस्सा हो गए। बाद में 'बॉम्बे टॉकीज' की ही फ़िल्म 'बंधन', 'पुनर्मिलन', 'झूला', 'नया संसार' और 'किस्मत' में भी उन्होंने गाने लिखे। अपने गानों की वज़ह से इन फ़िल्मों ने एक नया इतिहास रचा। यह वह दौर था, जब देश में चारों और 'भारत छोड़ो आंदोलन' की गूंज थी। प्रदीप के लिखे गीत 'दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है' ने उन्हें बड़ा गीतकार बना दिया। 'भारत छोड़ो आंदोलन' में ये गीत सत्याग्रहियों के लिए एक नारा बन गया था।
फ़िल्म 'किस्मत' के बाक़ी गीत भी सुपर हिट साबित हुए। ख़ास तौर से 'धीरे-धीरे आ रे बादल...', 'पपीहा रे मेरे पिया से', 'अब तेरे सिवा कौन मेरा..' गानों ने देश के घर-घर में धूम मचा दी। अपने गीत-संगीत की वज़ह से ही 'किस्मत' देश की पहली गोल्डन जुबली फ़िल्म बनी। फिल्म 'पैग़ाम' में प्रदीप ने अलग ही रंग के गीत लिखे। ख़ास तौर पर 'ओ अमीरों के परमेश्वर'। इस गाने के ज़रिये उन्होंने अमीरों की दुनिया में ग़रीबों की परेशानियों को बड़े ही संवेदनशीलता से दिखलाया है, ''ऐसा लगता ग़रीबों के जग में/आज रख़वाला कोई नहीं/ऐसा लगता के दुखियों के आंसू/पोछने वाला कोई नहीं/ओ अमीरों के परमेश्वर।''
साल 1954 में आई फ़िल्म 'नास्तिक' के गीतों से प्रदीप को धार्मिक गीतकार के तौर पर नई पहचान मिली। इस फ़िल्म में उन्होंने न सिफ़र् गीत लिखे, बल्कि उन्हें गाया भी। ज़ाहिर है कि यह फिल्म भी कामयाब रही। साल 1975 में आई छोटे बजट की फ़िल्म 'जय मां संतोषी' भी गीतकार प्रदीप के गीतों की वजह से पूरे देश में ख़ूब चली। 'मैं तो आरती उतारूं मां', 'यहां वहां जहां तहां', 'करती हूं मैं तुम्हार व्रत मैं' और 'मदद करो संतोषी मां' फ़िल्म के सारे गानों ने लोकप्रियता की नई मिसाल पेश की। साल 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान कवि प्रदीप ने सैनिकों की शहादत और उनके सम्मान में 'ऐ मेरे वतन के लोगों....' लिखा। इस गाने को पूरे देश में क्या मक़बूलियत मिली, अब यह एक इतिहास है। कवि प्रदीप के ही सुझाव पर इस गाने से हुई कमाई को युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की विधवाओं के कल्याण के लिए दिया जाता है।
गीतकार प्रदीप ने इकहत्तर फ़िल्मों में तक़रीबन सत्रह सौ गाने लिखे। साल 1958 में एचएमवी ने उनकी तेरह कविताओं से सजा एक एलबम 'राष्ट्रकवि' निकाला। प्रदीप वैसे तो कई पुरस्कार-सम्मानों से नवाज़े गए। साल 1961 में उन्हें 'संगीत नाटक अकेदमी अवार्ड' तो साल 1997 में उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित सम्मान 'दादा साहेब फ़ाल्के सम्मान' से नवाज़ा गया। मध्य प्रदेश जहां प्रदीप ने जन्म लिया, यहां की सरकार ने उनकी स्मृति में 'राष्ट्रीय कवि प्रदीप सम्मान' स्थापित किया है।
जो हर साल किसी गीतकार को दिया जाता है। 'राष्ट्रीय एकता पुरस्कार' और 'संत ज्ञानेश्वर सम्मान' से भी वह सम्मानित किए गए, लेकिन देश की सरकारों ने उन्हें अपने सबसे बड़े नागरिक सम्मानों 'पद्म श्री', 'पद्म भूषण' आदि के क़ाबिल नहीं समझा। जबकि उनसे कई दर्जे जूनियर और कम प्रतिभावान लोगों को इन सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। आज भले ही गीतकार प्रदीप हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपने देशभक्ति गीतों की वज़ह से हमेशा अमर रहेंगे। देशवासी उन्हें कभी भुला नहीं पायेंगे।


