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मोदी की चुप्पी, मोदी के बोल!

बहरहाल, महत्वपूर्ण सिर्फ यही नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए, देश के तमाम नागरिकों की एकता की जरूरत का ख्याल आया है

मोदी की चुप्पी, मोदी के बोल!
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- राजेन्द्र शर्मा

बहरहाल, महत्वपूर्ण सिर्फ यही नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए, देश के तमाम नागरिकों की एकता की जरूरत का ख्याल आया है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आतंकवादी हमले की घटना और उस पर देशभर में शुरू हुई प्रतिक्रिया के हफ्ते भर बाद, प्रधानमंत्री को इस बुनियादी सच्चाई की याद आयी है, जो किसी भी विवेकशील व्यक्ति के लिए शुरू से ही स्वत: स्पष्ट थी।

आखिरकार, पहलगाम की आतंकवादी जघन्यता के करीब हफ्ते भर बाद, रविवार 27 अप्रैल की अपनी मासिक 'मन की बात' में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इसका ख्याल आया कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए, देशवासियों की एकता कितनी जरूरी है। बेशक, प्रधानमंत्री की इस आयोजन की खबरों की सुर्खियां बनने वाली पंक्ति तो यही थी कि 'आतंकवादी हमले की तस्वीरों को देखकर हर भारतीय का खून खौल रहा है'। और यह भी कि 'मैं पीड़ित परिवारों को फिर भरोसा देता हूं कि उन्हें न्याय मिलेगा, न्याय मिलकर रहेगा। इस हमले के दोषियों और साजिश रचने वालों को कठोरतम जवाब दिया जाएगा।' फिर भी, प्रधानमंत्री के बयानों से ऐसी सुर्खियां तो इस आतंकी वारदात के तीसरे दिन से ही बनती आ रही थीं, जब इस हमले की पृष्ठïभूमि में, सऊदी अरब की अपनी यात्रा तय कार्यक्रम से पहले खत्म कर स्वदेश लौटे प्रधानमंत्री ने, इसी घटना पर अपनी ही सरकार की बुलायी सर्वदलीय बैठक में रहना तो जरूरी नहीं समझा था, पर बिहार में मधुबनी में अपनी सभा में, इस वारदात के दोषियों और उनके आकाओं को 'मिट्टी में मिला देने' और 'उनका धरती के छोर तक पीछा करने' जैसे ऐलान किए थे। 'मन की बात' की युद्घ-भाषा बेशक, मधुबनी के भाषण के जरिए सामने आयी, इस दरिंदगी पर प्रधानमंत्री की पहली सार्वजनिक प्रतिक्रिया की निरंतरता में ही थी। इससे भिन्न, प्रधानमंत्री को एकता की जरूरत का ख्याल आना बेशक, बिहार के प्रधानमंत्री के संबोधन के सामने नया था। प्रधानमंत्री ने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ इस युद्घ में देश की एकता और 140 करोड़ नागरिकों की एकजुटता सबसे बड़ी ताकत है। और यह भी कि, 'यह एकता आतंकवाद के खिलाफ हमारी निर्णायक लड़ाई का आधार है।'

बहरहाल, महत्वपूर्ण सिर्फ यही नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी को आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए, देश के तमाम नागरिकों की एकता की जरूरत का ख्याल आया है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आतंकवादी हमले की घटना और उस पर देशभर में शुरू हुई प्रतिक्रिया के हफ्ते भर बाद, प्रधानमंत्री को इस बुनियादी सच्चाई की याद आयी है, जो किसी भी विवेकशील व्यक्ति के लिए शुरू से ही स्वत: स्पष्ट थी। यह हफ्ते भर की देरी इसलिए खासतौर पर अर्थपूर्ण हो जाती है कि इस दौरान पूरे देश से निर्दोष पर्यटकों के नरसंहार की इस दरिंदगी पर, मोटे तौर पर तीन प्रकार की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही थीं। पहली प्रतिक्रिया, इस जघन्यता पर आम देशवासियों के गम और आतंकवादियों तथा उनके सरपरस्तों पर गुस्से की थी। इसी प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति देश की आम राजनीतिक राय में भी हो रही थी, जो घटना के दो दिन बाद ही हुई सर्वदलीय बैठक में भी सामने आयी। सभी राजनीतिक पार्टियों ने न सिर्फ एक स्वर से पहलगाम की जघन्यता की भर्त्सना की बल्कि इस सिलसिले में सरकार द्वारा उठाये जाने वाले कदमों के लिए आम तौर पर अपने समर्थन का भी ऐलान किया था।

बहरहाल, दूसरी ओर तीसरी तरह की प्रतिक्रियाएं, एक दूसरे की ठीक विरोधी थीं। दूसरी तरह की प्रतिक्रिया खासतौर पर कश्मीरियों और सबसे बढ़कर कश्मीरी मुसलमानों की और आम तौर पर मुसलमानों की थी। यह प्रतिक्रिया थी कश्मीर और मुसलमानों के नाम पर आतंकवादियों द्वारा की गयी दरिंदगी पर गम और शर्मिंदगी की और जिस तरह भी संभव हो, अपने दामन से इस गुनाह के दाग धोने की कोशिशों की। यह संयोग ही नहीं है कि इस आतंकी हमले में बच रहे लोगों द्वारा सुनाई गयी आपबीतियों के बीच से, सैयद आदिल हुसैन शाह के अलावा भी, कम से कम आधा दर्जन कश्मीरी मुसलमान 'हीरो इन एक्शन' उभर कर सामने आये हैं। किसी ने बहादुरी से दर्जनों पर्यटकों को, जिनमें खासतौर पर महिलाएं और बच्चे थे, मौत के मुंह से निकालकर घोड़ों से सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया था, तो किसी ने अपनी जान दांव पर लगाकर, घायलों को पीठ पर लादकर खतरे के दायरे से बाहर पहुंचाया था। और किसी और ने पीड़ितों का इस संकट के बीच इस तरह साथ दिया था कि उन्हें जहां अपनों को खोने का गम था, वहीं नये अपने मिल जाने का संतोष भी था। और सैयद आदिल हुसैन तो, जैसा कि अब सभी जान ही चुके हैं, वह नौजवान टट्टू वाला था, जो निर्दोष टूरिस्टों को बचाने के लिए, अपनी जान दांव पर लगाकर आतंकवादियों से भिड़ गया था। कहते हैं कि उसने एक आतंकवादी की बंदूक पकड़ भी ली थी, तभी आतंकवादी के दूसरे साथी ने उसे तीन गोलियां मार कर वहीं ढेर कर दिया।

इसी की निरंतरता में पूरे पहलगाम तथा अनंतनाग जिले की और कश्मीर की ही प्रतिक्रिया थी। स्वत:स्फूर्त तरीके से न सिर्फ हादसे के दूसरे-तीसरे दिन तक, सारे बाजार, सारे कारोबार, पर्यटकों की मदद करने के अलावा बंद रहे बल्कि हरेक जगह, लोगों ने बड़ी संख्या में शोक तथा विरोध जुलूस निकाले, जो बहुत ही मुखर तरीके से आतंकवादियों के और उनकी पीठ पर हाथ रखने वाले पाकिस्तान के खिलाफ थे। जानकारों के अनुसार, अगर कश्मीर में मिलिटेंसी के 35 साल में पहली बार, पर्यटकों पर हमले की ऐसी बड़ी घटना हुई थी, तो यह भी पहली ही बार था जब इतने मुखर तरीके से और इतने बड़े पैमाने पर कश्मीरी जनता की आतंकवाद-विरोधी तथा पाकिस्तान-विरोधी भावनाएं सामने आयी हैं।

इसी की निरंतरता में है जम्मू-कश्मीर विधानसभा का विशेष सत्र आयोजित कर, पहलगाम की दरिंदगी की एक स्वर से निंदा करना। केंद्र शासित प्रदेश की विधानसभा ने सर्वसम्मति से आतंकवादियों की करतूत की निंदा ही नहीं की। इसके बावजूद कि धारा-370 के खत्म किए जाने तथा जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म कर उसे केंद्र शासित क्षेत्र बनाए जाने के बाद से, राज्य पुलिस समेत समूची सुरक्षा व्यवस्था लैफ्टीनेंट गवर्नर के माध्यम से, सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में है, मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पर्यटकों की सुरक्षा न कर पाने के लिए माफी भी मांगी। उनका कहना था कि पर्यटक, राज्य सरकार के नाते उनके आमंत्रण पर आए थे और इसलिए, उनकी सुरक्षा उनकी जिम्मेदारी थी! यहां तक कि उमर अब्दुल्ला ने इस घटना को राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग के लिए दलील बनाने से भी इंकार कर दिया।

दु:ख और पछतावे की इस सारी प्रतिक्रिया से ठीक उल्टी थी, तीसरी प्रतिक्रिया जो सत्ताधारी संघ परिवार की ओर से सामने आयी, जिसमें उसके हाशियाई तत्वों से लेकर, उसकी मुख्यधारा के नेताओं तक सबके सब शामिल थे। इस प्रतिक्रिया में सारा जोर, पहलगाम में आतंकवादियों की दरिंदगी को कश्मीरी मुसलमानों और आम तौर पर मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के जरिए, सांप्रदायिक धु्रवीकरण को आगे बढ़ाने का हथियार बनाने पर था। यह संयोग ही नहीं है कि पहलगाम की दरिंदगी के सरकारी ब्यौरे ठीक से आने से पहले ही, देश के अनेक हिस्सों से कश्मीरी छात्रों और आम तौर पर मुसलमानों पर हिंदुत्ववादी गिरोहों के हमलों की खबरें आनी शुरू हो चुकी थीं। ऐसे मामलों पर निगाह रखने वाले एक संगठन ने ऐसी कम से कम 20 घटनाएं दर्ज की हैं। इनमें से कश्मीरी छात्रों के साथ हिंसा की सबसे बुरी घटनाएं उत्तराखंड में देहरादून में तथा पंजाब में हुईं, जबकि मुसलमान के रूप में पहचान कर, हमला किए जाने की घटनाओं में इसी बीच उत्तर प्रदेश में ही दो हत्याएं की जा चुकी हैं। आगरा में तो मुसलमान ढाबाकर्मी को गोली मारने वाले ने 26 के बदले 2600 को मारने के अपने इरादे का ऐलान भी किया था। यह दूसरी बात है कि जैसा कि भाजपा राज में आम चलन ही है, उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस हत्या का पहलगाम की घटना से कुछ लेना-देना होने से इंकार कर दिया है।

कश्मीरियों और आम तौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर ये हमले अगर संघ के हाशिए की करतूतें मान भी लिए जाएं, तब भी उसकी मुख्यधारा भी इन हमलों से कोई बहुत अलग नहीं थी। हरियाणा, महाराष्टï्र समेत अनेक स्थानों पर, बाकायदा भाजपा के झंडे तले जुटी भीड़ों ने, अल्पसंख्यकों की दूकानों आदि को हमलों का निशाना बनाया था। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि आईटी सैल समेत भाजपा ने मुस्लिमविरोधी नफरत फैलाने के लिए, इस आतंकवादी हमले को भुनाने की बढ़-चढ़कर कोशिशें की थीं। जाहिर है कि यह इसके बावजूद था कि अनेक भुक्तभोगियों ने जोर देकर सार्वजनिक रूप से यह दर्ज कराया था कि अगर आतंकवादियों ने धर्म पूछकर मारा था, तो दूसरी ओर पीड़ितों का धर्म जानकर घोड़े वालों, ड्राइवरों, टूर ऑपरेटरों, होटल वालों, आदि आदि ने उनकी हरेक संभव मदद भी की थी। इस बाद वाले तथ्य को दफ़न ही करने की कोशिश करते हुए, भाजपा की छत्तीसगढ़ इकाई ने तो अपने आधिकारिक हैंडल से बाकायदा एक शर्मनाक विज्ञापन जारी कर, जो बाद में उन्हें हटाना भी पड़ गया, 'धर्म पूछा, जाति नहीं पूछी' को, सांप्रदायिक गोलबंदी की दलील ही बनाने की कोशिश की थी। और यह खेल सिर्फ छत्तीसगढ़ तक ही सीमित नहीं था।

इस सब के दौरान, प्रधानमंत्री मोदी अपनी कुख्यात चुप्पी ओढ़े रहे थे। विपक्षी राजनीतिक पार्टियों के ही नहीं, जागरूक नागरिकों की बढ़ती संख्या के खुद इसकी अपील करने और प्रधानमंत्री से इसकी अपील करने का आग्रह करने के बावजूद, कि सांप्रदायिक विभाजन बढ़ाकर, आतंकवादियों के अधूरे काम में मदद नहीं की जानी चाहिए, मोदी ने बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिक हरकतों के खिलाफ कोई अपील तक नहीं की। और हफ्ते भर बाद, पर्याप्त नुकसान हो जाने देने के बाद, देशवासियों की एकता की अपील की भी है, तो भी गोलमोल तरीके से।इस आम अपील के जरिए भी, संघ परिवार इस दौरान जो करता रहा है, उस पर पर्दा डालने की ही कोशिश की गयी है। और इस सांप्रदायिक खेल की ओर से ध्यान हटाने की कोशिश की जा रही है, 'खून खौलने', 'मिट्टी में मिला देने' आदि की उग्र बोली के जरिए। इस दौरान, बदले की कार्रवाई के नाम पर घाटी में बड़ी संख्या में युवाओं की अंधाधुंध गिरफ्तारियों और कथित रूप से आतंकवादी ग्रुपों से जुड़े लोगों के घरों के बम से उड़ाए जाने का सिलसिला जारी है। आने वाले दिनों में किसी प्रकार की एक और सर्जिकल स्ट्राइक, आतंकवाद से निपटने में मौजूदा निजाम की घोर विफलता को ढांपने का और इस संकट को चुनाव में भुनाने का भी हथियार बन सकती है।

(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


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