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संसद पर मोदी का एकाधिकार

हाल की अनेक सियासी घटनाओं ने इस खतरे के साफ संकेत दे दिये हैं कि देश की संसद पर सत्ता का लगभग एकाधिकार हो गया है

संसद पर मोदी का एकाधिकार
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हाल की अनेक सियासी घटनाओं ने इस खतरे के साफ संकेत दे दिये हैं कि देश की संसद पर सत्ता का लगभग एकाधिकार हो गया है। बहुमत के बल पर संविधान में सरकार बनाने के तो प्रावधान पर हैं लेकिन उसके शब्दों व भावना में कभी भी सर्वोच्च विधायिका पर सत्तारुढ़ दल का एकाधिकार संविधान निर्माताओं व देश के राजनैतिक पुरखों ने सोचा तक नहीं था।

दुखद तो यह है कि ऐसा देश की आजादी के हीरक जयंती वर्ष के तत्काल बाद किया गया जिसे 'अमृतकाल' कहकर खूब प्रचारित और महिमामंडित किया गया। यह भी सर्वाधिक त्रासदीपूर्ण है कि ऐसा देश के मुखिया यानी प्रधानमंत्री के हाथों हो रहा है जिसका कर्तव्य संसद की उपयोगिता और प्रासंगिकता को बनाये रखना है। वैसे तो मोदी अपने पहले कार्यकाल के प्रारम्भ (2014) से ही सिर्फ संसद ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण व्यवस्था पर एकछत्र राज करने के उपाय करते आये हैं, लेकिन 2019 में विशाल बहुमत पाने के बाद वे पूर्णत: अनियंत्रित हो गये हैं। मंगलवार को पड़ रहे 76वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उनके कामों की समीक्षा करना इसलिये बेहद प्रासंगिक व आवश्यक बन पड़ता है।

यूं तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लोकतंत्र विरोधी कामों की लम्बी फेहरिस्त है और उन पर हमेशा से चर्चा होती भी रही है पर इसी शुक्रवार को समाप्त हुए संसद के मानसून सत्र के दौरान उनके द्वारा अपनाया गया व्यवहार सिर्फ असंसदीय ही नहीं था बल्कि अलोकतांत्रिक भी रहा। पिछले कुछ समय से उनके कामों की देश-विदेश में हो रही आलोचनाओं और भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ दो दर्जन से अधिक विपक्षी दलों की होती लामबन्दी से बौखलाये मोदी के तेवर प्रतिपक्ष के प्रति अत्यंत अपमानजनक और गरिमाहीन होते जा रहे हैं।

संसद से चुन-चुनकर मुखर विपक्षी सदस्यों को निकाल बाहर करना, सवालों के जवाबों से कन्नी काटना, व्यवस्था में मनचाहा बदलाव आदि हाल के ऐसे मामले हैं जो देशवासियों की नागरिक आजादी के लिये बड़े खतरे हैं। इस प्रवृत्ति के खिलाफ़ देश भर में आवाज़ उठनी आवश्यक है।

जिस मणिपुर की हिंसा और महिलाओं के उत्पीड़न पर पूरा देश हिल उठा है, उसे लेकर मोदी और उनकी सरकार ने जैसा गैर जिम्मेदाराना व्यवहार दिखाया है, वह अपने आप में बेहद शर्मनाक है। पहले तो संसद में इस पर चर्चा कराने के लिये सरकार तैयार ही नहीं थी। बड़ी मुश्किल से इस पर अविश्वास प्रस्ताव के तहत तीन दिवसीय चर्चा हुई तो मोदी स्वस्थ संसदीय परम्परा को धता बताकर पूरी बहस के दौरान आये ही नहीं। वे वैसे भी संसद में कम ही आते हैं। आये भी उन्होंने ऐसे जवाब नहीं दिये जिनमें विपक्ष के सवालों के तथ्यपरक स्पष्टीकरण हों। उत्तर की बजाय अपने सहयोगियों से नारेबाजी कराई तथा विपक्ष को कोसते रहे। अधिक आपत्तिजनक यह है कि मणिपुर की चर्चा से भागने वाले मोदी मध्यप्रदेश की एक सभा में कहते फिर रहे थे कि सत्ता दल गम्भीर चर्चा करना चाहता था परन्तु विपक्ष भाग (बॉयकॉट) गया। सवाल यह है कि अगर सत्ता दल चर्चा करना ही चाहता था तो उसे किसने रोका था? मोदी तो सदन के बाहर पहले भी चर्चा कर सकते थे। मोदी ने स्वयं क्यों नहीं सवा दो घंटे का उपयोग ठोस जवाब के लिये किया। जो बिंदुवार प्रश्न कांग्रेस के गौरव गोगोई ने रखे थे वे उनका सिलसिलेवार जवाब देते। मोदी ने केवल दो-ढाई मिनट इस विषय को दिये और भावनात्मक बातें ही कीं। उन्होंने कहा कि 'मणिपुर में शांति का सूर्य निकलेगा', पर यह नहीं बताया कि वह कैसे निकलेगा तथा उसमें सरकार की भूमिका क्या रहेगी। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अमित शाह और मणिपुर के सीएम एन बीरेन सिंह की दंगों को रोकने में क्या भूमिका रही।

मोदी दरअसल संसद पर ही नहीं वरन एक तरह से समग्र लोकतांत्रिक प्रणाली पर ही अपना एकाधिकार कायम कर रहे हैं। बगैर चर्चा के थोक में कानून बदले जा रहे हैं। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिये बनने वाली समिति से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को बाहर कर दिया गया है। अब प्रधानमंत्री तथा विपक्ष के नेता के अलावा उनके द्वारा नामांकित एक कैबिनेट मंत्री कमेटी के सदस्य होंगे। अपने एकाधिकार के बारे में मोदी कितने आश्वस्त हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मध्यप्रदेश के एक मंदिर का शिलान्यास करते वक्त उन्होंने कह दिया है कि 'इसका लोकार्पण भी मैं ही करूंगा।' क्या मोदी जी को बतौर तीसरी बार पीएम का चेहरा उनकी पार्टी ने मान लिया है? क्या वे इस कदर शक्तिशाली हो गये हैं कि खुद के बारे में भी सब कुछ तय कर रहे हैं? ये भी सवाल हैं।

मणिपुर के अलावा नूंह (मेवात) में हुई हिंसा और जयपुर-मुंबई ट्रेन का वह हादसा जिसमें एक व्यक्ति द्वारा खास सम्प्रदाय के तीन लोगों की हत्या करना यह बतलाता है कि उनका विधायिका पर ही नहीं, कार्यपालिका पर भी ऐसा मजबूत नियंत्रण है कि प्रशासन सरकार को बचाने के लिये या तो मौन है अथवा तथ्यों की तोड़-मरोड़ करने, अपारदर्शिता और गैर जिम्मेदारी का प्रदर्शन कर रहा है। संसद में कही जाने योग्य बातों को सदन के बाहर और बाहर कही जाने वाली बातों को सदन के भीतर कहते-बोलते मोदी ने संसद को अपनी सुविधा और मूड का मंच बना लिया है। हाल के मामलों में उनके जवाब अपरिपक्वता की निशानी तो हैं ही, वे पद की गरिमा भी गिरा चुके हैं। उनकी नज़रों में संसद का अर्थ सिर्फ शक्तियां पाना और राज करना है।


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