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मोदी का 'मध्यावधि स्वप्न' भंग हो गया!

आतंकवादियों के ठिकानों पर सैन्य कार्रवाई करने का फैसला करने के बाद भी इस बारे में उन्होंने विपक्ष को विश्वास में नहीं लिया

मोदी का मध्यावधि स्वप्न भंग हो गया!
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- अनिल जैन

आतंकवादियों के ठिकानों पर सैन्य कार्रवाई करने का फैसला करने के बाद भी इस बारे में उन्होंने विपक्ष को विश्वास में नहीं लिया। सैन्य कार्रवाई शुरू होने के बाद सर्वदलीय बैठक बुलाई गई, लेकिन प्रधानमंत्री उसमें भी शामिल नहीं हुए, जबकि वे राजधानी में ही मौजूद थे जिस समय सर्वदलीय बैठक चल रही थी।

प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेन्द्र मोदी ने कहा था, 'मैं गुजराती हूं, व्यापार मेरे खून में है।' फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद कोरोना महामारी के दौरान उन्होंने एक और मुहावरा उछाला- 'आपदा में अवसर!' मोदीजी द्वारा उछाले गए ये दो मुहावरे उनके द्वारा अब तक उछाले गए तमाम मुहावरों में सर्वाधिक अश्लील मुहावरे साबित हुए हैं। फिर भी नरेन्द्र मोदी के लिए तो मानो ये दोनों मुहावरे उनकी राजनीतिक सफलता के मूल मंत्र बन गए हैं। देश के समक्ष पैदा हुए हर अप्रिय से अप्रिय प्रसंग को उन्होंने अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने में और अपने कारोबारी मित्रों को उसका फायदा दिलाने में कतई संकोच नहीं किया। चाहे वह पुलवामा में हुआ भीषण आतंकवादी हमला हो या लाखों लोगों को मौत की नींद सुला देने वाली कोरोना महामारी हो, या फिर उनके खुद की आहूत की गई नोटबंदी जैसी त्रासदी हो।

अभी जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले को लेकर भी मोदी यही करते दिखे हैं और कोई वजह नहीं कि वे आगे भी ऐसा नहीं करेंगे। उन्होंने हमले में हुई 26 पर्यटकों की निर्मम हत्या को आपदा में अवसर की तरह ही देखा। हमले के बाद शुरू दिन से लेकर आतंकवादियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई तक और फिर अमेरिकी दबाव में अचानक युद्धविराम पर राजी होने और फिर राष्ट्र को संबोधित करने तक मोदी प्रधानमंत्री की तरह नहीं बल्कि एक पार्टी के नेता के तौर पर ही देश के समक्ष पेश आए।

पहलगाम हमले के बाद से लेकर पाकिस्तान के साथ हुए सैन्य टकराव तक कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष सरकार के हर फैसले मे उसके साथ खड़ा था। ऐसा लंबे समय बाद हो रहा था जब सरकार की किसी भी कार्रवाई पर, यहां तक कि सरकार की चूक पर भी किसी विपक्षी पार्टी ने कोई सवाल नहीं किया। सरकार के साथ विपक्ष की ऐसी एकजुटता उस समय भी कभी नहीं देखी गई जब भाजपा विपक्ष में थी। इसके बावजूद सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा का रवैया विपक्ष को लेकर जरा भी सद्भाव वाला नहीं रहा। खुद मोदी विपक्ष के सहयोगात्मक रवैये के प्रति गंभीरता और सकारात्मकता न दिखाते हुए उसके प्रति हिकारत और अहंकार भरा व्यवहार करते रहे।

पहलगाम हमले के बाद सरकार की ओर से दो बार सर्वदलीय बैठक बुलाई गई लेकिन प्रधानमंत्री मोदी दोनों बैठकों में शामिल नहीं हुए। पहली बैठक हमले के बाद बुलाई गई थी लेकिन मोदी उस बैठक में शामिल न होते हुए बिहार में अपनी पार्टी की रैली को संबोधित करने चले गए। कहा गया कि वे बिहार की धरती से पाकिस्तान और आतंकवादियों को चेतावनी देंगे। सवाल है कि हमला कश्मीर में हुआ तो बिहार जाकर पाकिस्तान को चेतावनी देने का क्या मतलब था? बेहतर तो यह होता कि प्रधानमंत्री श्रीनगर जाते वहां से पाकिस्तान को चेतावनी देते। चूंकि बिहार में पांच महीने बाद विधानसभा के चुनाव होने हैं, इसलिए मोदी ने आपदा को अवसर बनाते हुए बिहार जाना उचित समझा। बिहार में रैली करने के बाद भी प्रधानमंत्री ने सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष या लोकसभा में नेता विपक्ष से मिलना और बात करना उचित नहीं समझा, जबकि इस दौरान उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत से जरूर मुलाकात की और अपनी पार्टी के नेताओं से भी लगातार मिलते रहे।

आतंकवादियों के ठिकानों पर सैन्य कार्रवाई करने का फैसला करने के बाद भी इस बारे में उन्होंने विपक्ष को विश्वास में नहीं लिया। सैन्य कार्रवाई शुरू होने के बाद सर्वदलीय बैठक बुलाई गई, लेकिन प्रधानमंत्री उसमें भी शामिल नहीं हुए, जबकि वे राजधानी में ही मौजूद थे। जिस समय सर्वदलीय बैठक चल रही थी, ठीक उसी समय प्रधानमंत्री एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में शिरकत करते हुए उस चैनल की महिला एंकरों के साथ फोटो सेशन करने में व्यस्त थे। इतना सब होने के बावजूद विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री या सरकार से कोई सवाल नहीं किया जा रहा था। इस नाजुक मौके पर भी विपक्ष से संवाद करना मोदी अपनी शान के खिलाफ समझ रहे थे। प्रधानमंत्री का यह रवैया उनकी पार्टी के प्रवक्ताओं को एक तरह का इशारा था, जिसके मुताबिक टीवी चैनलों की बहस में भाजपा के प्रवक्ता रोजाना विपक्षी नेताओं को गद्दार, देशद्रोही और पाकिस्तान व आतंकवादियों का हमदर्द बता रहे थे। यही काम सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर भाजपा का ईको सिस्टम कर रहा था। यह ईको सिस्टम सिर्फ विपक्षी नेताओं को ही नहीं, बल्कि देश भर के मुसलमानों को भी गद्दार बताते हुए उनके आर्थिक बहिष्कार की अपील कर रहा था। इस सबके बावजूद किसी को कोई संशय या संदेह नहीं रहे, इसके लिए टीवी के सरकारी चैनल डीडी न्यूज पर तो बाकायदा विपक्षी नेताओं के फोटो के साथ लिखा जा रहा था, 'भारत है तैयार लेकिन घर में कितने गद्दार'।

इतना सब होने के बाद कहीं से भी संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती कि प्रधानमंत्री इस आपदा को अपनी पार्टी के लिए एक बड़े राजनीतिक अवसर के तौर पर देख रहे थे। उनके सामने पांच महीने बाद बिहार और नौ महीने बाद पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव हैं। प्रधानमंत्री का इरादा संभवत: पाकिस्तान के खिलाफ़ सैन्य कार्रवाई के जरिये देश में उन्मादी और राष्ट्रवादी माहौल तैयार कर लोकसभा के मध्यावधि चुनाव कराने का था, ताकि पिछले चुनाव में 400 सीटें पाने की अधूरी रह गई हसरत को पूरा किया जा सके। यह दांव मोदी 2019 के चुनाव में आजमा चुके थे और कामयाब भी रहे थे।

पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई का असल मकसद यही था, लेकिन पाकिस्तान को चीन की मदद ने इस भारत की सैन्य कार्रवाई को ज्यादा देर तक जारी नहीं रहने दिया। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय सेना ने अपना काम बखूबी अंजाम देते हुए पाकिस्तान और उसके कब्जे वाले कश्मीर में आतंकवादियों के कई ठिकानों को नष्ट कर दिया। पाकिस्तानी सेना की ओर से उकसावे की कार्रवाई के जवाब में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के कई सैन्य ठिकानों को भी भारी क्षति पहुंचाई। भारतीय सैन्य नेतृत्व ने पहलगाम हमले के पीछे पाकिस्तान के मकसद को भांपने में भी कोई गलती नहीं की और अपनी कार्रवाई शुरू करने के साथ ही उसके प्रवश्वा ने आधिकारिक तौर पर कहा कि, 'पहलगाम हमले का मकसद देश में सांप्रदायिक दंगे भड़काना था लेकिन देश के नागरिकों ने ऐसा नहीं होने दिया।'

बहरहाल. पाकिस्तान और आतंकवादियों के खिलाफ भारतीय सेना की कार्रवाई के दौरान चीन ने साइलेंट किलर की भूमिका निभाते हुए भारत के भी दो लड़ाकू विमान नष्ट कर दिए। हालांकि भारत सरकार ने इस बात की पुष्टि नहीं की है, लेकिन उसने अमेरिका और ब्रिटेन के अखबारों ने इस बारे में विस्तार से छपी खबरों का खंडन भी नहीं किया है। संभवत: इसी घटना ने भारत को अपने कदम आगे बढ़ाने से रोकने पर मजबूर किया। हालांकि मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश में दावा किया है कि युद्धविराम पाकिस्तान की पहल पर हुआ है, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक नहीं, दो बार टीवी पर आकर यह दावा किया है कि युद्धविराम उनके कहने पर हुआ है। भारत सरकार ने ट्रम्प के इन दावों का किसी भी स्तर पर खंडन नहीं किया है।

जो भी हो, यह तो साफ हो गया है कि भारतीय सेना की जिस संयमित और सटीक कार्रवाई पर पूरा देश गर्व कर रहा था, उसे भारत सरकार ने अज्ञात शर्तों पर अचानक रोककर एक राष्ट्रीय गर्व के विषय को राष्ट्रीय शर्म में तब्दील कर दिया। प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संदेश में खुद की पीठ थपथपाने के अलावा कुछ भी नहीं था, जैसा कि वे अक्सर ही करते हैं। पहलगाम में हुई 26 लोगों की मौत का बदला लेने के लिए की गई कार्रवाई में भारत को 21 लोगों की और बलि देना पड़ी है। प्रधानमंत्री का मध्यावधि चुनाव कराने का स्वप्न भले ही भंग हो गया हो, लेकिन कोई आश्चर्य नहीं कि मोदी बंगाल और बिहार के चुनाव में 'फर्स्ट टाइम वोटर' से इन मारे गए 47 (26+21) लोगों के नाम पर वोट मांगें। आखिर पुलवामा में मारे गए 42 जवानों की शहादत पर भी तो उन्होंने ऐसे ही वोट मांगे थे।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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