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अपनी बेअदबी आमंत्रित करने वाले मोदी पहले प्रधानमंत्री

नरेंद्र मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनके साथ किसी भी विपक्ष शासित राज्य के मुख्यमंत्री के रिश्ते सामान्य नहीं है

अपनी बेअदबी आमंत्रित करने वाले मोदी पहले प्रधानमंत्री
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- अनिल जैन

मुख्यमंत्री स्टालिन के प्रधानमंत्री की अगवानी नहीं करने और उनके साथ सरकारी कार्यक्रम में शामिल नहीं होने को निश्चित ही उचित नहीं कहा जा सकता, लेकिन प्रधानमंत्री ने जो किया उसे भी सही नहीं ठहराया जाएगा। उन्होंने राज्य के लोगों की संवेदनशीलता को नजरअंदाज करते हुए भाषा के सवाल पर स्टालिन का मजाक उड़ाया।

नरेंद्र मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनके साथ किसी भी विपक्ष शासित राज्य के मुख्यमंत्री के रिश्ते सामान्य नहीं है। प्रधानमंत्री और विपक्षी मुख्यमंत्रियों के बीच टकराव के चलते कई बार दोनों तरफ से सामान्य शिष्टाचार भी नहीं निभाया जाता है। पिछले 10 वर्षों में ऐसे कई मौके आए हैं जब प्रधानमंत्री की ओर बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक का विपक्षी मुख्यमंत्रियों ने बहिष्कार किया है। ऐसा भी कई बार हुआ है कि जब प्रधानमंत्री किसी विपक्ष शासित राज्य के दौरे पर गए तो वहां के मुख्यमंत्री ने उनकी अगवानी नहीं की और प्रधानमंत्री के साथ सरकारी कार्यक्रम से भी दूरी बना कर रखी। हाल ही में प्रधानमंत्री की तमिलनाडु यात्रा के दौरान भी ऐसा ही हुआ।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी महीने की 6 तारीख को तमिलनाडु के रामेश्वरम पहुंचे थे, जहां राज्य के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन न तो उनकी अगवानी करने पहुंचे और न ही उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ पम्बन रेलवे ब्रिज के उद्घाटन कार्यक्रम में शिरकत की। इसकी प्रतिक्रिया में प्रधानमंत्री ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए भाषा के सवाल पर मुख्यमंत्री स्टालिन का अशोभनीय मजाक उड़ाया, जिससे केंद्र और तमिलनाडु सरकार के बीच राष्ट्रीय शिक्षा नीति, त्रिभाषा फॉर्मूला, परिसीमन जैसे मुद्दों पर जारी टकराव नए स्तर पर पहुंच गया।

मुख्यमंत्री स्टालिन के प्रधानमंत्री की अगवानी नहीं करने और उनके साथ सरकारी कार्यक्रम में शामिल नहीं होने को निश्चित ही उचित नहीं कहा जा सकता, लेकिन प्रधानमंत्री ने जो किया उसे भी सही नहीं ठहराया जाएगा। उन्होंने राज्य के लोगों की संवेदनशीलता को नजरअंदाज करते हुए भाषा के सवाल पर स्टालिन का मजाक उड़ाया। उन्होंने मुख्यमंत्री का नाम लिए बगैर उन पर निशाना साधा और कहा कि उनके पास तमिलनाडु के नेताओं के पत्र आते हैं लेकिन उन पर दस्तखत तमिल में नहीं होते हैं। मोदी ने तंज करते हुए कहा कि 'तमिल गौरव' बना रहे, इसके लिए कम से कम तमिल में दस्तखत करना तो शुरू करें।

सवाल है कि क्या देश के प्रधानमंत्री को ऐसी बातें करनी शोभा देती हैं? वे खुद भाषाई आधार पर बने एक राज्य से आते हैं लेकिन क्या गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए गुजराती भाषा का गौरव बढ़ाने के लिए उन्होंने कभी गुजराती में दस्तखत किए? प्रधानमंत्री ने स्टालिन को चिढ़ाने के लिए उन्हें मेडिकल की पढ़ाई तमिल में कराने की कटाक्ष भरी नसीहत भी दी। सवाल है कि सारे देश में हिंदी को प्रमुखता दिलाने में लगी मोदी सरकार मेडिकल और इंजीनियरिंग का एक भी बैच हिंदी में पढ़ाकर निकाल सकती है?

बहरहाल, यह पहला मौका नहीं था जब प्रधानमंत्री किसी विपक्ष शासित राज्य के दौरे पर गए और वहां के मुख्यमंत्री ने उनकी अगवानी नहीं की या उनके सरकारी कार्यक्रम से अपने को दूर रखा। हाल के वर्षों में ऐसे कई मौके आए हैं। साल 2022 में तेलंगाना में दो बार ऐसा हुआ जब प्रधानमंत्री के दौरे से तत्कालीन मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने अपने को दूर रखा। उसी साल प्रधानमंत्री दो बार महाराष्ट्र के दौरे पर गए लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने उनकी अगवानी नहीं की।
उसी साल की शुरुआत में प्रधानमंत्री पंजाब के बठिंडा पहुंचे थे तो वहां भी उनकी अगवानी के लिए सूबे के तत्कालीन मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी मौजूद नहीं थे। उससे पहले पश्चिम बंगाल में भी ऐसा ही हुआ था, जब प्रधानमंत्री चक्रवाती तूफान का जायजा लेने बंगाल पहुंचे थे तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उनके साथ समीक्षा बैठक में शामिल नहीं हुई थीं। मोदी से उनके संबंधों की यह तल्खी साल 2002 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती के मौके पर कोलकाता में आयोजित कार्यक्रम में भी देखी गई थी। ममता बनर्जी के भाषण के दौरान प्रधानमंत्री की मौजूदगी में 'जय श्रीराम' के नारे लगे थे, जिससे नाराज होकर वे अपना भाषण पूरा किए बगैर ही कार्यक्रम छोड़ कर चली गई थीं।

इसी तरह 2021 में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान प्रधानमंत्री ने कई मुख्यमंत्रियों को फोन किया था। उसी सिलसिले में उन्होंने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भी टेलीफोन किया था तो उसके बाद मुख्यमंत्री सोरेन ने कहा था कि प्रधानमंत्री सिर्फ अपने मन की बात करते हैं, बेहतर होता कि वे काम की बात करते और काम की बात सुनते। यही शिकायत करते हुए छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी कहा था कि प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों की जो बैठकें होती हैं, उनमें सिर्फ वन-वे होता है। प्रधानमंत्री सिर्फ अपनी बात कहते हैं, मुख्यमंत्रियों की बात का कोई जवाब नहीं मिलता। इन सब वाकयों के और पीछे जाएं तो साल 2015 में दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रधानमंत्री को 'कायर' और 'मनोरोगी' तक कह दिया था।

ये कुछ प्रतिनिधि घटनाएं हैं जिनसे प्रधानमंत्री पद की प्रतिष्ठा और सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार को लेकर कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं। सवाल है कि आखिर पिछले दस सालों में ऐसा क्या हुआ है कि पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री के प्रति ऐसी उपेक्षा या बेअदबी भरा बर्ताव करते आ रहे हैं? केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें पहले भी रही हैं, लेकिन किसी प्रधानमंत्री के साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।

तो सवाल यह उठता है कि अभी जो हो रहा है, क्या उसे भाजपा विरोधी पार्टियों की राजनीतिक असहिष्णुता या दुराग्रह मानकर खारिज किया जा सकता है या इसके कुछ गंभीर कारण हैं, जिनकी पड़ताल और निराकरण होना चाहिए? असल में प्रधानमंत्री के प्रति देश के अलग-अलग राज्यों में उभर रही इस किस्म की प्रवृत्ति को गंभीरता से समझने की जरूरत है।

सबसे पहले इस तथ्य को रेखांकित करने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री के प्रति बेअदबी की लगभग सारी घटनाएं मोदी के साथ ही हुई हैं। उससे पहले राजनीतिक विरोध के बावजूद सामान्य शिष्टाचार था और उसका सार्वजनिक प्रदर्शन भी होता था। हालांकि बेअदबी के बीज पड़ने शुरू हो गए थे, जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद फल के रूप में दिखने लगे।

विरोधी दलों और उनके नेताओं के प्रति प्रधानमंत्री मोदी की अपमानजनक बातें शुरू में जरूर अटपटी लगी थीं। चूंकि भाजपा और मोदी ने काफी बड़ी जीत हासिल की थी, इसलिए विपक्षी नेताओं ने यह सोचकर बर्दाश्त किया कि जीत की खुमारी उतर जाने पर प्रधानमंत्री राजनीतिक विमर्श में सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार और भाषायी शालीनता का पालन करने लगेंगे, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ और लगने लगा कि यही मोदी की स्वाभाविक राजनीतिक शैली है और वे बदलने वाले नहीं हैं, तब विपक्षी नेताओं के सब्र का बांध टूटा और उसमें राजनीतिक शालीनता और मर्यादा बहती गई।

देश में शायद ही कोई ऐसा विपक्षी मुख्यमंत्री या नेता होगा, जिसके लिए प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से अपमानजनक बातें या गाली-गलौज नहीं की होगी। मोदी उन्हें चोर, भ्रष्ट, परिवारवादी, लुटेरा, नक्सली, आतंकवादियों का समर्थक और देशद्रोही तक करार देने में संकोच नहीं करते हैं। इस सिलसिले में वे दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्रियों और विपक्ष की महिला नेताओं को भी नहीं बख्शते और उनके लिए बेहद अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।

मोदी ने यह सिलसिला सिर्फ चुनावी सभाओं तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि संसद में, संसद के बाहर विभिन्न मंचों पर और विदेशों में भी वे विपक्षी नेताओं पर निजी हमले करने से नहीं चूकते। फिर विपक्ष शासित राज्यों के प्रति उनकी सरकार के भेदभावपूर्ण व्यवहार और राज्यपालों की बेजा हरकतों ने भी केंद्र और राज्यों के बीच खटास पैदा की है। केंद्र सरकार की मनमानियों और विपक्षी नेताओं के प्रति अपमानजनक बर्ताव का नतीजा है कि आज केंद्र-राज्य संबंध किसी भी समय के मुकाबले सबसे बदतर स्थिति में हैं।

प्रधानमंत्री ने तमाम विपक्षी दलों को अपने और देश के दुश्मन के तौर पर प्रचारित कर उन्हें खत्म करने का खुला ऐलान किया है। वे हर जगह डबल इंजन की सरकार का ऐसा प्रचार करते हैं, जैसे विपक्ष की सारी सरकारें जनविरोधी, देश विरोधी और विकास विरोधी हैं। प्रधानमंत्री की इस राजनीति ने विपक्षी पार्टियों को सोचने के लिए मजबूर किया। इसलिए आज अगर प्रधानमंत्री पद की गरिमा पैंदे में बैठ रही है और उनकी बेअदबी हो रही है तो इसके लिए प्रधानमंत्री का अंदाज-ए-हुकूमत और अंदाज-ए-सियासत ही जिम्मेदार है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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