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असत्य को स्वीकार्यता दिलाने के चक्कर में मोदी के बड़े झूठ

18वीं लोकसभा के चुनावों का आगाज़ होने में दो ही दिन रह गये हैं

असत्य को स्वीकार्यता दिलाने के चक्कर में मोदी के बड़े झूठ
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- डॉ. दीपक पाचपोर

इतने वक्त के बाद भी अगर मोदी ने थांती, असम ट्रिब्यूनल व एएनआईई से खुलकर बातें की हैं तो क्या उन्होंने सब कुछ सच-सच कहा है? कई बातों की परतें तो तब खुलतीं अगर मोदी से पत्रकारों द्वारा पूरक सवाल किये जाते। सवालों के उत्तरों पर प्रति प्रश्न होते तो मोदी शायद ही टिक पाते और उन्हें अपने ज्यादातर कामों व निर्णयों का औचित्य साबित करना मुश्किल हो जाता।

18वीं लोकसभा के चुनावों का आगाज़ होने में दो ही दिन रह गये हैं। 7 चरणों में होने जा रहे आम चुनाव के लिये मतदान का पहला चरण शुक्रवार को होगा। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी धुआंधार प्रचार सभाएं तो कर ही रहे हैं, वे पिछले करीब 10 वर्षों से जारी अपनी कार्यपद्धति से हटकर कुछ नया तरीका अपना रहे हैं- वह है मीडिया से मुखातिब होना। वे वर्तमान परिस्थितियों एवं घटनाक्रमों पर बाकायदे जवाब भी देते नज़र आ रहे हैं। कम से कम ऊपर से तो यही दिखाई देता है कि वे ठोस तथ्यों पर आधारित सवालों का जवाब दे रहे हैं। ये वे प्रश्न हैं जो उनके आम खाने के तरीके से परे हटकर हैं, उनके चेहरे की चमक का राज़ जानने से भी अलग हैं। ये सवाल ऐसे भी हैं जिनमें उनके 18-18 घंटे काम करने के बावजूद न थकने की जिज्ञासा भी नहीं है। हालांकि उनके हाल के साक्षात्कारों को लेकर पूरी सम्भावना है कि प्रश्नावली उनकी सहमति से तैयार हुई होगी।

जो हो, मान लिया जाये कि उनके हालिया तीन साक्षात्कार जो तमिल चैनल 'थांती', 'असम ट्रिब्यूनल' एवं सोमवार को प्रसारित समाचार एजेंसी 'एएनआई' में प्रसारित-प्रकाशित हुए हैं, वे पत्रकारों द्वारा पेशेवरना ईमानदारी से लिये गये और मोदी ने भी बतौर पीएम खुले मन से तथा सवालों की सूची से छेड़छाड़ किये बिना आये प्रश्नों के जवाब दिये हैं। थांती व असम ट्रिब्यूनल का प्रभाव क्षेत्र एएनआई के मुकाबले सीमित है। इसलिये मोदी को लगा होगा कि इससे काम नहीं चलने वाला है, सो उन्हें एक ऐसे चैनल में इंटरव्यू की आवश्यकता महसूस हुई होगी जिसकी उपस्थिति देशव्यापी प्रतीत होती हो। वैसा है भी। उनके मीडिया के प्रति विलम्ब से उपजे अनुराग को देखते हुए यह भी सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि आने वाले समय में कुछ और प्रकाशन या चैनल उनके इंटरव्यू प्रकाशित-प्रसारित करें। देश का मुखिया अगर यह नयी आदत विकसित करे तो इसका स्वागत होना चाहिये। वैसे भी जब मोदी पीएम नहीं थे तो तमाम अखबारों व चैनलों से लम्बी-चौड़ी वार्ताएं कर यह बतलाते ही रहते थे कि कैसे डॉ. मनमोहन सिंह एक कमजोर पीएम हैं। महंगाई, बेरोजगारी, डॉलर के सामने रुपये की गिरती कीमत, पाकिस्तान व चीन की सीमाओं पर उठती समस्याओं के उनके पास तैयार नुस्खे हुआ करते थे। यह अलग बात है कि अपने दो कार्यकालों के दौरान सतत चुनावी मोड में रहने तथा पूरा फोकस 'ऑपरेशन लोटस' जैसे महत्वपूर्ण अभियानों में उलझे रहने के कारण उन्हें उपरोक्त उल्लिखित अपेक्षाकृत गौण विषयों की ओर ध्यान देने का वक्त नहीं मिल पाया। शायद इसीलिये अब उन्हें तीसरे टर्म की सख्त दरकार है।

मुद्दा तो यह है कि पूरे 10 वर्षों तक मीडिया से दूरी बनाये रखने वाले मोदी को ऐसा क्योंकर महसूस होने लगा कि उन्हें मीडिया से उन विषयों पर बात करनी चाहिये जिसका सरोकार वर्तमान सन्दर्भों से है। ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर मोदी अपनी प्रचार सभाओं में तो क्या संसद के भीतर भी बात करना पसंद नहीं करते, जो कि उनका संवैधानिक कर्तव्य ही नहीं जवाबदेही भी है। पिछले दस वर्षों में उन्होंने यही किया है कि संसद में मुद्दों पर पूछे गये सवालों को कांग्रेस के परिवारवाद, विपक्षियों के भ्रष्टाचार, सबको जेल भेजने, अगले 25 वर्षों का रोड मैप बनाने, 2047 तक भारत को दुनिया का सबसे विकसित देश बनाने जैसे आधारहीन विषयों से जोड़ देते हैं। संसद के भीतर पूछे गये सवालों के जवाब वे सत्र के दरम्यान भी बाहर होने वाली पार्टी रैलियों और सभाओं में देने का हौसला व महारत संजोये हुए हैं। यहां असली बात है मोदी के सभी पैंतरों के नाकाम होने का भय और उनकी सरकार द्वारा लाये गये इलेक्टोरल बॉन्ड्स के जरिये हुए भ्रष्टाचार का पर्दाफाश होना जिसमें केन्द्रीय जांच एजेंसियों का जमकर दुरुपयोग किया गया है। घोटालों के नाम पर विपक्षियों को थोक के भाव से जेल भेजने के उनके षड्यंत्र सहित कई-कई कृत्यों का उजागर होना मोदी को परेशानी में डाल रहा है। फिर, पूरे समय व्यक्तिवादी व आत्मकेन्द्रित राजनीति करने के कारण मोदी अब पूरी तरह से अकेले हैं। अधिक से अधिक केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह उनके साथ हैं। उनका बचाव अब कोई दूसरा नेता भी करता नहीं दिख रहा है। ऐसे में उन्हें इस मीडिया की शरण लेनी पड़ी है।

दूसरा सवाल यह भी है कि इतने वक्त के बाद भी अगर मोदी ने थांती, असम ट्रिब्यूनल व एएनआईई से खुलकर बातें की हैं तो क्या उन्होंने सब कुछ सच-सच कहा है? कई बातों की परतें तो तब खुलतीं अगर मोदी से पत्रकारों द्वारा पूरक सवाल किये जाते। सवालों के उत्तरों पर प्रति प्रश्न होते तो मोदी शायद ही टिक पाते और उन्हें अपने ज्यादातर कामों व निर्णयों का औचित्य साबित करना मुश्किल हो जाता। मसलन, यदि उन्होंने इलेक्टोरल बॉन्ड्स को पारदर्शी बनाया है तो क्या वे पीएम केयर फंड को भी ऐसा ही खुला बनायेंगे जिसके बारे में कोई भी जो कुछ चाहे जान सकता है? यदि वे इसे पारदर्शी बना चुके थे तो सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला पहुंचा ही क्यों? क्यों नहीं मोदी सरकार पूरी स्पष्टता व चर्चा के साथ इस योजना को लेकर आई? आखिर यह योजना सभी दलों के लाभार्थ बनी थी तो उनकी राय क्यों नहीं ली गई? फिर, कोर्ट द्वारा मांगी गई जानकारी देने में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया द्वारा इतनी आनाकानी क्यों की गयी? व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो मोदी सरकार ने सूचना के अधिकार को इतना कमजोर कर दिया है कि लोगों की पहुंच से सरकारी कामकाज दूर हो गया है।

मोदी के साक्षात्कार में यह भी दावा है कि वे तीसरा कार्यकाल जिन बड़े कामों को पूरा करने के लिये चाहते हैं, वे किसी को डराने के लिये नहीं है। उनका यह दावा उनके अपने लोगों के उन बयानों से मेल नहीं खाता जिनमें वे कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी को 400 सीटें इसलिये चाहिये क्योंकि संविधान को बदलना है। अनंत हेगड़े, ज्योति मिर्धा, लल्लू सिंह, अरूण गोविल आदि कई नेता-उम्मीदवार इस आशय की बातें कह चुके हैं। मोदी का अगर संविधान को बदलने का इरादा नहीं है तो वे पार्टी सहयोगियों को ऐसा कहने से मना क्यों नहीं करते? आज पूरे देश में इस बात का भय है कि भाजपा के 400 पार के नारे का प्रयोजन ही संविधान को बदलना है जिसकी पहली बलि आरक्षण व्यवस्था की होगी। इसी प्रकार, जैसा कि मोदी कह रहे हैं कि जिन पर जांच एजेंसियों के छापे पड़ रहे हैं उनमें से ज्यादातर गैर राजनीतिक लोग हैं, तो लोग देख रहे हैं कि अनेक राजनीतिज्ञ एवं गैर भाजपायी मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री जेलों में भेजे जा चुके हैं। इस साक्षात्कार में छोटे-मोटे कई ऐसे तथ्य भरे पड़े हैं जिन पर विश्वास करना सम्भव नहीं है।

इस तरह देखें तो अपने असत्यों व अर्द्धसत्यों को मीडिया की आड़ में छिपाते मोदी और भी बड़े झूठ बोल रहे हैं जो प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति के लिये न तो गरिमामय है और न ही उचित। वे यह भी भूल जाते हैं कि शासक का झूठ तभी तक चलता है जब तक कि उसके हाथों में शक्ति व मशीनरी होती है। यह शक्ति-मशीनरी उस वक्त बेकार हो जाती है जब जनता जाग उठती है। ऐसा होने पर मोदी की अलमारी से झूठ के अनेक कंकाल बाहर आएंगे।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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