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मानसून का रहस्य सुलझाने में नाकाम हो रहे हैं मौसम विज्ञानी

प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में मानसून का पूर्वानुमान लगाना कठिन होता जा रहा है. तमाम नई तकनीकें भी इस बाधा को पूरी तरह से मिटाने में नाकाम हो रही हैं

मानसून का रहस्य सुलझाने में नाकाम हो रहे हैं मौसम विज्ञानी
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हैदराबाद के बाहरी इलाके में एक छोटी सी प्रयोगशाला में प्रोफेसर कीर्ति साहू बारिश की बूंदों का अध्ययन कर रहे हैं. उनके पास एक मशीन है जो बादल जैसी स्थिति पैदा करती है. इसका इस्तेमाल कर उन जैसे कुछ वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण कैसे मानसून की बारिश को बदल रहे हैं जो देश की कृषि पर निर्भर अर्थव्यवस्था की जान है.

इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी आईआईटी के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग में रिसर्च कर रहे साहू बताते हैं, "भारत का मानसून रहस्यों से भरा है. अगर हम बारिश की भविष्यवाणी कर सकें तो यह हमारे लिए बहुत बड़ी बात होगी."

मानसून भारत कr 3,000 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए जीवनरेखा है. भारत को अपने खेतों, तालाबों और कुओं को जिंदा रखने के लिए जो पानी चाहिए उसका 70 फीसदी मानसून से आता है. 140 करोड़ की आबादी वाला भारत इस मौसमी बरसात के आधार पर ही खेती से लेकर शादी तक की तारीखें तय करता है.

कठिन हुआ मानसून का पूर्वानुमान

हालांकि जलवायु को बदलने वाले जीवाश्म ईंधनों को ऊर्जा के लिए जलाना और प्रदूषण मानसून को बदल रहा है. इसका असर खेती पर हुआ है और बारिश का पूर्वानुमान लगाना कठिन होता जा रहा है. जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में कई तरह के चरम मौसम को जन्म दे रहा है. गीले इलाके और ज्यादा बारिश के कारण डूबने लग रहे हैं, तो सूखे इलाके और ज्यादा पानी की कमी से हलकान हो रहे हैं.

संयुक्त राष्ट्र की इंटरगवर्नमेंटल पैनल फॉर क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी ने ध्यान दिलाया है कि भले ही जलवायु परिवर्तन की वजह से एशिया में बारिश बढ़ सकती है लेकिन दक्षिण एशिया में 20वीं शताब्दी के दूसरे आधे हिस्से में मानसून कमजोर हुआ है.

मानसून में इस बदलाव को एरोसॉल के बढ़ने से जोड़ा जा रहा है. यह एक रसायन है जिसके छोटे कण या बूंदें हवा में तैरती रहती हैं. यह इंसानी गतिविधियों के कारण बढ़ता है. जीवाश्म ईंधनों को जलाना, गाड़ियों से निकलने वाला धुआं और समुद्री नमक ये सब वातावरण में एरोसॉल को बढ़ाते हैं. भारत लंबे समय से वायु प्रदूषण से जूझ रहा है जो बड़े शहरों में जब तक स्मॉग की चादर फैला देते हैं.

हाल के वर्षों में भारत का मानसून छोटा मगर तीव्र होता गया है. मौसम का पूर्वानुमान बताने वाली निजी कंपनी स्काइमेट के प्रमुख मौसम विज्ञानी जीपी शर्मा का कहना है कि मानसून का यह रूप कुछ इलाकों में बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति पैदा कर देता है. उन्होंने यह भी कहा कि साल 2000 के बाद से अब तक छह बड़े सूखे की स्थिति आ चुकी है लेकिन पूर्वानुमान लगाने वाले उनके बारे में जानकारी नहीं दे सके.

फसलों का नुकसान

पुराने समय में भी भारत के राजा बारिश का पूर्वानुमान लगाने की कोशिश करते रहे हैं. आज भी सरकार किसानों को सलाह देती है कि वो कब बुआई कर सकते हैं. यह सलाह इतनी अहम है कि 2020 में मध्यप्रदेश के किसानों ने मीडिया से कहा कि वो सरकार के मौसम विभाग के खिलाफ गलत पूर्वानुमान के लिए मुकदमा दायर करेंगे. मानसून की सही भविष्यवाणी के लिए सरकार ने सेटेलाइट, सुपरकंप्यूटर और खास तरह के वेदर रडार स्टेशनों का नेटवर्क बनाया है. इसका नाम इंद्र रखा गया है जो हिंदू मान्यता के मुताबिक बारिश के देवता हैं. हालांकि इन सबके नतीजे में मामूली बेहतरी ही आई है.

ब्राउन यूनिवर्सिटी में पृथ्वी, पर्यावरण और ग्रहीय विज्ञान के प्रोफेसर स्टीवन क्लेमेंस का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और एरोसॉल का असर भारत में मौसम का सही पूर्वानुमान लगाने में मुश्किल पैदा कर रहा है. उनका रिसर्च मुख्य रूप से एशियाई और भारतीय मानसून पर केंद्रित है. भारत के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय से जुड़े वैज्ञानिक माधवन राजीवन का कहना है कि हाल के वर्षों में मानसून की बारिश और ज्यादा अनियमित हुई है. उन्होंने कहा, "बारिश थोड़े दिनों के लिए हो रही है लेकिन जब बारिश होती है तो भारी बारिश होती है."

साहू का कहना है कि मानसून के बादलों ने अपना रास्ता भी बदला है और अब वो देश के पूरे मध्य भाग को काट कर निकल जा रहे हैं. उन्होंने कहा, "मानसून के दौर में कई राज्यों में बहुत ज्यादा बारिश हो रही है जबकि दूसरे राज्य जहां कम बारिश होती थी वहां इसकी और कमी हो जा रही है." दिल्ली के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में काम करने वाली अंशु ओगरा का कहना है, "कुल मिला कर कहें तो बारिश नाकाम नहीं हुई है, वो आई है लेकिन भारी बरसात के रूप में. इसका मतलब है कि पौधों के पास उन्हें अशोषित करने के लिए पर्याप्त समय नहीं है. फूल को फल बनने का मौका नहीं मिल पा रहा है तो ऐसे में आपको फसल का नुकसान होगा."

फ्लाइंग लेबोरेट्री

मौसम का बेहतर पूर्वानुमान अधिकारियों को चरम मौसम की तैयारी में मदद दे सकता है. राजीवन का कहना है कि बाढ़ जैसी स्थितियों के लिए लोगों को पहले से तैयार किया जा सकता है दूसरी तरफ बारिश में गिरे पानी को जमा करके सूखे इलाकों तक पहुंचाया जा सकता है. हैदराबाद के वर्कशॉप में साहू एरोसॉल, नमी, हवा का बहाव, तापमान और दूसरे कारकों में बदलाव से पानी की बूंदों पर और बूंदों के बनने पर पड़ने वाले असर का अध्ययन कर रहे हैं.

इसी बीच तारा प्रभाकरन बादलों के भीतर तापमान, दबाव और एरोसॉल की मौजूदगी से जुड़े आंकड़े एक विमान में बैठ कर फ्लाइंग लैबोरेट्री के सहारे जमा कर रही हैं. दोनों वैज्ञानिक अपनी खोजों को साथ लाकर पूर्वानुमानों को बेहतर करना चाहते हैं. इसका मकसद ये जानना है कि बदलती परिस्थितियां कैसे मानसून पर असर डाल रही हैं.


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