आपातकाल की यादें, तानाशाही का खतरा और संविधान की रोशनी
भाजपा उस संविधान को बदलने जा रही है जिसके कारण दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि के अधिकार सुरक्षित हैं

- डॉ. दीपक पाचपोर
भाजपा उस संविधान को बदलने जा रही है जिसके कारण दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि के अधिकार सुरक्षित हैं। इसे बचाने के लिये ही इंडिया का न केवल गठन हुआ बल्कि वह एकजुट भी बना रहा। जेडीयू के नीतीश कुमार और राष्ट्रीय लोक दल के जयंत चौधरी द्वारा ऐन चुनाव के पहले एनडीए खेमे में चले जाने के बावजूद इंडिया ने मजबूती से चुनाव लड़ा और उसने लोकसभा में मोदी-भाजपा को पूर्ण बहुमत से काफी दूर रोक लिया।
सोमवार की सुबह जब 18वीं लोकसभा के दरवाजे नवनिर्वाचित सदस्यों के लिये खुले, तब उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक नयी शुरुआत करेंगे, वह इस मामले में कि अगर पिछले दो कार्यकाल के बाद उन्हें राजनीतिक घटनाक्रम ने यह अवसर दिया है कि वे लगातार तीसरी बार देश का सर्वोच्च पद प्राप्त कर पहले पीएम जवाहरलाल नेहरू की बराबरी कर सके हैं, तो उन्हें उनके जैसा बनने की नये सिरे से कोशिश करनी चाहिये। 'घटनाक्रम' ही क्योंकि उनके नेतृत्व व चेहरे के आधार पर लड़े गये चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की सीटें 303 से घटकर 240 रह गयीं। देखें तो जनादेश उनके विपरीत है। 'उम्मीद' इसलिये कि अब उनकी सरकार को स्पष्ट बहुमत नहीं है। तेलुगु देशम पार्टी तथा जनता दल यूनाइटेड के समर्थन पर वह टिकी है। बड़े बहुमत से सत्ताधीश का निरंकुश हो जाना तो समझ में आता है लेकिन जो व्यक्ति एक नहीं दो-दो दलों के समर्थन की बैसाखियों पर टिका हो, वह यदि पुराने ढर्रे पर चलना चाहे तो उसका गिरना तय है। यदि मोदी को यह डर भी नहीं है तो यह अपने आप में खतरनाक संकेत हैं क्योंकि ऐसा शासक या तो सब कुछ मैनेज कर चुका होता है या उसके हाथ बड़े हथियार होने का अंदेशा है।
बहरहाल, मोदीजी ने सत्र प्रारम्भ होने के पहले मीडिया के सामने दिये अपने भाषण में उन्हीं तीन-चार तरह की बातें कहीं, जो कहने के वे आदी हैं; और जिन्हें सुनने का देश कान पकने तक आदी हो चुका है। इतिहास के दुखद व कटु प्रसंगों को सन्दर्भ से काटकर पेश करने में महारत हासिल किये बैठे मोदी ने अपनी तीसरी पारी का प्रारम्भ उसी अंदाज़ में करते हुए संदेश देने की कोशिश की है कि वे अल्पमत में होने के बावजूद न तो अपना लहज़ा बदलेंगे और न ही नकारात्मकता उनके स्वभाव से जायेगी। 10 साल तक स्वच्छंदतापूर्वक शासन करने वाले मोदी ने आपातकाल की याद दिलाई और चेतावनी दी कि अगले कई वर्षों तक कोई तानाशाह बनने की नहीं सोचेगा। दरअसल, वे अपनी ही अघोषित तानाशाही के अपराध भाव से ग्रस्त हैं इसलिये खुद को क्लीन चिट देने की प्रक्रिया में 50 वर्ष पहले के इमरजेंसी को याद कर रहे हैं। दूसरे, वे इससे भी परेशान हुए होंगे कि जब वे शपथ ले रहे थे तब विपक्षी दलों के सदस्य उन्हें संविधान की प्रतियां दिखा रहे थे। वैसे भी 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बनने के वक्त सीढ़ियों को माथा टेककर संसद भवन में प्रवेश करने वाले मोदी दूसरे कार्यकाल के समापन तक पहुंचते-पहुंचते संविधान की बजाय राजतंत्र के प्रतीक सेंगोल को आत्मसात कर चुके थे।
अब एक बात साफ हो गई है कि दूसरी बार (2019) की तरह नहीं लेकिन पहली बार जैसा भी बहुमत लेकर यदि मोदी आ जाते तो वे वह सारा कुछ करने में जुट जाते जो उनसे पहले के दो कार्यकालों में करना रह गया था। हां, 370 और 400 का उनका लक्ष्य पूरा हो जाता तो जिस संविधान को विपक्ष के सांसद लहरा रहे थे और जिसकी प्रतियां दिखाते हुए राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार का एक बड़ा हिस्सा गुजारा, वह कूड़ेदान के हवाले कर दिया गया होता। जब चुनावों में इसके संकेत मिलने लगे थे कि भाजपा व उसका गठबन्धन नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) लक्ष्य से दूर ही नहीं हो रहे हैं बल्कि उनकी सत्ता बचनी भी मुश्किल हो रही है, तब कहीं खुद मोदी और उनके मुख्य सिपहसालार केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहना शुरू किया कि सरकार बनाने के बाद उनका संविधान बदलने का कोई इरादा नहीं है। इसका कारण यह था कि लोगों तक यह बात पहुंच गयी थी कि भाजपा उस संविधान को बदलने जा रही है जिसके कारण दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं आदि के अधिकार सुरक्षित हैं। इसे बचाने के लिये ही इंडिया का न केवल गठन हुआ बल्कि वह एकजुट भी बना रहा। जेडीयू के नीतीश कुमार और राष्ट्रीय लोक दल के जयंत चौधरी द्वारा ऐन चुनाव के पहले एनडीए खेमे में चले जाने के बावजूद इंडिया ने मजबूती से चुनाव लड़ा और उसने लोकसभा में मोदी-भाजपा को पूर्ण बहुमत से काफी दूर रोक लिया।
यह तो सच है कि मोदीजी पहले के मुकाबले काफी कमजोर होकर संसद में लौटे हैं परन्तु भारत का लोकतंत्र अभी खतरे से पूरी तरह से बाहर नहीं निकला है। मोदीजी अभी आपातकाल की यादें दिलाकर लोगों को डराने की कोशिश कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि लोग पूरा तथ्य जाने बिना ही उनकी हां में हां मिलाएं और उस परिवार (गांधी) तथा पार्टी (कांग्रेस) के प्रति घृणा करते रहें जो आपातकाल लागू करने के जिम्मेदार थे। वह 50 वर्ष पहले की बात थी और उसे देखने-समझने वाली पीढ़ी के ज्यादातर लोग गुजर चुके हैं या जिन्होंने उसे देखा था वे पिछले दस साल से मोदी का शासनकाल भी देख चुके हैं। उनमें से बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो जबरिया नसबंदी, प्रेस सेंसरशिप जैसे कुछ कदमों को छोड़कर मानते हैं कि सामान्यजनों को उसका दंश वैसा नहीं भोगना पड़ा है जैसी कि मोदी प्रदत्त महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, आर्थिक बदहाली आदि के कारण जनसामान्य की तबाही हुई है। फिर दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं पर जो अत्याचार हुए वैसे 1975 में लगी इमरजेंसी में नहीं हुए। उल्टे, वे बेहद महफूज़ रहे।
हालांकि इसके कारण आपातकाल को तर्कसंगत व औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। वह ऐतिहासिक भूल थी और उसी से सबक लेकर ऐसे हर शासक का विरोध करना अनिवार्य हो जाता है जो तानाशाह बनने की कोशिश करे। बेहद सख्ती के बाद भी इंदिरा गांधी का विरोध हुआ था और उसी अपरिहार्यता के तहत मोदी की तमाम कोशिशों का प्रतिरोध होता है। होता रहेगा।
मोदीजी के इस रवैये, स्थायी रूप से सत्ता पाने की भाजपा की सम्भावित चालबाजियां, अनंत काल तक शासक बने रहने की मोदीजी की लालसा, पार्टी के पास अकूत धन, जनप्रतिनिधियों व नेताओं की पैसों के लिये पलटने की प्रवृत्ति आदि ऐसे कई तत्व हैं जिनसे संकेत मिलते हैं कि भाजपा अपने बल पर पूर्ण बहुमत पाने के लिये कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी। कुछ दिनों से ठप्प पड़ा 'ऑपरेशन लोटस' अगर रिएक्टिवेट हो जाये तो आश्चर्य नहीं। यानी अंधेरा अभी पूरी तह से छंटा नहीं है। ऐसे में विपक्ष और लोकतंत्र व नागरिक अधिकारों में यकीन रखने वाले क्या करें? जब तक सूर्य चमक रहा है, उसके उजाले में चला जाये। सूर्य अस्त हो जाये तो टिमटिमाते सितारों की रोशनी में चलते रहेंगे। सितारे भी फ़ना हो जायें तो जुगनुओं की चमक के सहारे राह ढूंढ़ी जाये। जुगनू भी रोशनी बिखरने में असमर्थ हो जायें तो उस दीये के प्रकाश में आगे बढ़ा जाये जो बाबा साहेब अंबेडकर देशवासियों के हाथों में थमा गये हैं और जिसे बुझाने की कोशिश की जा रही है। सोमवार व मंगलवार को विपक्षी सांसदों ने 'संविधान' नाम का यह दीपक ही हाथों में लेकर लोकसभा सदस्यता की शपथ ली। ज्यादातर ने इसी दीपक के नाम की शपथ लेकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का आगाज़ किया है। जैसा कि कहा जा रहा था, कि यह चुनाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इस लिहाज से कि भारत के लोकतंत्र के भविष्य का निर्धारण इससे होगा। विपक्ष ने छोटी लड़ाई ही जीती है, मुख्य युद्ध तो बाकी है, लेकिन संतोष इसी का है कि संविधान रूपी यह दीप मशाल की तरह प्रखर हो चुका है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


