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मैक्डॉनल्ड की तर्ज पर मैक्सर्जरी, बर्गर की जगह मिलती हैं आंखें

भारत के मदुरै में एक अस्पताल में आंखों के पांच लाख ऑपरेशन हर साल होते हैं.

मैक्डॉनल्ड की तर्ज पर मैक्सर्जरी, बर्गर की जगह मिलती हैं आंखें
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मदुरैई के एक अस्पताल में हरे चोगे पहने लोगों की एक लाइन नजर आएगी. इनके माथे पर काला निशान है, जो बताता है कि इन्हें सर्जरी के लिए जाना है. ये लोग मैक्सर्जरी मॉडल के तहत आंखों के ऑपरेशन के लिए आते हैं.

मैक्सर्जरी मॉडल के तहत लाखों लोगों को आंखों की रोशनी दी जा चुकी है. यह मॉडल मैक्डॉनल्ड के सप्लाई मॉडल पर आधारित है जिसे अरविंद आई केयर सिस्टम ने अपनाया है. इसके तहत सालाना लगभग पांच लाख लोगों के ऑपरेशन किए जाते हैं, जिनमें से काफी मुफ्त होते हैं.

देखिए, क्या कह देता है आपका चेहरा

दुनिया की एक चौथाई से भी ज्यादा आबादी, यानी दो अरब से ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्हें कम दिखाई देता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ल्‍ड विजन रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से लगभग एक अरब मामले ऐसे हैं जो वक्त पर संभाले होते तो नुकसान ना होता.

भारत में एक करोड़ से ज्यादा लोग नेत्रहीन हैं. और पांच करोड़ ऐसे हैं जिन्हें आंखों की रोशनी से जुड़ी कोई समस्या है. इनमें कैटारैक्ट सबसे बड़ी समस्या है.

मैक्डॉनल्ड से मिली प्रेरणा
अरविंद के संस्थापकों में से एक तुलसीराज रवीला बताते हैं, "इनमें से बड़ी तादाद में लोगों की आंखों की रोशनी बचाई जा सकती है क्योंकि कैटारैक्ट का इलाज साधारण सी सर्जरी से हो जाता है.”

अरविंद अस्पताल को डॉक्टर गोविंदप्पा वेंकटस्वामी ने स्थापित किया था. वह अमेरिका के शिकागो में हैमबर्गर विश्वविद्यालय गए थे जहां उन्हें मैक्डॉनल्ड के सप्लाई मॉडल के बारे में जानने का मौका मिला. वह इस अमेरिकी फास्ट फूड चेन के पूर्व सीईओ रॉय क्रॉक से प्रभावित हुए और उसी की प्रेरणा से अस्पताल शुरू किया. उन्होंने एक बार कहा भी था, "अगर मैक्डॉनल्ड हैमबर्गर के लिए कर सकता है, तो हम आंखों के लिए क्यों नहीं?”

तमिलनाडु के मदुरै में अरविंद अस्पताल की शुरुआत 1976 में 11 बिस्तर के अस्पताल के रूप में हुई थी. अब यह छोटे छोटे स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पतालों की श्रृंखला के रूप में देशभर में फैल चुका है. यह मॉडल इतना सफल रहा है कि हार्वर्ड बिजनस स्कूल समेत तमाम शोध संस्थान इस पर शोध कर चुके हैं.

कैंप से अस्पताल तक
इस मॉडल के केंद्र में वे छोटे छटे कैंप हैं जो गांवों में लगाए जाते हैं. रवीला बताते हैं, "वहां तक पहुंचना बड़ी बात होती है. उनका हमारे पास आने के लिए इंतजार करने के बजाय हम इलाज को ही लोगों तक ले जा रहे हैं.”

इन मुफ्त कैंपों का बहुत से लोगों को फायदा हुआ है. जैसे वेंकटचलम राजंगम के घर के पास ही एक ऐसा कैंप लगा था. राजंगम बताते हैं कि उनकी दुकान है जहां उन्हें काम करना बंद करना पड़ा क्योंकि उन्हें नजर ही नहीं आता था कि ग्राहक कितना पैसा दे रहे हैं. कई बार वह अंधेरे में गिर भी जाते थे.

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मदुरैई से करीब ढाई सौ किलोमीटर दूर रहने वाले 64 वर्षीय राजंगम को पास के गांव कुडुकराई में एक कैंप के बारे में पता चला. वह कैंप पहुंचे जहां डॉक्टरों ने उनकी जांच की और बायीं आंख में कैटारैक्ट का पता चला. उन्हें और उन जैसे करीब 100 लोगों को एक बस से एक अन्य कैंप में ले जाया गया, जहां मुफ्त खाने-पीने और रहने की सुविधा भी मिली. वहां उनका ऑपरेशन हो गया.

राजंगम बताते हैं, "मुझे लगा कि ऑपरेशन घंटा भर तो चलेगा लेकिन 15 मिनट में ही सब हो गया. और ऐसा भी नहीं लगा कि जल्दबाजी की हो. सब बढ़िया से किया गया. मुझे एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ा. आंखें तो भगवान ने दी हैं लेकिन मेरी आंखों की रोशनी इन लोगों ने लौटाई.”

सर्जरी के लिए सख्त ट्रेनिंग
अरविंद अस्पताल में काम करने वाली आंखों की सर्जन डॉ. अरुणा पाई कहती हैं कि सर्जरी जल्दी का जा सके इसके लिए डॉक्टरों को गहन प्रशिक्षण दिया जाता है. इसलिए दस हजार में से दो ऑपरेशन में ही किसी तरह की दिक्कत होती है. ब्रिटेन और अमेरिका में दिक्कत होने की यह दर हर 10,000 पर 4-8 है.
रोजाना, लगभग 100 ऑपरेशन करने वालीं पाई बताती हैं, "हमारे पास वेट लैब्स जहां हमें बकरियों की आंखों पर ऑपरेशन का अभ्यास कराया जाता है. इससे हमें अपने कौशल को बढ़ाने का मौका मिलता है.”

अस्पताल का कहना है कि वे दान नहीं लेते बल्कि जो मरीज पैसा दे सकते हैं, उनसे मिले धन के जरिए ही मुफ्त इलाज करते हैं. इसके अलावा अपनी ही फैक्ट्री में कैटारैक्ट के इलाज के लिए लैंस बनाकर भी धन बचाया जाता है. ऑरोलैब नाम की इस फैक्ट्री में सालाना 25 लाख लैंस बनाए जाते हैं.


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