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मायावती का एकला चलो रे... का फैसला

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो सुश्री मायावती का अपने जन्मदिन के मौके पर यह ऐलान लोगों को चौंका सकता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी किसी भी गठबन्धन का हिस्सा न बनकर एकला ही चलेगी

मायावती का एकला चलो रे... का फैसला
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बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो सुश्री मायावती का अपने जन्मदिन के मौके पर यह ऐलान लोगों को चौंका सकता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी किसी भी गठबन्धन का हिस्सा न बनकर एकला ही चलेगी, क्योंकि बहुत से लोगों को भरोसा था कि देश की वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए जीवन के 68 साल पूरा करने वाली बहुजन नेता 'इंडिया' गठबन्धन के साथ जा सकती हैं। फिर, लोग यह भी सोच सकते थे कि यह उनके सामने नायाब अवसर था कि वे खुद पर भारतीय जनता पार्टी की 'बी' टीम होने का ठप्पा व कलंक मिटा सकती थीं।

बहरहाल, मायावती के इस फैसले को लेकर अधिकतर का मानना है कि वे भाजपा से घबराई हुई नेता हैं और फिलहाल अपने अस्तित्व को बचाने की राजनीति कर रही हैं। जिस तरह से देश भर में विपक्षी नेताओं पर चल रहे केन्द्रीय जांच एजेंसियों के छापों से मायावती बची हुई हैं, उस सुरक्षा कवच को बनाये रखने के लिये उनके वास्ते लाजिमी था कि वे इंडिया की ओर झांके भी नहीं। भाजपा के नेतृत्व में बने एनडीए से भी विलग रहने का उनका फैसला बतलाता है कि वे अपनी बहुजन नेता की पहचान को भी बचाये रखना चाहती हैं। ऐसा भी अनुमान है कि उन्हें चुनाव लड़ने के लिये किसी भी तरह की संसाधन सम्बन्धी कमी भाजपा की ओर से नहीं आने दी जायेगी।

मायावती के इस फैसले के बाद इस बात पर मंथन होना स्वाभाविक है कि उनका फैसला कितना सही है। सम्भव है कि उन्होंने दोनों गठबन्धनों (एनडीए-इंडिया) में से किसमें शामिल हुआ जाये, इसका निर्णय इस आधार पर लिया होगा कि किससे पार्टी को कम नुकसान होगा। अधिक लाभ पर विचार करने का इसलिये सवाल ही नहीं रह गया है कि पिछले कुछ समय से बहन जी जिस प्रकार की राजनीति कर रही हैं, उसमें अब उनकी पार्टी का दबदबा लगभग समाप्त हो चुका है और उन्हें अब अपने दल व खुद को तो बचाये रखना ही है, अपने उत्तराधिकारी आकाश को भी ठीक-ठाक स्थापित करना है। हालांकि इस फैसले ने साबित कर दिया है कि उन्हें भाजपा की बी टीम कहलाये जाने से कोई समस्या नहीं है और न ही जिन दलितों, शोषितों व वंचितों का वे प्रतिनिधित्व करती हैं, उनके हितों से कोई सरोकार है। पिछले दिनों उनके एक सांसद दानिश अली के खिलाफ भरी लोकसभा में भाजपा के रमेश बिधूड़ी ने अपशब्दों का इस्तेमाल किया पर जिस प्रकार से उन्हें मायावती ने अकेला छोड़ दिया, उससे साबित हो चुका था कि वे पहले की तरह बहुजनों व अल्पसंख्यकों की सच्ची नुमाईंदगी करने के लायक नहीं रह गई हैं। ऐसे ही, उनके अपने उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार होते रहे और वे चुप रहीं, उससे साफ हो चुका था कि उनका लड़ने का माद्दा भी चुक गया है।

2022 के प्रारम्भ में हुए उप्र विधानसभा चुनाव भी उन्होंने स्वतंत्र होकर लड़ा जिसका नतीजा यह रहा कि बसपा का सदन में केवल एक ही विधायक जीतकर आया। 2019 के चुनावों में अलबत्ता उसे 10 सीटों पर सफलता मिली थी। सम्भवत: मायावती की उम्मीद यह है कि इस बार भी उन्हें कम से कम इतनी या इससे बढ़कर सीटें मिल सकती हैं लेकिन वे यह भूल रही हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा की दुर्गति से लोकसभा चुनाव में सफलता का आधार कमजोर हो चुका है। हालांकि मौजूदा सियासी परिस्थितियों को देखते हुए यह चुनाव पार्टीगत हार-जीत से बढ़कर लोकतंत्र बचाने की लड़ाई बन चुका है जिसमें हर संगठन व नेता से देश एक निश्चित भूमिका की अपेक्षा कर रहा है। फिर, मायावती का जो समर्थक वर्ग है, उसी का भाजपा के दो शासनकाल में सर्वाधिक उत्पीड़न हुआ है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आर्थिक नीति ने गैरबराबरी को बेइंतिहा बढ़ाया है। जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा शासकीय राशन पर निर्भर है। राजनैतिक निरंकुशता सतत बढ़ी है जिसमें कुचले जाने वालों में दलित, अल्पसंख्यक और वंचित समूह हैं। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण एवं सामाजिक विखंडन के शिकार भी जो लोग हैं, वे मायावती का ही अनुसरण करते हैं।

यह वह वक्त है जब मोदी शासन की नीतियों के खिलाफ एक उदार विचारधारा को पुनसर््थापित करने के लिये कांग्रेस नेता राहुल गांधी रविवार को ही मणिपुर से 6700 किलोमीटर की यात्रा पर निकले हैं। इस बार तो उनकी भारत जोड़ो यात्रा में 'न्याय' शब्द को भी शामिल किया गया है। राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक न्याय मांगने वाली यात्रा को ज्यादातर गैर भाजपायी दल समर्थन दे चुके हैं लेकिन मायावती ने इंडिया गठबन्धन का हिस्सा न बनकर संदेश दे दिया है कि वे अधिसंख्य लोगों को न्याय मिलने में दिलचस्पी नहीं रखतीं। यह ऐसा लम्हा है जिसमें देश न्याय व अन्याय के द्वंद्व के बीच में है। अवाम देख रही है कि कौन से लोग व राजनैतिक दल न्याय के साथ खड़े हैं और कौन से अन्याय का पक्ष ले रहे हैं। मायावती एनडीए में चाहे शामिल न हुई हों, परन्तु उनका अकेले लड़ना अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के लिये मददगार साबित होगा- यह समीकरण हर कोई जानता है। भाजपा भी चाहेगी कि बसपा खूब मजबूती से लड़े। शायद बहन मायावती की पार्टी को आर्थिक दिक्कतें भी नहीं आने दी जायेंगी।

ऐसा निर्णय लेते हुए मायावती निश्चिंत ही स्थानीय सियासत को राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों के मुकाबले अधिक तरज़ीह दे रही हैं। यह उनका अपना फैसला है, लेकिन इतिहास उनके इस कदम की समीक्षा ज़रूर करेगा कि उन्होंने देश व उनके समर्थकों के आड़े वक्त में जो फैसला लिया वह उनके हित में गया या नहीं।


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