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चीन से कैसे निबटें ये उलझन भारत समेत कई देशों की है

चीन हमेशा से अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए सिरदर्द रहा है.कारोबारी हितों के कारण वह दुनिया के हर हिस्से में अहम हो गया है.रूसी हमले के बाद पश्चिमी देशों के अलावा उसके पड़ोसियों की भी चिंता है कि उससे कैसे निबटें

चीन से कैसे निबटें ये उलझन भारत समेत कई देशों की है
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जर्मनी के राष्ट्रपति फ्रांक वाल्टर श्टाइनमायर पिछले करीब तीन दशकों से सत्ता के केंद्र में रहे हैं, चांसलर कार्यालय के मंत्री, विदेश मंत्री और अब राष्ट्रपति के रूप में. उनका मानना रहा है कि आर्थिक और सांस्कृतिक सहयोग देशों को एक दूसरे को समझने और एक दूसरे के अनुसार बदलने में कारगर है. हालांकि यूक्रेन पर रूस के हमले ने उन्हें अपनी सोच बदलने को विवश कर दिया है.

चीन के साथ जर्मनी के संबंधों पर श्टाइनमायर का लहजा बदल गया है. कुछ महीने पहले ही उन्होंने चेतावनी दी थी कि सामरिक रूप से कुछ महत्वपूर्ण इलाकों में चीन पर जर्मनी की निर्भरता रूसी गैस पर जर्मनी की निर्भरता से ज्यादा है. इस हफ्ते उन्होंने अमेरिका में किसिंजर पुरस्कार लेते हुए कहा कि "चीन बदल गया है." उन्होंने शिकायत की कि चीन में "सख्ती का दौर" शुरू हो गया है.

विश्व बंधुत्व की राह से भटका चीन

जहां तक चीन का सवाल है तो सख्ती का दौर तो चीन में हमेशा से रहा है, लेकिन हाल में हुए कम्युनिस्ट पार्टी के कांग्रेस में इसे और बल मिला है, जब शी जिनपिंग को लगातार तीसरी बार पार्टी महासचिव चुना गया. पिछले दशकों में चीन ने साम्यवादी शासन के बावजूद शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन का एक रास्ता खोज लिया था, जिसमें एक नेता दस साल और अधिकतम 70 की उम्र तक पार्टी का महासचिव और देश का राष्ट्रपति होता था. शी जिनपिंग ने इसे बदल दिया है और तीसरे कार्यकाल के साथ पार्टी के सर्वशक्तिमान नेता बन बैठे हैं.

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जर्मन राष्ट्रपति का कहना है कि घरेलू राजनीति में विरोध को दबाने और दक्षिण प्रशांत में वर्चस्व की राजनीति करने के अलावा चीन अब एक खतरनाक विदेश और आर्थिक नीति अपना रहा है, "चीन को दुनिया से स्वतंत्र और दुनिया को चीन पर निर्भर" करने की नीति. श्टाइनमायर का कहना है कि जर्मन रूसी संबंधों का इतिहास दिखाता है कि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आर्थिक लेन देन राजनीतिक नजदीकी लाता है. राष्ट्रपति का ये कहना जर्मनी की सोच में आ रहे बदलाव की निशानी है. रूसी गैस पर निर्भरता ने यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद जर्मनी के लिए गंभीर समस्याएं पैदा की हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार ना सिर्फ तेल और गैस की बल्कि खाने पीने की चीजों की कीमत भी आसमान पर हैं और मुद्रा स्फीति 10 फीसदी के आंकड़े के पार जा रही है.

कारोबार में निर्भरता घटाने की चुनौती

अब किसी भी देश पर एकतरफा निर्भरता को घटाना जर्मनी की सरकार के लिए बड़ी चुनौती है. कारोबार में बाधा डाले बिना चीन से आयात और वहां से मिलने वाले कच्चे माल पर निर्भरता कम करना आसान नहीं है. यूक्रेन पर रूस के हमले ने सत्तारूढ़ गठबंधन की तीन पार्टियों में गंभीर मतभेदों को भी सामने ला दिया है. अब ग्रीन पार्टी के नेतृत्व वाला विदेश मंत्रालय एक ऐसी रणनीति बनाने पर काम कर रहा है जिसमें सभी मंत्रालयों की राय ली जा रही है. अब तक सभी मंत्रालय विदेशी संबंधों में अपना-अपना लक्ष्य साधते आए हैं. चीन पर नई रणनीति के साथ जर्मन सरकार की एक साझा नीति पर काम हो रहा है. इसका असर दूसरे देशों के साथ जर्मनी के संबंधों पर भी दिखेगा.

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यूरोपीय संघ ने तीन साल पहले ही चीन को पार्टनर, प्रतियोगी और व्यवस्थागत प्रतिद्वंद्वी बताया था. जर्मनी का मानना है कि चीन अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चीन के हितों के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रहा है और अंतरराष्ट्रीय कानूनों का हनन कर रहा है. इस सिलसिले में दक्षिण चीनी सागर में चीन के दावों और ताइवान विवाद के उदाहरण दिये जाते हैं. जर्मनी की दुविधा ये है कि वह चीन के विशाल बाजार को नजरअंदाज नहीं कर सकता, दूसरी ओर रूसी अनुभवों को देखते हुए वह निर्भरता के फंदे में नहीं फंसना चाहता है. उद्योग के लिए राजनीति महत्वपूर्ण नहीं है, चीन उसके लिए उत्पादन की सस्ती जगह और 140 करोड़ लोगों का बाजार है.

जर्मनी की इस दुविधा को विदेश व्यापार के इन आंकड़ों में देखा जा सकता है. 2021 में जर्मनी ने चीन को 104 अरब यूरो का माल बेचा तो वहां से 143 अरब यूरो का आयात किया. ये आंकड़ा अमेरिका के लिए 72 अरब यूरो का आयात और 122 अरब यूरो का निर्यात है. रूस को जर्मनी ने 26.5 अरब यूरो का निर्यात किया जबकि रूस से 33 अरब का आयात किया. 2022 में प्रतिबंधों के कारण निर्यात तो आधे से भी कम रह गया है, लेकिन गैस की खरीद के कारण आयात इसी स्तर पर है. इसकी तुलना में जर्मनी और भारत के बीच सिर्फ 28 अरब यूरो का कारोबार रहा. जर्मनी ने भारत को 15 अरब डॉलर का माल भेजा तो भारत से 13 अरब डॉलर का माल खरीदा.

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भारत की ढुलमुल चीन नीति

चीन के साथ समस्या भारत की भी है. एक तो दोनों देश इलाके में वर्चस्व के लिए प्रतिद्वंद्वी हैं तो दूसरी ओर कारोबार के मामले में भारत चीन के करीब भी पहुंचना चाहता है. आंकड़ों को देखें तो भारत उस लक्ष्य से बहुत दूर दिखता है. भारत का विदेश व्यापार 2021 में 854 अरब यूरो का था तो जर्मनी का 2,585 अरब यूरो का. जर्मनी और भारत की अर्थव्यवस्था में बड़ी समानता यह है कि दोनों की अर्थव्यवस्था चीन पर निर्भर है. जर्मनी के आयात में चीन का हिस्सा 8.4 प्रतिशत है तो भारत के आयात में चीन का हिस्सा 15.3 प्रतिशत.

जर्मनी रूस के साथ अनुभवों के कारण चीन के साथ संबंधों पर विचार कर रहा है तो पिछले दो साल से सीमा पर हुई झड़प के कारण भारत और चीन के संबंध खराब हैं. जर्मनी का विदेश मंत्रालय इस समय अपनी चीन नीति को आखिरी रूप देने में लगा है लेकिन भारत की चीन नीति स्पष्ट नहीं. सेना मोर्चे पर एक दूसरे के सामने खड़ी है, विदेश मंत्रालय असमंजस में है, संसद में चीन के साथ संबंधों पर कोई बहस नहीं हो रही है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के आमने सामने होते हैं, फिर भी उनसे सीधे बात नहीं कर रहे हैं और वाणिज्य मंत्रालय बेरोकटोक कारोबार कर रहा है.

कुछ ऐसा ही हाल जर्मनी का भी था. हालांकि उसकी मौजूदा चीन नीति सभी मंत्रालयों के साथ बातचीत कर तैयार की जा रही है ताकि चीन पर जर्मनी के सभी मंत्रालयों के नजरिये में एकरूपता हो. हिंद प्रशांत इलाके में और खासकर ताइवान पर चीन के आक्रामक रवैये को देखते हुए स्थिति कभी भी बदल सकती है. भारत को भी इसके लिए तैयार रहना होगा. विदेश व्यापार में विविधता और किसी एक देश पर निर्भरता को कम करना उसके हित में ही होगा.


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