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गहराता जा रहा है मणिपुर संकट

मणिपुर में काफी समय से तनाव और संघर्ष की स्थिति है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि म्यांमार की सीमा से लगे इस उत्तर पूर्वी भारतीय राज्य में तनाव का माहौल अक्सर हिंसा में बदल जाता है

गहराता जा रहा है मणिपुर संकट
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- डॉ. मार्टिन माकवान

विवाद कितना गंभीर है उसे मैतेई नेताओं की इस मांग से भी जाना जा सकता है कि कुकी आदिवासियों की नागरिकता की स्थिति तय करने के लिए एनआरसी जांच शुरू की जाए। परेशानी के मूल कारण के रूप में विभिन्न हितधारकों द्वारा मेज पर रखे जाने वाले अलग-अलग कारण हैं; तथ्य यह है कि कुकी एसटी सदस्य मैतेई के प्रभुत्व वाली घाटी में जमीन खरीद सकते हैं, लेकिन मैतेई पहाड़ पर जमीन नहीं खरीद सकते।

मणिपुर में काफी समय से तनाव और संघर्ष की स्थिति है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि म्यांमार की सीमा से लगे इस उत्तर पूर्वी भारतीय राज्य में तनाव का माहौल अक्सर हिंसा में बदल जाता है। मणिपुर में हिंसा के मौजूदा दौर की शुरुआत शायद स्वस्फूर्त थी और इसकी जड़ में मैतेई तथा कुकी आदिवासियों के बीच असंतोष और कलह नहीं था। स्पष्ट रूप से भूगोल, अर्थव्यवस्था, जाति और धर्म की रेखाओं से विभाजित इन दो समूहों में कई समस्याओं की वजह से संघर्ष बढ़े हैं। अधिकतर मैतेई हिंदू हैं जो मध्य घाटी के मैदानी इलाकों में रहते हैं जबकि बड़ी संख्या में ईसाई कुकी आदिवासी आसपास की पहाड़ियों में रहते हैं। मैतेई बेहतर स्थिति में हैं, शिक्षित हैं तथा मणिपुर की आधी से अधिक आबादी इस वर्ग की है। ये सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग हैं जो राज्य की अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल होना चाहते हैं। इसकी वजह से मौजूदा संकट पैदा हो गया है। मणिपुर उच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकार से इस मांग पर विचार करने के लिए कहे जाने के बाद यह संकट और बढ़ गया है।

मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के नेतृत्व में भाजपा छह साल से यहां सत्ता में है। बीरेन सिंह सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का पहला वर्ष पूरा कर रही है इसके बावजूद केंद्र या राज्य सरकार ने इस संकट को कम करने के लिए कुछ भी नहीं किया है जो अंतत: पूरे राज्य में फैल जाएगा। यह विवाद संविधान को चुनौती देगा, सरकारों द्वारा पिछड़े वर्गों के उत्थान के प्रयासों की हकीकत को उजागर करेगा और लोकतंत्र की स्थापना के लिए काम करने वालों के प्रयासों को बर्बाद करेगा। ऐसी कठिन परिस्थिति में मणिपुर में शांति की अपील करना ही पर्याप्त नहीं है।

अभी की स्थिति में शांति कोसों दूर है और केवल कलह की गहराई और विश्वास की कमी ही साफ नजर आती है। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि वर्तमान मणिपुर सरकार के दो मंत्रियों और सात भाजपा विधायकों सहित 10 कुकी विधायकों ने एक संवैधानिक उपाय के रूप में पहाड़ियों में एक अलग प्रशासन प्रदान करने के लिए केंद्र सरकार को याचिका दी है। उन्होंने कहा है कि घाटी में अनुसूचित जनजाति का कोई सदस्य नहीं है और पहाड़ी क्षेत्रों में मैतेई का कोई विधायक नहीं हैं। विभाजन स्पष्ट है।

विवाद की गंभीरता को इस बात से महसूस किया जा सकता है कि घाटी में कथित रूप से पोस्टर और बैनर लगाकर यहां रहने वाले लोगों की सामाजिक पहचान उजागर करने की बात कही जा रही है। संविधान में जिस 'बंधुत्व' की बात कही गई है वह मणिपुर की सड़कों पर एक विदेशी अवधारणा नजर आ रही है। डॉ. बीआर आंबेडकर के अनुसार 'बंधुत्व की अनुपस्थिति में समानता और स्वतंत्रता, दोनों का कोई अर्थ नहीं है।'

विवाद कितना गंभीर है उसे मैतेई नेताओं की इस मांग से भी जाना जा सकता है कि कुकी आदिवासियों की नागरिकता की स्थिति तय करने के लिए एनआरसी जांच शुरू की जाए। परेशानी के मूल कारण के रूप में विभिन्न हितधारकों द्वारा मेज पर रखे जाने वाले अलग-अलग कारण हैं; तथ्य यह है कि कुकी एसटी सदस्य मैतेई के प्रभुत्व वाली घाटी में जमीन खरीद सकते हैं, लेकिन मैतेई पहाड़ पर जमीन नहीं खरीद सकते। मैतेई को एक जातीय समूह के रूप में संदर्भित किया गया था लेकिन संविधान के निर्माण के दौरान एसटी सूची में शामिल नहीं किया गया था। मैतेई मणिपुर की 53 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं पर राज्य के केवल 10 फीसदी इलाके में रहते हैं। अन्य मुद्दों में राज्य सरकार द्वारा वन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों को 'अतिक्रमणकारी' कहकर हटाने के कदम शामिल हैं। एसटी कोटा के जरिए आदिवासियों के लिए खोले गए रास्तों ने भी दोनों समूहों के बीच विवाद को बढ़ा दिया है।

संघर्ष के अंतर्निहित कारण स्पष्ट हैं। मैतेई समुदाय के बीच ईर्ष्या का भी एक महत्वपूर्ण कारण है हालांकि एसटी समुदायों की हुई प्रगति को देखते हुए वे बेहतर स्थिति में हैं।

इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी तक खामोश हैं। इससे पता चलता है कि ऐसी स्थितियों में एक राजनीतिक दल के रूप में हिंदुत्व के विचार को बढ़ावा देने में वे दुविधा में हैं। क्या पार्टी और हिंदुत्व की धारणा एक गैर-परक्राम्य सिद्धांत के रूप में भारतीय संविधान के महत्व को मान्यता देती है जिसने आरक्षण की प्रणाली के माध्यम से हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए सार्वजनिक जीवन में कई अवसरों पर प्रतिनिधित्व के लिए एक सुरक्षित स्थान बनाया है? या जाति व्यवस्था द्वारा प्रदान की गई असमानता की स्थिति को बढ़ावा देकर भारतीय संविधान को कमजोर किया जाना चाहिए? निस्संदेह, पहली स्थिति ने पार्टी को समाज सुधारक की एक बड़ी भूमिका के लिए प्रेरित किया है।

1919 में साउथबोरो आयोग के समक्ष डॉ. आंबेडकर ने सभी भारतीय नागरिकों के लिए वयस्क मताधिकार की वकालत करते हुए तर्क दिया था कि प्रतिनिधित्व का अधिकार और सार्वजनिक पद धारण करने का अधिकार नागरिकता का एक अभिन्न अंग है। भारतीय संविधान ने बाद में अपने सभी नागरिकों के लिए वयस्क मताधिकार को वैध बना दिया तथा अनुसूचित वर्गों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की प्रणाली शुरू कर उसका दायरा उच्च शिक्षा, सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों और विधायिकाओं के क्षेत्र तक विस्तारित किया। संविधान ने महिलाओं, ओबीसी और अंत में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण के दायरे में लाया है जो एससी, एसटी और ओबीसी का हिस्सा नहीं हैं।

हालांकि देश में उनकी सामाजिक और राजनीतिक स्थिति बहस का विषय है लेकिन मुख्य प्रश्न यह है- कि क्या आरक्षण के बिना हाशिए पर रहने वाले समुदायों-एससी और एसटी को कभी प्रतिनिधित्व मिलता जो देश में समानता और मानवीय गरिमा प्राप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है?

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के मामलों में आरक्षण ने शैक्षिक और आर्थिक फायदों के अलावा उनके मानवीकरण को भी स्थान दिलाया है। इस वर्ग ने खुद को शिक्षित करने के प्रतिबंध को झेलने के साथ-साथ सदियों से अभाव और अपमान का सामना किया है। अनुसूचित जातियों के लिए सार्वजनिक स्थानों पर घूमने-फिरने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था।

देश ने लंबे समय से दलित और गैर-दलित समुदायों के बीच सामाजिक तनाव देखा है। आरक्षण विरोधी कई दंगे हुए हैं तथा हर साल जातिगत हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं। भारत और उसके सभी राजनीतिक दल अस्पृश्यता और मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने में विफल रहे हैं। अक्सर जातिगत हिंसा की घटनाएं बेतुके आधारों पर निहित होती हैं जैसे दलित मूंछें बढ़ाते हैं या बेहतर कपड़े पहनते हैं।

हिंदुत्व के संरक्षकों ने जमीनी हकीकत को इतना अनदेखा कर दिया है कि गुजरात जैसे राज्य में हिंदू होने के बावजूद 90.2 प्रतिशत गांवों में दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है।

हालांकि जातिगत हिंसा कोई नई घटना नहीं है, लेकिन मणिपुर में आदिवासी समुदाय के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा अस्वीकार्य है। सच्चाई शायद सरल है। शांति की अपील पर्याप्त नहीं है। खतरा यह है कि संविधान के प्रति आस्था की दरारें चौड़ी हो रही हैं। समय की मांग है कि धर्म का सही अर्थ खोजा जाए। एक विभाजनकारी एजेंडा चाहे कितना भी मजबूत क्यों न हो, राष्ट्र को विभाजित करेगा और विभाजन की संस्कृति को बढ़ाएगा।
(लेखक दलित मानवाधिकार संगठन के संस्थापक हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)


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