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लोकसभा सदस्य गीता मुखर्जी ने की थी महिला आरक्षण विधेयक की शुरुआत

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथी ताकतें हमेशा महिला आरक्षण विधेयक के प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध रही हैं

लोकसभा सदस्य गीता मुखर्जी ने की थी महिला आरक्षण विधेयक की शुरुआत
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- बिनॉय विश्वम

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथी ताकतें हमेशा महिला आरक्षण विधेयक के प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध रही हैं और उन्होंने देश में प्रगतिशील महिला आंदोलन के साथ-साथ अपना संघर्ष जारी रखा है। नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन (एनएफआईडब्ल्यू) इस संघर्ष को जनहित याचिका के रूप में 2021 में सुप्रीम कोर्ट तक ले गया। इस महत्वपूर्ण मामले में सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने भी कड़ा रुख अपनाया ।

काफी लंबे इंतजार के बाद महिला आरक्षण बिल संसद से पास हो गया है। जो कोई भी महिला आरक्षण विधेयक को लागू करने के लिए संघर्ष के इतिहास के बारे में जानता है, वह जीत के इस क्षण में कॉमरेड गीता मुखर्जी को याद करेगा। वह अविस्मरणीय कम्युनिस्ट नेता और महिलाओं के अधिकारों के लिए एक सतत सेनानी थीं, जिन्होंने महिला विधेयक को पारित करने को एक जीवन मिशन के रूप में लिया।

वह एक सच्ची कम्युनिस्ट थीं जिनका मानना था कि देश की महिलाओं की मुक्तिके बिना भारतीय क्रांति के कार्य पूरे नहीं हो सकते। संसद और राज्य विधानमंडलों में महिलाओं की तैंतीस प्रतिशत भागीदारी उस दिशा में पहला कदम है। उस पहले कदम को पूरा करने के लिए भी, देश की लोकतांत्रिक ताकतों को दशकों तक लगातार लड़ाई लड़नी पड़ी। विधेयक का पारित होना महिला संगठनों और अन्य लोकतांत्रिक ताकतों के भविष्य के संघर्षों के लिए एक प्रेरणा होगी।

भाजपा सरकार देश में महिला सशक्तिकरण की चैंपियन बनने की कोशिश कर रही है। उनके सभी प्रचार उपाय इसी के अनुरूप हैं और वे प्रचार करते हैं कि नरेंद्र मोदी महिलाओं के अधिकारों के योद्धा हैं। चलाये जा रहे ऐसे प्रचार के विपरीत, सच्चाई यह है कि नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी महिला आरक्षण विधेयक को लागू करने के प्रति बिल्कुल भी ईमानदार नहीं हैं। वे वैचारिक और राजनीतिक तौर पर महिला सशक्तिकरण के पक्ष में नहीं हैं। उनका आरएसएस द्वारा नियंत्रित एक पुरुषवादी संगठन है जिसमें महिलाओं को प्राथमिक सदस्यता से भी वंचित रखा जाता है। उनकी विचारधारा मनुस्मृति द्वारा निर्देशित है, जो 'न स्त्री स्वतंत्रयंअर्हति' (महिलाओं को स्वतंत्र नहीं होना चाहिए) का उपदेश देती हैं। अचानक, उनकी सरकार नारी शक्ति की पैरोकार बन गई और इस विधेयक के साथ उसे ताज पहनाना चाहती थी। चुनावी मजबूरियां भाजपा के अंदर वैचारिक प्रतिबद्धता पर हावी हो रही थीं। अन्यथा, वे इस विधेयक को शुरू करने के लिए 2014 से 2023 तक नौ साल की लंबी अवधि को कैसे उचित ठहरा सकते हैं?

महिला आरक्षण विधेयक की विषयवस्तु को 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा आकार दिया गया था, जिसमें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी महत्वपूर्ण पदों पर थी। तब ओबीसी के लिए आरक्षण को लेकर मतभेद के कारण इसे पारित नहीं किया जा सका था। इस हेतु गीता मुखर्जी के नेतृत्व में एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया। हालांकि इसने रिकॉर्ड समय में अपनी रिपोर्ट पेश की, लेकिन यह कदम आगे नहीं बढ़ सका क्योंकि विधेयक लोकसभा के विघटन के साथ समाप्तअवधि वाला हो गया था।

वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में इस मामले में कोई खास प्रगति नहीं हुई। यूपीए-1, जिसमें वामपंथी दलों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, ने मामले को गंभीरता से लिया और महिला आरक्षण विधेयक को न्यूनतम साझा कार्यक्रम में महत्वपूर्ण स्थान मिला। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली इस सरकार के दौरान, विधेयक 6 मई, 2008 को पेश किया गया था। स्थायी समिति की जांच के बाद, राज्यसभा ने 9 मार्च, 2010 को विधेयक पारित कर दिया। उस समय से, राजनीतिक अनिश्चितताओं के कारण इस विषय में कोई गंभीर विकास नहीं हुआ।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथी ताकतें हमेशा महिला आरक्षण विधेयक के प्रति दृढ़ता से प्रतिबद्ध रही हैं और उन्होंने देश में प्रगतिशील महिला आंदोलन के साथ-साथ अपना संघर्ष जारी रखा है। नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन (एनएफआईडब्ल्यू) इस संघर्ष को जनहित याचिका के रूप में 2021 में सुप्रीम कोर्ट तक ले गया। इस महत्वपूर्ण मामले में सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने भी कड़ा रुख अपनाया और सरकार को आगाह किया कि अगर विधेयक को लागू करने में और देरी की गई तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।

2024 के आने वाले लोक सभी चुनावों के साथ-साथ, विभिन्न कारकों ने भाजपा सरकार को कानून के साथ आगे आने के लिए मजबूर किया। हालांकि महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह एक ऐतिहासिक मोड़ है, लेकिन भाजपा इसके कार्यान्वयन के प्रति बिल्कुल भी ईमानदार नहीं है। आगामी जनगणना और निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के नाम पर, सरकार ने इसके कार्यान्वयन को किसी और समय के लिए विलंबित करने का प्रयास किया है। इसका विरोध किया जाना चाहिए। देश की लोकतांत्रिक ताकतों ने सरकार से आग्रह किया कि महिला आरक्षण विधेयक को मौजूदा लोकसभा के भंग होने के बाद ही अविलंब लागू किया जाये।

पंचायतों और स्थानीय शहरी निकायों में कुल सीटों में से एक तिहाई (33प्रतिशत) में आधी पर ही महिलाओं के लिए आरक्षण के अनुभव ने हमें दिखाया है कि शासन में महिलाओं को आरक्षण देने से कैसे सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं। हमारे राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन के लिए यह लैंगिक-समावेशी राजनीति के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का ईंधन होना चाहिए। वर्तमान अधिनियम का दायरा राज्यसभा, राज्य विधान सभाओं और परिषदों के साथ-साथ सभी केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं तक बढ़ाया जाना चाहिए। कानून बनाने वाली संस्थाओं में ओबीसी और अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण एक सार्थक प्रतिनिधि लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण है।

गीता मुखर्जी समिति की रिपोर्ट में भी इस पहलू का जिक्र किया गया है। भाजपा के मंच प्रबंधक, जो अब इस अधिनियम के बारे में शेखी बघार रहे हैं, ने आज तक कभी भी ऐसे महत्वपूर्ण सवालों पर अपना दिमाग नहीं लगाया है। उनकी एकमात्र चिंता नारी शक्ति के नाम पर सत्ता पर कब्ज़ा करना है। महिलाओं के साथ सत्ता साझा करना और सामाजिक न्याय का सम्मान उनके राजनीतिक और वैचारिक एजेंडे में शामिल नहीं है। उन्हें जनता के सामने बेनकाब किया जाना चाहिए। जीत के इस पहले बिंदु से महिला सशक्तिकरण के संघर्ष को आगे बढ़ाना है। न्याय और मुक्ति के संघर्ष में कम्युनिस्ट महिलाओं और अन्य सभी लोकतांत्रिक ताकतों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेंगे।


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