समय शिला पर कीलित अक्षर
निरंतर परीक्षाएंँ देते हुए और निरंतर उत्तीर्ण होकर आगे बढ़ते जाने की एक सफल जीवन यात्रा को समय स्वयं पल भर ठहर कर पीछे मुड़कर देख रहा है --समय शिला पर ..के रूप में

- शशि खरे
निरंतर परीक्षाएंँ देते हुए और निरंतर उत्तीर्ण होकर आगे बढ़ते जाने की एक सफल जीवन यात्रा को समय स्वयं पल भर ठहर कर पीछे मुड़कर देख रहा है --समय शिला पर ..के रूप में।
हिन्दी के बड़े फैले वर्ग में अत्यंत सुपरिचित सुविख्यात लेखिका ,संपादिका सामाजिक कार्यकर्ता डाक्टर नमिता सिंह ने अपनी जीवन यात्रा के कुछ अंश संस्मरण के तौर पर पुस्तक 'समय शिला पर' में संचित किए हैं। पुस्तक में लेखिका द्वारा अपने समय को पढ़ने के प्रयत्न ने इसे उत्कृष्ट संस्मरणों की विरासत में महत्वपूर्ण कड़ी बना दिया है।
जीवन में निरंतर सार्थक सक्रियता, एक उच्च लक्ष्य की ओर बढ़ती जाती यात्रा का जो शब्द चित्र उकेरा है वह अंतिम अध्याय तक बाँधे रखता है । मात्र 140 पृष्ठ की किताब विषय की दृष्टि से छोटी लगती है। विषय है जीवन यात्रा के संस्मरण। नमिता सिंह जी का प्रथम संकलन 1978 में आया था, उससे भी पहले से उनकी लेखन -यात्रा प्रारंभ हुई जो अनवरत जारी है। गर्ल्स डिग्री कॉलेज अलीगढ़ में रसायन शास्त्र की विभागाध्यक्ष एवं बाद में प्राचार्या का पद संभालते हुए, दस कहानी संकलन, दो बहु चर्चित उपन्यास, समीक्षा-आलोचना की अनेक कृतियाँ , साक्षात्कार, दस वर्षों तक साहित्य की सिरमौर पत्रिका वर्तमान साहित्य का कुशल संपादन किया , अनेक सामाजिक संगठनों में सक्रिय भागीदारी रही है तो जीवन -यात्रा का कैनवास स्वत: ही विराट हो गया। उत्कट अजेय जूझने की शक्ति , त्वरा जीत ही तय कर आगे बढ़ने वाला साहस इस कृति की आत्मा है।
विभिन्न घटनाओं के समय उत्पन्न भावों एवं तत्कालीन प्रभावों , हालातों व परिणामों की कुशल अभिव्यक्ति में इतनी प्रभविष्णुता है कि उपन्यास जैसा प्रवाह और रोचकता अनुभूत होती है। समय शिला पर तेरह संस्मरण -अध्यायों की माला है। पूर्व कथन में नमिता जी अपनी स्मृतियों के लिए लिखती हैं -'इतिहास बनता समय' किन्तु जब पाठक की प्रविष्टि होती है समय वर्तमान -सा जीवन्त मौजूद साँसे लेता हुआ महसूस होता है। उनकी परिपक्व लेखन शैली के कारण जिसमें सहजता सरलता और विचारों का निर्बाध प्रवाह है।
प्रथम संस्मरण का शीर्षक शापित भवन चौंकाता है। प्रपितामह गंगादत्त पंत के द्वारा बनवाए गए देवी भवन की कहानी, चाय बागान की मिल्कियत और शरणागत बुआ के बेटे द्वारा धोखा, उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा अधिग्रहण और लोकप्रिय कवि पंत का स्मारक बनाया जाना सभी कुछ धाराप्रवाह और रोचक है। स्यूनराकोट के गंगादत्त पंत से पहले और सौ साल बाद तक का इतिहास जिसमें हरदत्त पंत के यायावरी जीवन में कश्मीर, अंग्रेज सरकार, अनेक रियासतों में काम, अजमेर, मयूरभंज की यात्रा जैसी अनेक स्मृतियांँ , प्रवीर चन्द्र भंजदेव , निराला, प्रेमचंद, आचार्य चतुरसेन शास्त्री जैसी विख्यात हस्तियों से भेंट का उल्लेख अध्याय को अनुपम बनाता है।
हुड़किया पंडित देवीदत्त पंत कुमांयु के प्रख्यात जननेता सांसद एवं नेहरू की मित्रता को याद करते हुए वे कहती हैं --तब सामाजिक -राजनीतिक परिदृश्य कितने सरल व आत्मीय हुआ करते थे।
आज जमीन आसमान का अंतर है। आज तो पद-कुर्सी की खींचतान केवल नेताओं में नहीं जनता में भी है।
उसी संस्मरण में आगे लिखती हैं -बाबा देवीदत्त पंत का सांसद रहते हुए निधन हुआ था। परिवार संकट में आ गया था। जमा-पूंजी तो कभी रही नहीं। एक बार लखनऊ आने पर हमारे घर आये बड़े भाई से मिलने। थोड़ा दुखी और चिंतित थे।'
यह वर्णन वास्तव में सनद के रूप में अंकित हो गया है क्योंकि आज कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई सांसद अभाव में होगा, अपने बच्चों के लिए चिंतित होगा और उसके पास कुछ भी पैसा नही होगा ।
देवीदत्त पंत जैसे व्यक्तित्व असंभव -से लगते हैं। राजनीति में इतने बड़े लोगों ( नेहरू और देवीदत्त पंत)
की स्वार्थ रहित निश्छल मित्रता भी सपने जैसी प्रतीत होती है।
कोमल सौम्य पंत जी और लोकायन- पंत जी के कृतित्व के बारे में बहुत लिखा गया है एवं आज भी जारी है किन्तु नमिता जी ने उनका पारिवारिक चित्र खींचा है। सुमित्रानंदन पंत जी विश्व मैत्री और व्यापक लोक चेतना की सांस्कृतिक संस्था लोकायन स्थापित करना चाहते थे। लोकायन के लिए पंत जी के पास विचार थे , इच्छा थी और एक स्वप्न था। किन्तु उनके समग्र व्यक्तित्व को देखते हुए वह संगठनकर्ता या गुटबाज या बैठकबाज हो भी नहीं सकते थे। घर या परिवार के बीच भी कभी किसी ने उनको जोर से बोलते हुए या नाराज होते हुए भी नहीं देखा।'
लोकायन संस्कृति पीठ इतने बड़े-बड़े नामों --कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी , यशपाल, राधाकमल मुखर्जी, कर्मयोगी कवि गिरीशचंद्र पंत के प्रयास और अच्छे आरंभ के बावजूद अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका --क्या यह हम भारतीयों की चरित्रगत कमजोरी है कि किताबी आदर्शों को मात्र किताबों के लिए ही मानते हैं और वास्तविकता में उतारना असंभव मानते हैं । वरना सामान्य उथले आयोजन भी
सफल हो जाते हैं।
पंत जी ने बाद में लोकायन की परिकल्पना को लोकायतन में पुस्तक रूप में ही साकार किया।
पंत जी का साम्यवादी विचारधारा से विश्वास हटने की चर्चा करते हुए वे लिखती हैं --
हर स्तर पर प्रोपेगंडा चल रहा था कम्युनिस्ट सरकारों को बर्बर और निरंकुश तानाशाह साबित करने के लिए ।'
किन्तु उस समय भारत में रशियन कल्चर, और भाषा का पठन पाठन का खूब प्रयास कम्युनिस्ट सरकार कर रही थी। जाने कितना धन खर्च किया होगा अपनी खुशहाल और सांस्कृतिक छवि बनाए रखने में, तभी तो छोटे-छोटे जिलों, कस्बों तक सोवियत भूमि, सोवियत नारी जैसी पत्रिकाएंँ चिकने खूबसूरत कीमती कागज वाली घर घर पहुँच पाती थीं। समय शिला पर 'अपने वक्त के राजनीतिक एवं समाजशास्त्रीय वैचारिक आग्रहों के समानांतर निजी जीवन की गत्यात्मकता , तत्कालीन समय की संस्कृति, तत्कालीन समय की विषमताओं और अंतर्द्वंदों के साथ निरंतर आगे बढ़ता है।
अपने समय के व्यक्तिगत तौर पर परिचित विशिष्ट लोगों के साहित्यकारों के संस्मरण लिखना अपने समय को दज़र् करना होता है एवं यह एक महत्वपूर्ण योगदान होता है जिस रूप में चाहें।
संस्मरण और वह भी विशिष्ट कलम से विशिष्ट विख्यात लोगों के साथ का तो उसके प्रति उत्सुकता कई गुना अधिक होती ही है। नमिता जी याद करती हैं -एक दिन घर पर उन्होंने (पिता जी ने )एक सज्जन को अपने चाचा (पंत जी) के साथ देखा। घुटा हुआ सिर , एक गंभीर मुद्रा । उनके विशाल नेत्र रह -रह कर चमक उठते और बातचीत के ढंग में भी विशेष आकर्षण था। उनके जाने के बाद बताया गया कि यही हैं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला।
नमिता जी अपने बाबूजी को स्नेहसिक्त सम्मान से याद करती हैं --मेरे पिता गिरीशचंद्र पंत युवा कवि के रूप में पहचान बना रहे थे। निराला जी को अपना गुरु बनाया था और उनके प्रिय शिष्य भी थे। सूधा, चाँद, संगम विशाल भारत, माधुरी, सरस्वती में निरंतर छपते रहते थे।
सुमित्रानंदन पंत जी की घरेलू छवि ऐसी अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती जो नमिता जी की स्मृतियों में है-- वे अविवाहित रहे लेकिन उनके भीतर एक घरेलू व्यक्ति भी था जिसे अपने आसपास और घर खानदान की सबकी चिंता रहती थी। अपने पूरे बौद्धिक रूप और प्रतिष्ठित कवि रूप से अलग वे किसी स्तर पर नितान्त घरेलू भी नजर आते थे।
उनकी विचारशीलता में कोमलता थी, सौम्यता थी। टकराव और अराजकता से अलग वे शान्ति की सदभाव की कामना करते थे,चाहे सामाजिक स्तर पर हो या वैश्विक हो सब सुखी हों -आनंदमय हों । उनकी हमेशा यही कामना थी। आगे के अध्यायों में -- जिन मुख निकसत नाहीं , जनाना पार्क, एक तहजीब का नाम है अलीगढ़, खाल तुम्हारी हाड़ हमारा , गुरुकुल, नयी कर्मभूमि ---लेखिका फ्लैशबैक में चलती रील में पूरी तरह समाधिस्थ दिखाई देती हैं।
समय शिला पर टंकित किए जा चुके उन क्षणों में डूबना ऐसा है कि साथ-साथ पाठक भी उन्हीं पलों को जीने लगता है। विगत जीवन को एक बार फिर जी लेने की असंभव इच्छा सभी की होती है।
नमिता जी ने संस्मरण के माध्यम से भावपूर्ण, ईमानदार यथास्थिति अपनी प्रतिक्रियाओं को, रिश्तों को, प्रतिभाओं को आसपास मिलने वालों और दैनंदिन विभिन्न संदर्भों को सौम्यता , स्पष्टता , साहस , सद्भावना और भरपूर प्रेम के साथ अभिव्यक्त किया है। उनकी कलम से जीवन सापेक्ष स्वर
मुखरित हुए हैं।
संपूर्ण अध्यायों में बौद्धिक, स्वस्थ व आस्थामूलक दृष्टिकोण अपनाया है। साथ में सहज व्यंजनामयी भावों का संवेदनाओं का सटीक निर्वहन करने वाली परिनिष्ठित भाषा एवं स्थानिक शब्द- प्रयोगों का विविध पक्षीय सौंदर्य भी प्रभावित करने वाला है।
एक उत्कृष्ट संस्मरण में लेखक स्वयं भी एक पात्र बन जाता है और निष्पक्ष निर्लिप्त भाव से सारे दृश्यों को देखता है जो घटित हुए हैं। नमिता जी ने भी स्वयं की इन्द्रिय संवेदनाओं और सुखानुभूतियों को कम एवं बेहद संयमित स्थान दिया है। केवल एक अध्याय आपातकाल और जनवादी लेखक संघ में अपनी अतिसक्रिय व्यस्त जिंदगी में नन्हें बच्चों को कैसे संँभाला इसका जिक्र है -- 'बच्चों को आयोजनों में साथ ले जाने का हमारा यह सिलसिला हमेशा साथ बना रहा जब तक वे बड़े होकर अकेले रहने लायक नहीं हो गये। मीटिंगों में बैठे रहना, आपस में खेलते रहना, वहीं दरी पर लुढ़क कर सो जाना... उन्हें खासा अभ्यास हो चला था।'
ये संस्मरण अलीगढ़ शहर के मिजाज से वहांँ का ताला उद्योग, मजदूर संगठन की गतिविधियाँ , राजनीति में वर्गीय चेतना व जातीय अस्मिता का उपयोग से भी परिचित करवाते हैं।
'कर्मभूमि' में दलित समाज महिला संगठन, युवा संगठन भारत ज्ञान विज्ञान समिति आदि अनेक गैर सरकारी संस्थाओं की गतिविधियों को संचालित करने की अविस्मरणीय बातें हैं कुछ रोचक यादें हैं जहांँ उनकी चर्चा को सत्संग समझ बैठी ग्रामीण मासूम महिलाएँ। ये संस्मरण तत्कालीन समाज के वातावरण के यथातथ्य रूपांकन हैं। राजनीतिक परिदृश्य एवं सामाजिक विसंगतियों का विशद चित्रण है।
विभिन्न सामाजिक स्तर पर जनता की , विभिन्न संगठनों की, दलों की कार्यप्रणालियों की सच्चाई है।
जीवन की निर्धारित दिशा व लक्ष्य की ओर निर्बाध रूप से आगे बढ़ने में नमिता जी को प्रो.कुंवरपाल जी का आदर्श साथ मिला । 'प्रो. कुंवरपाल जी राजनीतिक, सामाजिक रूप से शिक्षण और प्रशासनिक स्तर पर यूनिवर्सिटी बिरादरी का हिस्सा थे और शहर की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में भी संलग्न रहते थे ।' अलीगढ़ के लोग उन्हें कठपुला की संज्ञा देते थे । नमिता जी की कलम से
उनका मन वचन कर्म से एक ही होने का अद्भुत गुण ,उनकी कर्मठता, उदारता, और केवल लेखन में ही नहीं व्यावहारिक रूप में भी सुधार व सेवा कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाने का गुण उभर कर सामने आया है और पाठक के मन में उनके लिए सम्मानजनक स्थान बनाता है।
खाल तुम्हारी हाड़ हमारा अध्याय में उनका आजीवन कर्मरत , संघर्षरत रहने के स्वभाव का परिचय मिलता है , वे लिखती हैं -'किसी काम से पैर पीछे खींच लेना कुंवरपाल के स्वभाव में नहीं था।'
प्रो कुंवरपाल सिंह जी का पूरा जीवन जातिवाद और सांप्रदायिकता से संघर्ष में बीता , निस्संदेह वे सोचते होंगे --जैसी हमने पाई दुनिया आओ इससे बेहतर छोड़े ।'
इन धाराप्रवाह अध्यायों में अनेक बार बड़े मूल्यधर्मी सूत्र आये हैं जिन्हें बरबस रेखांकित करने की इच्छा होती है --'साहित्य कर्मी कब तक रेत में मुँह धंसाए इंतजार करते?यह साहित्य का धर्म नहीं है।'
आपातकाल और जनवादी लेखक संघ तो एक उत्कृष्ट संस्मरण लेख है। 1975 से बीस पच्चीस वर्षों का समय यहाँ आत्मनिरीक्षण, उन? स्थितियों का परीक्षण व आत्मस्वीकृति करता हुआ उपस्थित है -- ताकि सनद रहे -- इस दौरान कितनी पुरानी आस्थायें , टूटीं नये राजनीतिक समीकरण बने , तत्कालीन इतिहास में नये सबक जुड़े और दूरगामी प्रभाव हुए । आपातकालीन और जनवादी लेखक संघ अध्याय में सातवें -आठवें दशक का समय निष्पक्ष भाव से दर्ज है।
वे लिखती हैं -कम्यूनिस्ट पार्टी आफ इंडिया ने आपात काल का भी समर्थन किया था। प्रगतिशील लेखक संघ ने भी इस नीति का अनुसरण किया। आपातकाल लोकतांत्रिक व्यवस्था पर एक हमला था और राष्ट्र का एक काला अध्याय।
प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े साहित्यकार संस्कृतिकर्मी इंदिरा जी का गुणगान कर रहे थे। वहीं विरोधी लेखक कलाकार , विरोधी दलों के नेता , सामाजिक कार्यकर्ता पत्रकार, छात्र संगठनों के नेता जेलों में डाले जा रहे थे । प्रताड़ित किए जा रहे थे।'
सातवें -आठवें दशक की साहित्यिक रचनात्मकता का दृश्य खींचते हुए उन्होंने लिखा है -यह दशक बेहद सक्रिय और सचेत रहा किन्तु व्यापारी घरानों के संस्थानों से निकलने वाले पत्र और साहित्यिक पत्रिकाएंँ व्यापारमुखी होकर बंद होने लगीं तो देश के कोने-कोने से छोटी पत्रिकाओं ने मोर्चा संभाला।
सीमित साधनों से निकलने वाली और सीमित क्षेत्रों में प्रसारित होने वाली ये लघु-पत्रिकाएँ सामाजिक राजनीतिक जागरूकता की संवाहक थीं। सभी कुछ न कुछ करने के लिए मानों बेचैन थे ।'
उस वक्त की मानसिकता, वह वातावरण, वह जद्दोजहद, भय के माहौल में भी निर्भय, निडर गतिविधियाँ , साहित्यिक, सामाजिक जागरण के लिए , राष्ट्र की चेतना के लिए अद्भुत अत्यंत सराहनीय थी और यह सब इतिहास की किसी किताब में ऐसी जीवटता से नहीं मिलेगा जो इस संस्मरण में है।
वर्तमान साहित्य पत्रिका की यात्रा छोटी शुरुआत और अथक प्रयासों से मिलने वाले बड़े लक्ष्य को पाने का इतिहास है। प्रो. कुंवरपाल जी एवं नमिता जी का संयुक्त जुझारू उद्यम वर्तमान साहित्य की सफलता के लिए अत्यंत सराहनीय है।
इन स्मृतियों में आत्ममुग्धता नहीं है और न ही 'स्व' विसर्जित किया गया है। आत्मसजगता के साथ सम्मान किया गया है। ये वास्तव में वे सम्यक स्मृतियांँ हैं जो जीवन के विभिन्न चरणों से गुजरी हैं जिन्हें पढ़कर कुछ पँक्तियाँ याद आती हैं -
'मैंने सुना है कि तुम सब आज भी
ख्वाब देखते हो,
आज भी अफसाने लिखते हो,
जी भर कर गाते हो
इंसान जिंदा है कि मर रहा
आज भी तुम्हारी फ़िक्र है।।।
पुस्तक बहुत छोटी है विषय के हिसाब से इसके सिवा ढूंँढने पर भी कोई कमी नहीं मिली।


