आलस्य-भक्त
निद्रा का सुख समाधि-सुख से भी अधिक है, किंतु लोग उस सुख को अनुभूत करने में बाधा डाला करते हैं

- बाबू गुलाबराय
निद्रा का सुख समाधि-सुख से भी अधिक है, किंतु लोग उस सुख को अनुभूत करने में बाधा डाला करते हैं। कहते हैं कि सवेरे उठा करो, क्योंकि चिड़ियाँ और जानवर सवेरे उठते हैं; किंतु यह नहीं जानते कि वे तो जानवर हैं और हम मनुष्य हैं। क्या हमारी इतनी भी विशेषता नहीं कि हम सुख की नींद सो सकें। कहाँ शय्या का स्वर्गीय सुख और कहाँ बाहर की धूप और हवा का असह्य कष्ट! इस बात के ऊपर निर्दयी जगाने वाले तनिक भी ध्यान नहीं देते! यदि उनके भाग्य में सोना नहीं लिखा है, तो क्या सब मनुष्यों का एक सा ही भाग्य है! सोने के लिए तो लोग तरसा करते हैं और सहस्रों रुपया डॉक्टरों और दवाइयों में व्यय कर डालते हैं और यह अवैतनिक उपदेशक लोग स्वाभाविक निद्रा को आलस्य और दरिद्रता की निशानी बतलाते हैं।
अजगर करै न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ।।
प्रिय ठलुआ-वृंद ! यद्यपि हमारी सभा समता के पहियों पर चल रही है और देवताओं की भाँति हमसे कोई छोटा-बड़ा नहीं है, तथापि लोगों ने मुझे इस सभा का पति बनाकर मेरे कुँआरेपन के कलंक को दूर किया है। नृपति और सेनापति होना मेरे स्वप्न से भी बाहर था। नृपति नहीं तो नारी-पति होना प्रत्येक मनुष्य की पहुँच के भीतर है, किंतु मुझ जैसे आलस्य-भक्त के लिए विवाह में पाणिग्रहण तक का तो भार सहन करना गम्य था। उसके आगे सात बार अग्नि की परिक्रमा करना जान पर खेलने से कम न था। जान पर खेलकर जान का जंजाल खरीदना मूर्खता ही है—'अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन् विचारमूढ: प्रतिभासि मेत्वम्' का कथन मेरे ऊपर लागू हो जाता। 'ब्याहा भला कि क्वाँरा' वाली समस्या ने मुझे अनेकों रात्रि निद्रादेवी के आलिंगन से वंचित रखा था, किंतु जब से मुझे सभापतित्व का पद प्राप्त हुआ है, तब से यह समस्या हल हो गई है। आलसी के लिए इतना ही आराम बहुत है।
वैसे तो आलसी के लिए इतने वर्णन का भी कष्ट उठाना उसके धर्म के विरुद्ध है, किंतु आलस्य के सिद्धांतों को प्रचार किए बिना संसार की विशेष हानि होगी. मनुष्य-शरीर आलस्य के लिए ही बना है। यदि ऐसा न होता, तो मानव-शिशु भी जन्म से मृग-शावक की भाँति छलाँगें मारने लगता, किंतु प्रकृति की शिक्षा को कौन मानता है। मनुष्य ही को ईश्वर ने पूर्ण आराम के लिए बनाया है। उसी की पीठ खाट के उपयुक्त चौड़ी बनाई है, जो ठीक उसी से मिल जावे। प्राय: अन्य सब जीवधारी पेट के बल आराम करते हैं। मनुष्य चाहे तो पेट की सीमा से भी अधिक भोजन कर ले, उसके आराम के अर्थ पीठ मौजूद है। ईश्वर ने तो हमारे आराम की पहले ही से व्यवस्था कर दी है। हम ही उसका पूर्ण उपयोग नहीं कर रहे हैं।
निद्रा का सुख समाधि-सुख से भी अधिक है, किंतु लोग उस सुख को अनुभूत करने में बाधा डाला करते हैं। कहते हैं कि सवेरे उठा करो, क्योंकि चिड़ियाँ और जानवर सवेरे उठते हैं; किंतु यह नहीं जानते कि वे तो जानवर हैं और हम मनुष्य हैं। क्या हमारी इतनी भी विशेषता नहीं कि हम सुख की नींद सो सकें। कहाँ शय्या का स्वर्गीय सुख और कहाँ बाहर की धूप और हवा का असह्य कष्ट! इस बात के ऊपर निर्दयी जगाने वाले तनिक भी ध्यान नहीं देते! यदि उनके भाग्य में सोना नहीं लिखा है, तो क्या सब मनुष्यों का एक सा ही भाग्य है! सोने के लिए तो लोग तरसा करते हैं और सहस्रों रुपया डॉक्टरों और दवाइयों में व्यय कर डालते हैं और यह अवैतनिक उपदेशक लोग स्वाभाविक निद्रा को आलस्य और दरिद्रता की निशानी बतलाते हैं।
ठीक ही कहा है—'आए नाग न पूजिए वामी पूजन जाएँ।' लोग यह समझते हैं कि हम आलसियों से संसार का कुछ भी उपकार नहीं होता। मैं यह कहता हूँ कि यदि मनुष्य में आलस्य न होता, तो वह कदापि उन्नति न करता और जानवरों की भाँति संसार में वृक्षों के तले अपना जीवन व्यतीत न करता। आलस्य के ही कारण मनुष्य को गाड़ियों की आवश्यकता पड़ी। यदि गाड़ियाँ न बनतीं, तो आजकल वाष्पयान और वायुयान का भी नाम न होता। आलस्य के ही कारण मनुष्य को तार और टेलीफोन का आविष्कार करने की आवश्यकता हुई। अँगरेजी में एक उक्ति ऐसी है कि 'नेसेसिटी इज द मदर ऑफ इन्वेंशन' अर्थात् आवश्यकता आविष्कार की जननी है, किंतु वे लोग यह नहीं जानते कि आवश्यकता आलस्य की आत्मजा है।
आलस्य में ही आवश्यकताओं का उदय होता है। यदि स्वयं जाकर अपने मित्रों से बातचीत कर आवें, तो टेलीफोन की क्या आवश्यकता थी? यदि मनुष्य हाथ से काम करने का आलस्य न करता, तो मशीनों को भला कौन पूछता? यदि हम आलसी लोगों के हृदय की आंतरिक इच्छा का मारकोनी साहब को पता चल गया तो शीघ्र ही एक ऐसे यंत्र का आविष्कार हो जावेगा, जिसके द्वारा हमारे विचार पत्र पर स्वत: अंकित हो जाया करेंगे। फिर हम लोग बोलने के कष्ट से भी बच जाएँगे। विचार की तरंगों को तो वैज्ञानिक लोगों ने सिद्ध कर ही दिया है। अब कागज पर उनका प्रभाव डालना रह गया। दुनिया के बड़े-बड़े आविष्कार आलस्य और ठलुआ-पंथी में ही हुए हैं। वॉट साहब ने (जिन्होंने वाष्प-शक्ति का आविष्कार किया है।) अपने ज्ञान को एक ठलुआ बालक की स्थिति से ही प्राप्त किया था। न्यूटन ने भी अपना गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत बेकारी में ही पाया था। दुनिया में बहुत बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ उन्हीं लोगों ने की हैं, जिन्होंने चारपाई पर पड़े-पड़े ही अपने जीवन का लक्ष्य पूर्ण किया। अस्तु, संसार को लाभ हो या हानि, इससे हमको प्रयोजन ही क्या? सुख का पूरा-पूरा आदर्श वेदांत में बतलाया है। उस सुख के आदर्श में पलक मारने का भी कष्ट उठाना महान् पाप है, अष्टावक्र-गीता में कहा है—
व्यापारे खिद्यते यस्तु निमेषोन्मेषयोरपि;
तस्यालस्यधुरीणस्य सुखं नान्यस्य कस्यचित्।
(षोड्श प्रकरण, श्लोक 4)
अर्थात् जो पुरुष नेत्रों के खोलने-मूँदने में भी परिश्रम मानकर दु:खित होता है, उस परम आलसी एवं ऐसे निष्क्रिय पुरुष को ही परम सुख मिला है, अन्य किसी को नहीं।
लोग कहते हैं कि ऐसे ही आलस्य के सिद्धांतों ने भारतवर्ष का नाश कर दिया है। परंतु वे यह नहीं जानते कि भारतवर्ष का नाश इसलिए नहीं हुआ कि वे आलसी हैं, वरन् इसलिए कि अन्य देशों में इस आलस्य के स्वर्ण-सिद्धांत का प्रचार नहीं हो पाया है। बेचारे अर्जुन ने ठीक ही कहा था कि युद्ध द्वारा रक्त-रंजित राज्य को प्राप्त करके मैं अश्रेय का भागी बनना नहीं चाहता। वह वास्तव में आराम से घर बैठना चाहता था। किंतु वह भी कृष्णजी के बढ़ावे में आ गए और 'यशोलभस्व' के आगे उनकी कुछ भी न चल सकी। फिर फल क्या हुआ कि सारे वंश का नाश हो गया। इस युद्ध का कृष्ण भगवान् को अच्छा फल मिल गया। उनका वंश भी पहले की लड़ाई में नष्ट हो गया।
महाभारत में कहा है—
'दु:खादुद्विजते सर्व: सुखं सर्वस्य चेप्सितम्।'
अर्थात् दु:ख से सब लोग भागते हैं एवं सुख को लोग चाहते हैं। हम भी इसी स्वाभाविक नियम का पालन करते हैं। उद्योग करके सुख प्राप्त किया, तो वह किस काम का? आलसी जीवन के लिए सबसे अच्छा स्थान तो सफाखाने की चारपाई है। एक बार मेरा विचार हुआ था कि किसी बहाने से युद्धक्षेत्र में पहुँच जाऊँ तथा वहाँ पर थोड़ी-बहुत चोट खाकर सफाखाने के किसी पलंग में स्थान मिल जाए किंतु लड़ाई के मैदान तक जाने का कष्ट कौन उठाए और बिना गए तो उन पलंगों का उपभोग करना इतना ही दुर्लभ है, जितना पापी के लिए स्वर्ग।
भाग्यवश मुझे एक समय ऑपरेशन कराने की आवश्यकता पड़ गई और थोड़े दिनों के लिए बिना युद्धक्षेत्र गए ही मेरा मनोरथ सिद्ध हो गया; किंतु पुण्य क्षीण होने पर सफाखाना छोड़ना पड़ा। मैं बहुत चाहता था कि मुझे जल्दी आराम न हो, किंतु डॉक्टर लोग मारने वाले जीव थोड़े ही हैं; अति शीघ्र मुझे विदा कर दिया, मानो मेरे आराम से स्पर्धा होती थी। बैकुंठ को लोग क्यों चाहते हैं, क्योंकि वहाँ आलस्य धर्म का पूर्णतया पालन हो सकता है। वहाँ किसी बात का कष्ट ही नहीं उठाना पड़ता। कामधेनु और कल्पवृक्ष को ईश्वर ने हमारे ही निमित्त निर्माण किया है। आजकल कलियुग में और भी सुभीता हो गया है। कल्पवृक्ष बिजली के बटन के रूप में महीतल पर अवतरित हो गया है। बटन दबाइए, पंखा चलने लगेगा, झाड़ू भी लग जावेगी, यहाँ तक कि पका-पकाया भोजन भी तैयार होकर हाजिर हो जावेगा। बिना परिश्रम के चौथी-पाँचवीं मंजिल पर लिफ्ट द्वारा पहुँच जाते हैं। इन्हीं सब आलस्य की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए संसार में उन्नति का क्रम चला है; और उन्नति में गौरव मानने वाले लोगों को हम आलसियों का अनुगृहीत होना चाहिए।
उपर्युक्त व्यवस्था से प्रकट हो गया कि आलस्य का इस संसार में इतना महत्त्व है। अब मैं आप महानुभावों के शिक्षार्थ एक आदर्श आलस्याचार्य का वर्णन कर, अपने वक्तव्य को समाप्त करूँगा।
कहा जाता है कि एक बड़े भारी आलसी थे। वह जहाँ तक होता था, हाथ क्या, अपनी उँगली को भी कष्ट नहीं देना चाहते थे। उनके मित्रवर्ग ने उनसे तंग आकर सोचा कि इनको जीवित ही कब्र की शांतिमयी निद्रा का सुख प्राप्त करा दें। इस इरादे से वह उनको चारपाई पर रख ले चले। रास्ते में एक धनाढ्य अमेरिकन महिला मिली। उसने जब यह शव-सा जाता हुआ मनुष्य देखा, तो उसका कुतूहल बहुत बढ़ा और उसने शय्या-वाहक से सब वृत्तांत पूछा। उस दयामयी स्त्री ने हमारे चरित्र-नायक से कहा कि आप मेरे यहाँ चलने की कृपा कीजिए। मैं आपको बिना कष्ट के ही भोजनादि से संतुष्ट करती रहूँगी। हमारे आलस्याचार्य ने पूछा कि आप मुझे भोजन में क्या-क्या देवेंगी?उस महिला ने बहुत से पदार्थों का नाम लिया, उनमें उबले हुए आलू भी थे। इस पर उन्होंने कहा कि आलुओं को छीलेगा कौन? (लंच में कभी-कभी वे छिले ही आलू देते हैं) इस पर उस स्त्री को बहुत झुँझलाहट आई। हमारे आलस्याचार्य ने कहा कि मैं तो पहले ही से जानता था कि आप मेरी सहायता न कर सकेंगी और आपने वृथा मेरा समय नष्ट किया, नहीं तो मैं अभी तक आर्यन आनंद-भवन में प्रवेश कर चुका होता। इतना कहकर उन्होंने शय्या-वाहकों को आगे चलने की आज्ञा दी।
इस आदर्श को मूर्खता न समझिए। भेद केवल इतना ही है कि इस प्रकार के जीवन को दार्शनिक रूप नहीं दिया गया है। इसलिए आप लोग जो इस सभा के सदस्य हैं, मेरे सिद्धांतों से सहमत हो निम्नलिखित प्रस्तावों को स्वीकार करें—
-
यह सभा प्रस्ताव करती है कि भारत-सरकार के कानून-विभाग से यह प्रार्थना की जावे कि ताजीरात-हिंद में एक धारा बढ़ाकर दिन-रात में दस घंटों से कम सोना दंडनीय बनाया जावे।
-
जो लोग ताश खेलना नहीं जानते हैं अथवा जो लोग तंबाकू न पीते हों, उन लोगों पर आमदनी के 5 रुपया प्रतिशत के हिसाब से कर लगाने की प्रार्थना की जावे। इससे सरकार की आमदनी बढ़ेगी।
-
जो लोग इस सभा में रुपया-पैसा कमाने या और कोई उपयोगी बात जिसकी कीमत आने-पाइयों में हो सकती है, कहेंगे, वे इस सभा से बहिष्कृत कर दिए जावेंगे।
-
अमेरिका और इंग्लैंड की मोटर-कंपनियों से निवेदन किया जावे कि भविष्य में जो मोटरें बनवाई जावें, वे ऐसी हों कि उनमें पैर पसारकर लेटे हुए सफर कर सकें। इसके अतिरिक्त ऐसी छोटी-छोटी मोटर-मशीनें तैयार करवाई जावें कि वे हमारी चारपाइयों में लगाई जा सकें और बटन दबाने से हमारी चारपाई एक स्थान से दूसरे स्थान तक जा सके। उड़नखटोला के स्थान में मोटर-पलंगों की आयोजना संसार की उन्नति के लिए परमावश्यक है।
-
सरकार से यह प्रार्थना की जावे कि संसार में सबसे बड़े शांति-स्थापनाकर्ता को जो नोबेल प्राइज मिलता है, वह सबसे बड़े आलसी को दिया जावे! क्योंकि आलसियों के बराबर संसार में दूसरा कोई भी शांति-स्थापनाकर्ता हो ही नहीं सकता। यदि वह इनाम काम करनेवाले शक्तिशाली पुरुष को दिया जावेगा, तो वह कैंसर की भाँति संसार में युद्ध की ज्वाला को प्रचंड कर पुरस्कार-दाता की आत्मा को दु:ख देगा।


