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ललित जी और हरसिंगार के फूल

ललित जी और हरसिंगार के फूलसाल 2020 में जब ललित जी अपनी जिजीविषा और रचनात्मक साहस के साथ स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे तब 2 दिसम्बर की शाम अचानक यह ख़बर आई कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे

ललित जी और हरसिंगार के फूल
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- प्रदीप पाटिल

ललित जी और हरसिंगार के फूलसाल 2020 में जब ललित जी अपनी जिजीविषा और रचनात्मक साहस के साथ स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे तब 2 दिसम्बर की शाम अचानक यह ख़बर आई कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे । इस अकल्पनीय, अप्रत्याशित सूचना से मन बेहद व्यथित हो उठा और ललित जी से बात-मुलाकात की अनगिनत यादें स्मृति पटल पर कौंध गई।

लगभग 40 वर्ष पूर्व जब मेरे भीतर अख़बार और साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने की समझ विकसित हुई तब मैंने पाया कि दूसरे अखबारों की तुलना में देशबन्धु एक विशिष्ट अखबार है जिसमें केवल सूचना और समाचार ही नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक और वैज्ञानिक दर्शन पर विचार भी प्रमुखता से व्यक्त होते हैं।

देशबन्धु में अस्सी और नब्बे के दशक में 'पूछिये परसाई से' एक लोकप्रिय स्तम्भ हुआ करता था जिसमें सुप्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई सामान्य पाठकों के प्रश्नों का उत्तर दिया करते थे। उसी के समानांतर एक स्तम्भ 'धूप-छाँह के दिन' भी प्रकाशित होता था जिसमें देशबन्धु के संस्थापक-संपादक मायाराम जी अपने जीवन के संघर्षों को संस्मरण में ढाला करते थे। वे संस्मरण इतने रोचक और सजीव होते कि लगता था, वे हमारे जीवन की ही व्यथा-कथा कह रहे हों। इन संस्मरणों में आम आदमी की वेदना, संवेदना, दर्द और आंसू को मार्मिक अभिव्यक्ति दिखाई देती है। उन संस्मरणों में दिलचस्पी के पीछे एक बड़ा कारण यह भी था कि वे निराशा के क्षणों में भी उम्मीद और जिजीविषा का दामन थामे रखने का हमें हौसला भी देते हैं। अपने पिता और उनके अनन्य मित्र परसाई जी से नियमित लिखवाने का विचार और आग्रह ललित जी का ही था।

श्री ललित सुरजन ने देशबन्धु की इस वैचारिक धरोहर तथा जनोन्मुखी प्रतिबद्धता को और भी समृद्ध किया उसे एक नयी धार और स्पष्टता दी। आमतौर पर यह माना जाता है कि अखबारी लेखन क्षणजीवी या अल्पजीवी होता है लेकिन ललित जी के समग्र लेखन और विमर्श में संसदीय-लोकतंत्र, संवैधानिक मूल्यों का संरक्षण, शिक्षा-स्वास्थ्य,रोजगार, आर्थिक-सामाजिक बेहतरी के सवाल इत्यादि पर जो सरोकार और चिंताए दिखाई पड़ती हैं वे उन्हें सामयिकता और क्षणभंगुरता से ऊपर उठाती हैं,उन्हें सर्वकालिक बनाती हैं।

साल 2016 में एक दिन अचानक दफ़्तर में मेरे कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने नज़र उठाकर देखा तो सामने ललित जी खड़े थे। मैंने उनसे कहा- सर, आपका स्वागत है, प्लीज़ अंदर आइये। मेरे अनुरोध पर वे अंदर आये और चिर-परिचित अंदाज में मुस्कुराकर कहा- कैसे हैं आप? जब मैंने उन्हें बताया कि यह उनसे मेरी पहली मुलाकात होने के बावजूद मैं उन्हें देशबन्धु और अक्षरपर्व इत्यादि में उनके लेखन की वजह से पहले से ही जानता हूं, तो उन्होंने तुरंत विषयांतर करते हुए पूछा- आपकी अभिरुचियां क्या हैं? यह उनकी व्यवहार कुशलता और वाकपटुता का उत्तम उदाहरण है जिससे यह सीखा जा सकता है कि कैसे किसी से अपनी प्रशंसा किये जाने पर सामने वाले व्यक्ति को खुद अपने बारे में कहने-बताने के लिए प्रोत्साहित किया जाये।

बहरहाल,उन्हें जब बाद में यह मालूम हुआ कि पठन-पाठन के साथ लेखन में भी मेरी गहरी रुचि है तो उन्होंने मेरे सामाजिक, सांस्कृतिक और बैंकिंग के सम-सामयिक लेखों को पढ़ने में उत्सुकता दिखाई और उनका ध्यानपूर्वक अवलोकन कर उन्हें पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाने का सुझाव दिया। ललित जी जैसे बड़े पत्रकार और लेखक का यह सुझाव मेरे लिए अत्यंत उत्साहवर्धक व आश्वस्तिकारक था। वर्ष 2018 में 'बैंकिंग की चुनौतियां और संभावनाएं' नामक मेरी जो पुस्तक प्रकाशित हुई उसका श्रेय ललित जी को जाता है। ललित जी एक सुलझे हुए पत्रकार तो थे ही, उनमें लोगों को जोड़ने और उनसे जुड़े रहने का भी अद्भुत कौशल था।

रायपुर से अपने स्थानांतरण के बाद भी मैंने उन्हें हमेशा उसी आत्मीयता, स्नेह और गर्मजोशी के साथ जुड़ा हुआ पाया। उनके लेखन और व्यवहार में जो साफगोई, संतुलन और जनपक्षीय प्रतिबद्धता थी, उसके कारण मैंने उनसे हर मुलाकात के बाद अपने आप को वैचारिक दृष्टि से और बेहतर पाया। ललित जी की मूल्यपरक और प्रतिबद्ध पत्रकारिता आज के अख़बारनवीसों के लिए एक प्रकाश स्तम्भ की तरह है जिसके आलोक में अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ करते हुए पत्रकारिता के उच्च प्रतिमान स्थापित किए जा सकते हैं।

मैंने कहीं पढ़ा है कि ललित जी को हरसिंगार के फूल पसंद थे। वास्तव में उनका व्यक्तित्व हरसिंगार के फूलों की तरह ही था। हरसिंगार के फूलों की तरह ही वे अपने सम्पर्क में आने वाले हरेक व्यक्ति को स्नेह और सौहार्द्र की खुशबू से भर देते थे। लोगों के दिलों में अपनी संवेदनशीलता और सदाशयता से जल्दी ही सुखद स्थान बना लेते थे। आज भले ही वे दैहिक रूप से हमारे बीच नहीं है लेकिन हमारी यादों में वे अमिट रूप से विद्यमान रहेंगे। हमारी स्मृतियों को हरसिंगार के फूलों की तरह सदैव सुरभित करते रहेंगे।
(लेखक सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया में वरिष्ठ अधिकारी हैं और इस समय चेन्नई में पदस्थ हैं। )


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