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अंधेरे में रहते हैं दूसरों का घर रौशन करने वाले कुंभकार

दिवाली पर दूसरों का घर रौशन करने वाले कुंभकारों के घर बाजार में चीनी माल की घुसपैठ और महंगी होती मिट्टी के चलते अंधेरे में डूबे रहते हैं।

अंधेरे में रहते हैं दूसरों का घर रौशन करने वाले कुंभकार
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अलवर । दिवाली पर दूसरों का घर रौशन करने वाले कुंभकारों के घर बाजार में चीनी माल की घुसपैठ और महंगी होती मिट्टी के चलते अंधेरे में डूबे रहते हैं।

मिट्टी के बरतन खासकर गर्मियों में मटके बनाने वाले कुंभकार दिवाली पर खासतौर पर दीपक बनाते हैं। यह उनका पुश्तैनी व्यवसाय है, लेकिन इस कारोबार से जुड़े कुंभकार अब महंगी होती मिट्टी की परेशानी से जूझ रहे हैं। यही वजह है कि अब दिवाली पर घरों को जगमगाने वाले मिट्टी के दीपक लगातार महंगे होते जा रहे हैं। इस बढ़ती महंगाई के चलते जो कुंभकार पुश्तैनी कारोबार से जुड़े हुए हैं, वे ही मिट्टी के बर्तन और दीपक बना रहे हैं, उनकी अगली पीढ़ी इस कारोबार से दूर भागती जा रही है। हालांकि देश में चीनी माल के विरोध में माहौल बनने से परम्परागत दीपकों की मांग बढ़ रही है।
दिवाली पर मिट्टी के पात्र सर्वाधिक बिकते हैं। जिनमें सबसे ज्यादा संख्या दीपकों की होती है। मिट्टी के दीपक का भाव भी 100 दीपकों के 50 रुपये हो गया है। इसके पीछे कुंभकार मिट्टी महंगा होना और मिट्टी की अनुपलब्धता को बताते हैं। अपने पुश्तैनी कारोबार से जुड़े कुंभकार जगदीश प्रजापत ने बताया कि दिवाली पर बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन उस श्रम की तुलना में पर्याप्त बचत नहीं होती, क्योंकि मिट्टी के भाव लगातार बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में हमें महंगे दीपक बेचने पड़ते हैं। पहले तो एक गाड़ी मिट्टी 3500 रुपये में आती थी, अब वही मिट्टी पांच हजार रुपये तक में खरीदनी पड़ती है।

वह बताता है, जब जंगल थे तो भूखंडों और खेतों से मिट्टी ले आते थे, लेकिन अब भूखंड मालिक और किसान मिट्टी नहीं ले जाने देते। ऐसे में उन्हें मिट्टी खरीदनी पड़ रही है और मिट्टी खरीदने के कारण ही दीपकों के भाव बढ़ते जा रहे हैं। सरकार को कुंभकारों की समस्या पर ध्यान देना चाहिए और जितनी मेहनत करते हैं, उस हिसाब से उनका मुनाफा भी होना चाहिए। उसने बताया कि बाजार में चीनी माल आने से उनके धंधे पर फर्क पड़ा है, लेकिन पिछले तीन-चार वर्ष से चीनी माल के खिलाफ माहौल बनने से मिट्टी के दीपकों की भी मांग बढ़ती जा रही है।

कुंभकार गणेश कुमार ने बताया कि दीपावली पर दीयों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। दीपक दो प्रकार के बनाये जाते हैं। एक तो चोंचदार दिया और दूसरा सादा गोल दिया। दीयों की मांग को देखते हुए श्राद्ध पक्ष से ही दीपक बनाना शुरु कर देते हैं और दिवाली पर वह करीब 50 हजार रुपये के दीपक बेच देते हैं। अलवर में करीब सभी कुंभकार दीपक बनाते हैं और ग्रामीण इलाकों में भी इनकी संख्या काफी है। हालांकि फैंसी दीपक आने से मिट्टी के दीयों की बिक्री पर असर पड़ा है, लेकिन फैंसी दिए बड़े घरों में बड़े लोग उपयोग करते हैं और मिट्टी के दिए अमूमन सभी घरों में उपयोग में लाए जाते हैं। फैंसी दिए डाई द्वारा बनाये जाते हैं और सादा दिए चाक से बनते हैं। दीपक बनाने में काफी समय लगता है।

पहले चाक को हाथ से घुमा कर दिये बनाए जाते थे लेकिन जब से बिजली की उपलब्धता हुई है तो मोटर चला कर चाक चला दिया जाता है, जिससे समय की बचत भी होने लगी है और दीपक बनाने के लिए चाक चलाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। उन्होंने बताया कि बाहर के व्यापारी भी आकर दीपक खरीदते हैं और मांग के अनुरूप दीपक बनाए जाते हैं और कुंभकार भी अपने स्तर पर बाजार एवं घरों में जाकर दीपक बेचते हैं।


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