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राजा

मैं चौंक पड़ा। मुझे अपने कानों पर विश्वास न आया। मैंने कापी मेज पर रख दी और अपनी कुर्सी को थोड़ा-सा आगे सरकाकर पूछा - क्या कहा तुमने? सौ साल? तुम्हारी उम्र सौ साल है

राजा
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- सुदर्शन

सौ साल।

मैं चौंक पड़ा। मुझे अपने कानों पर विश्वास न आया। मैंने कापी मेज पर रख दी और अपनी कुर्सी को थोड़ा-सा आगे सरकाकर पूछा - क्या कहा तुमने? सौ साल? तुम्हारी उम्र सौ साल है?

तीनों कोटों को एक साथ बाँधते हुए धोबी ने मेरी तरफ देखा और उत्तर दिया - हाँ बाबू साहब, मेरी उम्र सौ साल है। पूरे सौ साल। न एक साल कम, न एक साल ज्यादा। मेरी सूरत देखकर बहुत लोग धोखा खा जाते हैं।

मगर तुम इतने बड़े मालूम नहीं होते। मेरा विचार था, तुम सत्तर साल से ज्यादा न होगे।
नहीं बाबू साहब, पूरे सौ साल खा चुका हूँ।
बड़े भाग्यवान हो। आजकल तो पचास साल से पहले ही तैयारी कर लेते हैं।
धोबी ने इसका कोई उत्तर न दिया।

सहसा मेरे हृदय में एक विचार उत्पन्न हुआ। मैंने पूछा - अच्छा भाई धोबी यह कहो, तुमने सिक्खों का राज्य तो देखा होगा।
हाँ, देखा है।

उस राज्य में तुम सुखी थे या नहीं ? मेरा मतलब यह है उस राज्य में लोगों की क्या दशा थी?
धोबी ने मेरी ओर स्तृष्ण नेत्रों से देखा, जैसे किसी को भूली हुई बात याद आ जाए और ठंडी साँस भरकर बोला - मैं उस जमाने में बहुत छोटा था। सिक्खों का राज्य कैसा था, यह नहीं कह सकता। हाँ, सिक्खों का राजा कैसा था, यह कह सकता हूँ।
मेरे हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी, पूछा - तो तुमने महाराज का दर्शन किया है?

हाँ सरकार! दर्शन किया है। क्या कहना! अजीब आदमी थे। उनकी वह शक्ल-सूरत याद आती है, तो दिल में भाले से चुभ जाते हैं। बहुत दयालु थे। राजा थे, मगर स्वभाव साधुओं का था। घमंड का नाम भी न था। मैं आपको एक बात सुनाता हूँ। शायद आपको उस पर विश्वास न आए। आप कहेंगे, यह कहानी है। मगर यह कहानी नहीं, सच्ची घटना है। इसमें झूठ जरा भी नहीं। इसे सुनकर आप खुश होंगे। आपको अचरज होगा। आप उछल पड़ेंगे। मैं मामूली हिंदी जानता हूँ, पर मैंने बहुत किताबें नहीं पढ़ीं। आप रात-दिन पढ़ते रहते हैं। परंतु मुझे विश्वास है, ऐसी घटना आपने भी कम पढ़ी होगी।

मैं धोबी हूँ। मेरा बाप भी धोबी था। हम उन दिनों लाहौर में रहते थे। पर आज का लाहौर वह लाहौर नहीं। हम उस जमाने में जहाँ कपड़े धोया करते थे, वह घाट अब खुश्क हो चुका है। रावी नदी दूर चली गई है और उसके साथ ही वह दिन भी दूर चले गए हैं। भेद केवल यह है कि रावी थोड़ी दूर जाकर नजर आ जाती है, मगर वह जमाना कहीं दिखाई नहीं देता। भगवान जाने, कहाँ चला गया है।

मेरी उम्र उन दिनों सात-आठ साल की थी, जब चारों तरफ अकाल का शोर मचा। ऐसा अकाल इससे पहले किसी ने न देखा था। लगातार अढ़ाई साल वर्षा न हुई। किसान रोते थे। तालाब, नदी, नाले सब सूख गए। पानी सिवाय आँखों के कहीं नजर न आता था। मुझे वे दिन आज भी कल की तरह याद हैं, जब हम लंगोटे लगाए, मुँह काले कर बाजारों में डंडे बजाते फिरते कि शायद इसी तरह वर्षा होने लगे। मगर वर्षा न हुई। लड़कियाँ गुड़ियाँ जलाती थीं और उनके सिर पर खड़ी होकर छाती कूटती थीं। पानी बरसाने का यह नुस्खा उस युग में बड़ा कारगर समझा जाता था, लेकिन उस समय इससे भी कुछ न बना। मुसलमान मस्जिदों में नमाज पढ़ते, हिंदू मंदिरों में पूजा करते, सिक्ख गुरुद्वारों में ग्रंथ साहब का पाठ करते। मगर वर्षा न होती थी। भगवान कृपा ही न करता था। दुनिया भूखों मरने लगी। बाजारों में रौनक न थी। दुकानों पर ग्राहक न थे, घरों में अनाज न था। ऐसा मालूम होता था, जैसे प्रलय का दिन निकट आ गया है और सबसे बुरी दशा जाटों की थी। मेरा बाबा कहता था, इस समय उनके चेहरे पर खुशी न थी। आँखों में चमक न थी, शरीर पर माँस न था। सबकी आँखें आकाश की ओर लगी रहती थीं मगर वहाँ दुर्भाग्य की घटायें थीं, पानी की घटायें न थीं। अनाज रुपये का बीस सेर बिकने लगा। मैंने आश्चर्य से कहा - बीस सेर?

जी हाँ, बीस सेर! उस समय यह भी बहुत महंगा था। आजकल रुपये का सेर बिकने लगे, तो भी बाबू लोग अनुभव नहीं करते। मगर उस समय यह दशा न थी। मेरे घर में एक मैं था, एक मेरा बूढ़ा बाबा, एक विधवा माँ, दो बहनें। इन सब का खर्च चार - पाँच रुपये मासिक से अधिक न थाज्
मैंने अधीरतावश बात काटकर पूछा - फिर?

हाँ तो फिर क्या हुआ। अनाज बहुत महंगा हो गया, लोग रोने लगे। अंत में यहाँ तक नौबत आ पहुँची कि हमारे घर में खाने को न रहा। जेवर, बर्तन सब बेचकर खा गए। केवल तन के कपड़े रह गये। सोचने लगे, अब क्या होगा। मेरा बाबा, भगवान उसे स्वर्ग में जगह दे, बड़ा हँसमुख मनुष्य था। हर समय फूल की तरह खिला रहता था। प्राय: कहा करता था, जो संकट आए हँसकर काटो। रोने से संकट कम नहीं होता, बढ़ता है। मैंने सुना है, मेरे बाप के मरने पर उसकी आँख से आँसू की बूँद न गिरी थी। परंतु इस समय वह भी रोता था। कहता था, कैसी तबाही है, बाल-बच्चे मेरे सामने भूखों मरते हैं और मैं कुछ कर नहीं सकता। यहाँ तक कि कई दिन हमने वृक्षों के पत्ते उबाल कर खाये। '

एक दिन का जिक्र है। बाबा आँगन में बैठा हुक्का पीता था और आकाश की तरफ देखता था। मैंने कहा - बाबा, अब नहीं रहा जाता। कहीं से रोटी का टुकड़ा ला दो! पत्ते नहीं खाए जाते।

बाबा ने ठंडी साँस भरी और कहा - अब प्रलय का दिन दूर नहीं।
मैं - प्रलय क्या होती है?
बाबा - जब सब लोग मर जाते हैं।
मैं - तो क्या अब सब लोग मर जायेंगे?
बाबा - और क्या बेटा! जब खाने को मिलेगा, तब मरेंगे नहीं तो और क्या होगा?
मैं - बाबा! मैं तो न मरूंगा। मुझे कहीं से रोटी मंगवा दो। बहुत भूख लगी है।

बाबा की आँखों में आँसू आ गये। भर्रायी हुई आवाज से बोला - ऐसा जमाना कभी न देखा था। तुम वृक्षों के पत्ते से उकता गए हो। गाँव के लोग तो मेंढक और चूहे तक खा रहे हैं।
मैं - बाबा ! ऐसी चीजें वे कैसे खा लेते हैं?
बाबा - पेट सब कुछ करा लेता है।
मैं - पर ये चीजें बड़ी घृणित हैं।
बाबा - इस समय कौन परवाह करता है, भाई!
मैं - उनका जी कैसे मानता है?
बाबा - भगवान किसी तरह यह दिन निकाल दे।
मैं - 'बाबा, मेघ क्यों नहीं बरसता?

बाबा - हमारी नीयतें बदल गई हैं। वरना ऐसा समय कभी न सुना था। आज हरएक दृष्टि में लाली है, मानो हर आँख में खून है, पानी नहीं है। तुम अजान हो, जाओ, कहीं से मांग लाओ। शायद कोई तरस खाकर तुम्हें रोटी का एक टुकड़ा दे दे।
मैं - तो जाऊं ?

बाबा - भगवान अब मौत दे दे। गरीब थे, पर किसी के सामने हाथ तो न फैलाते थे।
मैं भूख से मर रहा था, रोटी मांगने को निकल पड़ा। मेरा विचार था, अकाल शायद गरीबों के यहाँ ही है। मगर बाहर निकला तो सभी को गरीब पाया। उदास सब थे, खुश कोई भी न था। मैं बहुत देर तक इधर-उधर मांगता फिरा, मगर किसी ने रोटी न दी। मैं निराश होकर घर को लौटा, पर पाँव मन-मन भर के भारी हो रहे थे।

सहसा एक जगह लोगों का समूह नजर आया। मैं भी भागकर चला गया। देखा सरकारी आदमी मुनादी कर रहा है और लोग उसके गिर्द खड़े हो रहे हैं। मैं चकित रह गया। मैं समझ न सकता था कि उनके खुश होने का कारण क्या है। मगर थोड़ी देर बाद रहस्य खुल गया। महाराज रणजीतसिंह ने शाही किले में अनाज की कोठरियाँ खुलवा दी थीं और घोषणा कर दी थी कि जिस-जिस गरीब को आवश्यकता हो, ले जाये, दाम न लिया जायेगा। लोग महाराज की इस उदारता पर चकित रह गये। कहते थे ये आदमी नहीं, देवता हैं। मुसलमान कहते थे, कोई औलिया हैं। अब खुदा की खलकत भूखों न मरेगी। खुदा नहीं सुनता, राजा तो सुनता है। खलकत के लिए राजा ही खुदा है। एक आदमी कह रहा था, महाराज ने आदमी बाहर भेजे हैं कि जितना अनाज मिल सके, खरीद लाओ। मेरी प्रजा मेरी संतान है, मैं उसे भूखों न मरने दूंगा।
दूसरा आदमी बोला - मगर महाराज पहले क्या सो रहे थे? यह विचार पहले क्यों न आया, अब क्यों आया है?

पहले आदमी ने उत्तर दिया - 'महाराज सोते नहीं थे, जागते थे। हर समय पूछते रहते थे कि अब अनाज का क्या भाव है, अब लोगों का क्या हाल है? कल तक यही पता था कि अनाज महंगा है। आज समाचार पहुँचा कि बाजार में अनाज का दाना भी नहीं मिलता। महाराज घबरा गए कि क्या होगा? आखिर उन्होंने आदमी बाहर भेज दिए कि जितना अनाज मिल सके, खरीद लाओ। मैं लोगों में मुफ्त बाटूंगा। मेरे कोष में रुपया रहे या न रहे, मगर लोग बच जायें।
एक हिंदू बोला - इन्होंने तो कह दिया कि महाराज क्या पहले सोते थे? यह मालूम नहीं, महाराजाओं को एक की चिंता नहीं होती, सबकी चिंता होती है।

दूसरा - भाई, मेरा अभिप्राय थोड़े ही था।
पहला - 'एक और बात भी है। महाराज ने बाहर के किलेदारों को भी यही आज्ञा भेजी है।
दूसरा - आफरीन हैं। राजा हो तो ऐसा हो।
तीसरा - कोई और होता तो कहता, वर्षा नहीं हुई तो इसमें मेरा क्या दोष है। मेरे राजभवन में तो सब कुछ है।
दूसरा - इस समाचार से मरते हुए लोगों में जान पड़ जाएगी।
तीसरा - आज शहर की दशा देखना।
पहला - किसी की आँख में चमक न थी।
दूसरा - ऐसा अंधेर कभी न हुआ था।
तीसरा - पर अब परमेश्वर ने सुन ली।

मैं यहाँ से चला तो ऐसा प्रसन्न था, जैसे कोई अनमोल चीज पड़ी मिल गई हो। कुछ देर संयम करके मैं धीरे-धीरे चला, फिर दौड़ने लगा। डरता था कि यह शुभ समाचार घर में मुझसे पहले न पहुँच जाये। मैं चाहता था कि घर के लोग यह खबर मुझ ही से सुनें। गोली के सदृश भागा जाता था, मगर घर के पास पहुँचकर गति कम कर दी और धीरे-धीरे घर में दाखिल हुआ। मेरा बाबा उसी तरह सिर झुकाए बैठा था। मेरा हृदय खुशी से धड़कने लगा - वह अभी तक न जानता था।
मुझे खाली हाथ देखकर बाबा ने ठंडी साँस भरी और सिर झुका लिया। मैंने जाकर बाबा का हाथ पकड़ लिया और उसे जोर से घसीटता हुआ बोला - उठो, चादर लेकर चलो, महाराज ने मुनादी कर दी है, अनाज मुफ्त मिलेगा।

मेरी माँ, मेरी बहनें, मेरा बाबा सब चौंक पड़े। उनको मेरे कहने पर विश्वास न हुआ। सिर हिलाते थे और कहते थे - बच्चा है, किसी ने मजाक किया होगा। यह सब समझ बैठा है, भला महाराज सारे शहर को अनाज मुफ्त कैसे दे देंगे? बहुत कठिन है?

मगर मैंने कहा - मैंने मुनादी अपने कानों से सुनी है। यह गलत नहीं है। लोग सुनते थे और खुश होते थे। तुम चादर लेकर मेरे साथ चलो।
मेरा बाबा चादर लेकर मेरे साथ चला। उसको अभी तक संदेह था कि यह मजाक है। लेकिन बाजार में आकर देखा तो हजारों लोग उधर ही जा रहे थे। अब उसको मेरी बात पर विश्वास हुआ।

किले में पहुँचे, तो वहाँ आदमी ही आदमी थे। पर किसी अमीर को अंदर जाने की आज्ञा न थी। फाटक पर सिपाही खड़े थे। वे जिसके कपड़े सफेद देखते उसे रोक लेते। कहते, यह अनाज गरीबों की सहायता के लिए है, अमीरों के घर तो अब भी भरे हुए हैं। यह गरीबों का लंगर था, अमीरों का भोज न था। मेरी इतनी उम्र हो गई है। मैंने अमीरों के लिए सब दर खुले देखे हैं, उनका कहीं रोक-टोक नहीं होती। पर वहाँ अमीर खड़े मुँह ताकते थे और उनकी कोई परवाह न करता था। हम गरीब थे, हमें किसी ने नहीं रोका। हम अंदर चले गए। वहाँ देखा कि सैकड़ों सरकारी आदमी तराजू लिए बैठे हैं और तोल-तोल कर 20-20 सेर अनाज सबको देते जाते हैं।

लेकिन एक घर में एक ही आदमी को देते, दूसरों को लौटा देते थे। लोग बहुत थे, आगे बढ़ना आसान न था। मैं छोटा था, मेरा बाबा बूढ़ा था और हमारे साथ कोई जवान आदमी न था। हमने कई आदमियों से मिन्नत की कि हमें भी अनाज दिलवा दो, मगर उस आपाधापी के समय किसी की कौन सुनता है। मेरे बाबा ने दो बार आगे बढ़ने का प्रयत्न किया मगर दोनों बार धक्के खाकर बाहर आ गया। तब मैं और मेरा बाबा दोनों एक तरफ खड़े हो गए और अपनी विवशता पर कुढ़ने लगे।

संध्या के समय जब अंधेरा हो गया, तब शंख के बजने की आवाज सुनाई दी। इनके साथ ही अनाज देने वालों ने अनाज देना बंद कर दिया। हुक्म हुआ, बाकी लोग कल आकर ले जायें। लेकिन अगर कोई दुबारा आ गया, तो उसकी खैर नहीं, महाराज खाल उतरवा लेंगे। लोग निराश हो गए, पर क्या करते। धीरे - धीरे सारा आंगन खाली हो गया। हम कैसे चले जाते? कई दिन से भूखे मर रहे थे। दोनों रोने लगे। बाबा बोला - 'बेटा! हम कैसे अभागे हैं, नदी के किनारे आकर भी प्यासे लौट रहे हैं। जो भाग्यवान थे, वे झोलियाँ भर कर ले गए। हम खड़े देखते रहे। अब खाली हाथ लौट जायेंगे।

मैं - बाबा! उनसे कहो, हमें दे दे। हम बहुत भूखे है।
बाबा - कौन? चलो घर चलें। अनाज न मिलेगा, गालियाँ मिलेंगी।
मैं - तुम कहो तो सही।
बाबा - बेटा! तुम कैसी बातें करते हो। ये लोग अब न देंगे, कल फिर आना पड़ेगा।
मैं - तो आज क्या खायेंगे?
बाबा - गरीबों के लिए गम के सिवा और क्या है? आज की रात और सब्र करो।
मैं - बाबा! मैं तो न जाऊंगा। कहो, शायद दे दें।
बाबा - 'तुम पागल हो! क्या मैं भी तुम्हारे साथ पागल हो जाऊं?
इतने में एक सरदार आकर हमारे पास खड़ा हो गया और बोला - अब जाते क्यों नहीं? कल आ जाना, आज अनाज न मिलेगा।
बाबा (ठंडी साँस भरकर) - जाते हैं सरकार!
इस विवशता से उन सरदार साहब का दिल पसीज गया। जरा ठहरकर बोले - तुम कौन हो?
बाबा - धोबी हैं।

सरदार - कल न आ सकोगे ?
बाबा - आने को तो सिर के बल आयेंगे, पर गरीब आदमी हैं। मैं बुड्ढा हूँ, यह अभी बच्चा है। भीड़ में पता नहीं कल भी अवसर मिले, न मिले। आज मिल जाता तो रात को पीसकर खा लेते।

सरदार - तुम्हारे यहाँ कोई जवान आदमी नहीं है?
बाबा - नहीं सरकार! इस बालक का बाप था, वह भी मर गया।
सरदार - तो कल आना कठिन है तुम्हारे लिए?
मैं - सरकार आज ही दिला दें।

सरदार (हँसकर) - आओ, आज ही दिला दूं।
मैं - बाबा कहता था, आज न देंगे। क्यों बाबा ?
सरदार साहब हँसने लगे, मगर मेरे बाबा ने मुझे संकेत किया कि चुप रहो। मैं चुप हो गया। सरदार साहब ने कहा - आओ तुम्हें दिला दूं।
हम सरदार साहब के पीछे-पीछे चले। उन्होंने अनाज के ढेर के पास पहुँचकर एक आदमी से कहा - बुड्ढे को बीस सेर गेहूँ दे दो।
वह आदमी मेरे बाबा से बोला - चादर फैला दो। और गेहूँ तौलने लगा।
मेरा बाबा बोला - सरकार! अब फिर कब मिलेगा?

सरदार - अगले सप्ताह।
बाबा - हम कई दिनों से भूखों मर रहे हैं।
सरदार (हँसकर) - तो और क्या चाहते हो?
बाबा - सरकार! कहते हुए भी शर्म आती है, क्या करूं?
सरदार - नहीं, कह दो। कोई बात नहीं।
बाबा - बीस सेर और दिला दें, तो बड़ी कृपा होगी। आपकी जान को दुआयें देता रहूंगा।

सरदार - बड़े लोभी हो।
बाबा - सरदार साहब, पेट मांगता है जब जीभ खुलती है, नहीं तो हम ऐसे बेगैरत कभी न थे।

सरदार - अगर इसी तरह तमाम लोग करें, तो कैसे पूरा पड़े?
बाबा - सरकार! राजा के महल में मोतियों की क्या कमी है। नहीं होता तो न दें, फिर द्वार पर आ पड़ेंगे। शहर में बड़ा यश हो रहा है। (मुझसे) बेटा! नमस्कार कर। इन्होंने हमें बचा लिया, नहीं तो रात रोते कटती।
सरदार (आगे बढ़कर) - जीते रहो बेटा! तुम्हारा क्या नाम है?
मैं - 'जगत।

सरदार - अब अनाज मिल गया ना, जाओ रोटियाँ पकाकर खाओ।
मैं - सरकार! बीस सेर और दिला दें।
सरदार - अरे! तू तो बाबा से भी लोभी निकला।
मैं - नहीं सरकार, बीस सेर और दिला दें।
सरदार (अनाज तोलने वाले से) - बीस सेर और तौल दे। बूढ़ा बाबा बार-बार कैसे आयेगा?
बीस सेर और मिल गया।
सरदार - बाबा, अब तो खुश हो गये?
बाबा - वाहे गुरु आपका यश दूना करे।

सरदार - महाराज की जान की दुआ दो। यह सब उनकी कृपा है, नहीं तो लोग भूखों मर जाते और सच पूछो, तो यह उनका धर्म था। न करते, तो पाप के भागी बनते, राजा प्रजा का पिता होता है।
बाबा - सच है सरकार! महाराज ऋषि है।

सरदार - 'ऋषि तो क्या होंगे। आदमी बनें, तो यह भी बड़ी बात है।
अब तक सब तोलने वाले आदमी जा चुके थे। किले में हमीं थे, और कोई न था। सरदार साहब बोले - अब उठाकर ले जाओ।
गरीब दावत में जाकर खाता बहुत है, यह नहीं सोचता कि पचेगा या नहीं। बाबा ने भी अनाज ज्यादा लिया, अब उठाना मुश्किल था। क्या करे, क्या न करे। उस समय सिक्खों का वही रौब था, जो आज अंग्रेजों का है। बाबा सहमकर बोला - सरदार साहब, गठरी भारी है। कोई सिर पर रख दे तो ले जाऊं।
सरदार साहब ने गठरी उठाकर मेरे बाबा के सिर पर रख दी।
बाबा दो कदम चलकर गिर गया।

सरदार साहब बोले - क्यों भाई! इतना अनाज क्यों बंधवा लिया, जो उठाए नहीं उठता। बीस सेर लेते, तो यह तकलीफ न होती। लोभ करते हो, अपनी देह की ओर नहीं देखते। जाओ, अपने किसी आदमी को बुला लाओ। तुमसे न उठेगा।
मेरे बाबा ने आह भरी और कहा - सरकार! मेरी सहायता कौन करेगा?

सरदार साहब ने कुछ देर सोचा, फिर वह गठरी अपने सिर पर उठाकर चलने लगे। हम दंग रह गये। हमारे शरीर के एक-एक अंग से उनके लिए दुआ निकल रही थी। हम सोचते थे, यह आदमी नहीं देवता है।

यहाँ पहुँचकर धोबी रुक गया। कहानी ने बहुत मनोरंजक रूप धारण कर लिया था। मैं इसका अगला भाग सुनने को अधीर हो रहा था। मैंने जल्दी से कहा - क्यों भाई धोबी! फिर क्या हुआ?

धोबी ने वायुमंडल में इस भांति देखा, जैसे कोई खोई वास्तव को खोज रहा हो और फिर दीर्घ नि:श्वास लेकर बोला - जब हम घर पहुँचे और सरदार साहब अनाज की गठरी हमारे आँगन में रखकर लौटे, तो मैं और मेरा बाबा दोनों उनके साथ बाजार तक चले आये। मेरा बाबा बार-बार कहता था, इसका फल आपको वाहे गुरु देंगे, मैं इसका बदला नहीं दे सकता। एकाएक उधर से एक फौजी सिक्ख निकल आये। सरदार साहब जहाँ खड़े थे, वहाँ रोशनी थी। फौजियों ने उनको पहचान लिया और तलवारें निकालकर सलाम किया। यह देखकर मेरा बाबा डर गया, सोचा - यह कौन है? कोई बड़ा ओहदेदार होगा, वरना ये लोग इस प्रकार सलाम न करते। जब सरदार, साहब चले गए, तब मेरा बाबा उन फौजियों के पास पहुँचा और पूछा - यह कौन थे?

उनमें से एक ने बाबा की तरफ आश्चर्य से देखा और जवाब दिया - तुम नहीं जानते? यह हमारे महाराज थे।
बाबा चौंक पड़ा। उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। उसके मुँह से एक शब्द भी न निकला।

यह महाराज थे। वही महाराज, जिनकी आँख के इशारे पर फौजों में हलचल मच जाती थी, जो अपने युग के सबसे बड़े राजा थे, जिनके सामने अभ्युदय हाथ बांधता था। आज ये एक धोबी के घर गेहूँ की गठरी छोड़ने आए हैं। यह सच्चे महाराज हैं। इनका राज्य जन-जन के दिलों पर है।
उस रात हमें नींद न आई। सारा घर जागता था और महाराज के लिए दुआ मांगता था। दूसरे दिन बड़े जोर की वर्षा हुई।

यह कहानी सुनाकर धोबी चुप हो गया। मेरे रोंये खड़े हो गए। आँखों में पानी भर आया। आज वह समय कहाँ चला गया? आज ऐसे राजा लोग क्यों नहीं नजर आते? आज के राजाओं को भ्रमण का शौक है, विषय-वासना का चाव है, परंतु अपनी प्रजा के हित-अहित का ध्यान नहीं।

मैंने धोबी की तरफ देखा, उसकी भी आँखें सजल थीं।
धोबी ने कपड़े गिनकर कहा - बाबू साहब! लिखिए - चौदह पायजामे, बीस कमीजें।
मैंने कापी उठा ली और लिखने लगा।


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