केजरीवाल की अंतरिम जमानत लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण फैसला
न्यायपालिका निश्चित रूप से उसी स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभाव का उत्पाद है जो अपने निर्णय लिखने के समय इन पोषित मूल्यों को निर्देशित किए बिना नहीं रह सकती है

- हरेश जगतियानी
न्यायपालिका निश्चित रूप से उसी स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभाव का उत्पाद है जो अपने निर्णय लिखने के समय इन पोषित मूल्यों को निर्देशित किए बिना नहीं रह सकती है। लोकतंत्र की रक्षा के बारे में यदि कभी हमारे न्यायाधीश क्षण भर के लिए विचलित होते हैं तो भयभीत होने की जरूरत नहीं है। न्यायपालिका को उसकी आवाज वापस दिलाने के लिए भारतीय नागरिक के पास 'मतदान' नाम की सबसे अच्छी दवा है।
क्या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अंतरिम जमानत मिलने से चुनावी फायदा होगा? क्या गलत समय पर अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी कर प्रधानमंत्री मोदी ने गलत कदम उठाया? क्या सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के मुख्यमंत्री को अस्थायी रूप से रिहा करके सही काम किया? पहले दो सवालों के जवाब 4 जून, 2024 को मिल जाएंगे जब लोकसभा चुनाव के नतीजे आएंगे। इसलिए तीसरा सवाल सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का मुद्दा है जिसमें अरविंद केजरीवाल को 1 जून तक अपनी पार्टी और चुनावी सहयोगियों के लिए प्रचार करने की सीमित छूट दी गई है। यह एक ऐसा फैसला जिसकी सराहना की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला देश के लिए, कानून के राज के लिए और सबसे बढ़कर लोकतंत्र के लिए गर्व का क्षण है। आखिर क्यों? इस फैसले से पहले सुप्रीम कोर्ट ने दो ऐतिहासिक निर्णयों में हमारे सबसे मौलिक मूल्य- लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए दृढ़ता से बात की थी। पहला फैसला राष्ट्रीय स्तर पर परिणामकारक नहीं हो सकता है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अवैध रूप से चुने गए चंडीगढ़ के भाजपा महापौर को हटा दिया और उस प्रक्रिया को 'लोकतंत्र की हत्या' के रूप में वर्णित किया जिसके द्वारा महापौर को चुना गया था। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के ये शब्द उन सभी के दिलो-दिमाग में गूंजने चाहिए जो स्वतंत्रता को महत्व देते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण फैसला सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण पीठ का था जिसमें इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक घोषित किया गया था। इस फैसले के माध्यम से एक बार फिर हमारी राजनीति के लोकतांत्रिक सिद्धांतों, भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकार की महत्ता बताई गई है। जिससे उन्हें देश के शासन के लिए महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने का अधिकार मिलता है। सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल को दी गई अस्थायी जमानत के फैसले को पहले के दो फैसलों के साथ क्यों रखा जाना चाहिए और इस फैसले का पहले के दो महत्वपूर्ण फैसलों के समान क्या महत्व है? ऐसा केवल इसलिए है क्योंकि रिहाई आदेश की नींव एक ही है- एक सिद्धांत जो हमारी स्वतंत्रता के लिए अपरिहार्य है। वह है 'निष्पक्ष और स्वतंत्र' चुनाव।
इस मौके पर जमानत के अंतर्निहित न्यायशास्त्र को समझना महत्वपूर्ण है। किसी व्यक्ति द्वारा किया गया प्रत्येक अपराध सिद्धांत रूप में समाज के खिलाफ अपराध है। जिस समुदाय में अपराध किया जाता है उसे ऐसी प्रवृत्ति वाले व्यक्ति से बचाया जाना चाहिए, लेकिन किसी अपराध के संदेह में किसी को गिरफ्तार करना यह साबित करने के समान नहीं है कि अपराध किया गया है। हालांकि अपराध गंभीर होने और उसमें संलिप्तता के मजबूत संदेह के बावजूद संदिग्ध आरोपी को मुकदमे में दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है। कानून उसकी बेगुनाही की धारणा को ध्यान में रखते हुए उसे जमानत पर रिहा करने की अनुमति देता है ताकि वह प्रभावी ढंग से अपना बचाव करने के लिए स्वतंत्र हो। अपराध की प्रकृति के बावजूद जमानत से इनकार करना आरोपी को बिना मुकदमे के दंडित करना है। इसी प्रकार यह आवश्यक रूप से विभिन्न परिस्थितियों पर निर्भर होना चाहिए कि क्या एक आरोपी जमानत का हकदार है जिनके आधार पर न्यायाधीश अपने विवेक से जमानत देने या अस्वीकार करने का मूल्यांकन करता है।
यहां तक कि हत्या के उन संदिग्ध मामलों में भी जमानत दी जा सकती है जहां न्यायाधीश को लगता है कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश की गई सामग्री या सबूतों की समग्रता विरोधाभासों से भरी हुई है और इस प्रकार आरोपी को अपने मुकदमे में संभावित बचाव प्रदान करता है। जमानत देने या अस्वीकार करने के बारे में न्यायाधीश के विवेक के प्रयोग को नियंत्रित करने के बारे में कोई निर्धारित नियम या फॉर्मूला नहीं है। अगर इस व्यापक दृष्टिकोण को ध्यान में रखा जाता है तो जब उनका मामला मुकदमे के लिए तैयार ही था तो अरविंद केजरीवाल को पहले ही जमानत मिलनी चाहिए थी और यह केवल एक अंतरिम उपाय के रूप में नहीं होना चाहिए। मामले की 'जांचज् भले ही दो साल से चल रही हो किंतु केजरीवाल के खिलाफ आरोपों को अभी तक स्पष्ट रूप नहीं दिया गया है। एक संभावित इकबाली गवाह की 'स्वीकारोक्ति' पर केजरीवाल को गिरफ्तार किया गया है जिसकी ईमानदारी पर संदेह है और जिसने पहले भी 'स्वीकारोक्ति' के बारे में विरोधाभासी बयान दिए थे।
फिर, अरविंद केजरीवाल के भागने का खतरा भी नहीं है। और अगर केजरीवाल की गतिविधियों पर सतर्कता से निगरानी की जाती है तो वे संभवत: प्रवर्तन निदेशालय द्वारा पहले से ही एकत्र किए गए सबूतों के साथ छेड़छाड़ या गवाहों को प्रभावित नहीं कर सकेंगे। ये सभी परिस्थितियां अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य करने और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने हेतु रिहा करने के लिए एक न्यायाधीश को मजबूर करती हैं।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट इन छोटी-छोटी बारीकियों में नहीं गया। उसने केजरीवाल को लोकतंत्र की ठोस नींव पर उनकी सही आजादी दी जिसका उद्देश्य निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित करना है। अरविंद केजरीवाल एक राष्ट्रीय दल 'आम आदमी पार्टी' के प्रमुख हैं। पार्टी को संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त है और वह दिल्ली और पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टी है। उनकी अनुपस्थिति चुनाव में भाजपा को निर्विवाद, अनुचित लाभ देगी तथा मतदाताओं को सत्तारूढ़ दल के खिलाफ प्रचार किए बिना वोट देने के वैकल्पिक- वांछनीय उम्मीदवार के एक सूचित विकल्प से वंचित कर देगी। निश्चित रूप से यह मुद्दा इस मामले के केंद्र में है। यदि इस उप-महाद्वीप में लोकतंत्र जीवित रहता है तो भावी पीढ़ी निश्चित रूप से हाल ही में घोषित तीन निर्णयों को इसके संरक्षण के प्राथमिक कारण के रूप में स्वीकार करेगी।
हमारे पास कम से कम उच्च स्तर पर एक मजबूत न्यायपालिका है और जरूरत पड़ने पर एक प्रेरणादायक सुप्रीम कोर्ट है। क्या सुप्रीम कोर्ट हमेशा से ऐसा ही रहा है? इसका जवाब 'न' में आता है। अतीत में सुप्रीम कोर्ट ने हमें कई मौकों पर निराश किया है लेकिन जब तक हर न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति और पद छोड़ने की आयु नहीं होती तब तक उन्हें बर्दाश्त करना पड़ेगा।
न्याय संस्था में अपनी प्रतिष्ठा वापस पाने और गरज कर यह कहने का अंतर्निहित लचीलापन और आत्मविश्वास है कि 'हम एक लोकतंत्र हैं'। सरल शब्दों में कहें तो हमारी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता में लोकतंत्र की सुगंध है एवं वह विचार व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करती है। न्यायपालिका निश्चित रूप से उसी स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभाव का उत्पाद है जो अपने निर्णय लिखने के समय इन पोषित मूल्यों को निर्देशित किए बिना नहीं रह सकती है। लोकतंत्र की रक्षा के बारे में यदि कभी हमारे न्यायाधीश क्षण भर के लिए विचलित होते हैं तो भयभीत होने की जरूरत नहीं है। न्यायपालिका को उसकी आवाज वापस दिलाने के लिए भारतीय नागरिक के पास 'मतदान' नाम की सबसे अच्छी दवा है।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


