कश्मीर : अमेरिकी दबाव के सामने मोदी खामोश
क्या प्रधानमंत्री मोदी युद्धविराम की तरह कश्मीर पर भी किसी समझौते को मान जाएंगे

- शकील अख्तर
कश्मीर पर पाकिस्तान का मान जाना कोई खास बात नहीं है। लेकिन भारत अगर मध्यस्थता स्वीकार कर लेता है तो यह बहुत बड़ी बात होगी। अभी तक कि स्वतंत्र विदेश नीति के बिल्कुल उलट। भारतीय हितों के विपरीत। भारत की संसद के दोनो सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास किया था कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।
क्या प्रधानमंत्री मोदी युद्धविराम की तरह कश्मीर पर भी किसी समझौते को मान जाएंगे? बहुत बड़ा सवाल!
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दूसरा ट्वीट बहुत खतरनाक है। इसमें वे स्पष्ट रूप से कश्मीर के मामले में मध्यस्थता की बात कर रहे हैं। भारत हमेशा कहता रहा है कि यह द्विपक्षीय मसला है और भारत किसी तीसरे को इसमें शामिल नहीं करेगा। शिमला समझौता में यह सबसे अहम बात है। उसके बाद कई बार पाकिस्तान ने कभी संयुक्त राष्ट्र, कभी अमेरिका, कभी चीन के जरिए मध्यस्थता करवाने की कोशिश की मगर भारत ने कभी स्वीकार नहीं किया।
इन्दिरा गांधी जिन्हें अभी अमेरिका द्वारा घोषित युद्धविराम के बाद देश में सबसे ज्यादा याद किया जा रहा है उन्होंने 1971 का युद्ध जीतने के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भुट्टो को शिमला बुलाकर यह समझौता किया था। और उसमें लिखवाया था कि कश्मीर का मुद्दा दोनों देश मिलकर सुलझाएंगे। तीसरे किसी का दखल नहीं होगा।
लेकिन पहले युद्धविराम की अप्रत्याशित घोषणा और अब उसके बाद कश्मीर समस्या सुलझाने का दावा बता रहा है कि राष्ट्रपति ट्रंप का दबाव काम कर गया है। पाकिस्तान का उसमें आना कोई खास बात नहीं। उसके पास क्या है? 75 साल में उसने क्या हासिल किया? आज चीन उसके साथ था और वह भी उसके नहीं भारत से दुश्मनी की वजह से और अमेरिका उसे टूटने नहीं देना चाहता था इसलिए उसने युद्ध विराम करवाकर उसे बचा लिया, नहीं तो पाकिस्तान कितने दिन और भारत से लड़ पाता?
वहां के शासक इसे समझते हैं। लेकिन अपने देश की जनता को उलझाए रखने के लिए युद्ध विराम के बाद भी गोलाबारी, ड्रोन अटैक करते रहे। केवल यह बताने के लिए कि हम लड़ सकते हैं। और ठीक यही बात पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने अपने देश को संबोधित करते हुए कही। झूठी शान बताते हुए कि-हमारे सेना ने यह कर दिया वह कर दिया वे केवल जंग का महिमामंडन करते रहे।
जैसे युद्ध जिन्दगी के लिए सबसे जरूरी चीज है। इसी तरह की जज्बाती बातों ने पाकिस्तान की अवाम को 75 साल से उलझाए रखा है। और वे ऐसे ही रहें इसमें पाकिस्तान के नेताओं का दोष तो है ही चीन और अमेरिका भी यही चाहता है।
पाकिस्तान की जनता को देखना होगा कि चीन और अमेरिका जो उसके दोस्त हैं कितनी तरक्की कर चुके हैं और उनका मुल्क वहीं का वहीं है। भारत के साथ आजाद हुआ था। भारत हर क्षेत्र में कहीं से कहीं निकल गया लेकिन पाकिस्तान अभी भी कर्जा लेकर अपने खर्चे चलाने पर मजबूर है। अभी आईएमएफ से 12 हजार करोड़ रुपए अमेरिका ने दिलवाए।
इसलिए कश्मीर पर पाकिस्तान का मान जाना कोई खास बात नहीं है। लेकिन भारत अगर मध्यस्थता स्वीकार कर लेता है तो यह बहुत बड़ी बात होगी। अभी तक कि स्वतंत्र विदेश नीति के बिल्कुल उलट। भारतीय हितों के विपरीत। भारत की संसद के दोनो सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास किया था कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। और जिस हिस्से पर पाकिस्तान ने कब्जा कर रखा है वह भी। याद रहे यह प्रस्ताव उस समय की कांग्रेस सरकार ने उस समय पास करवाया था जब जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा चलाए जा रहे आतंकवाद का सबसे भीषण समय था। पाकिस्तान एक तरफ कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियां चला रहा था दूसरी तरफ दुनिया में यह झूठा प्रचार कर रहा था कि भारत दिल्ली में बैठकर कश्मीरियों पर शासन कर रहा है।
जबकि हकीकत यह थी कि पाकिस्तान की आतंकवादी गतिविधियों के कारण वहां चुनाव नहीं हो पा रहे थे। मगर भारत वहां राजनीतिक प्रक्रिया चला कर चुनाव का माहौल तैयार कर रहा था। ऐसे समय में अन्तरराष्ट्रीय जगत को सही स्थिति बताने के लिए केन्द्र सरकार ने अपना एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल संयुक्त राष्ट्र भेजा। और जानते हैं उसका नेता किस को बनाया। विपक्ष के नेता को।
क्यों? ताकि यह संदेश जाए कि पूरा भारत कश्मीर के मामले में एक है। अटल बिहारी वाजपेयी को दल का अध्यक्ष बनाया और जम्मू कश्मीर के नेता फारुक अब्दुल्ला को उस दल में शामिल किया। आज कांग्रेस बिना शर्त सरकार को पूरा समर्थन दे रही थी। पहलगाम के आतंकवादी हमले के बाद से ही। मगर जब बिल्कुल युद्ध जैसा माहौल हो गया तो सत्तारुढ़ पार्टी बीजेपी वीडियो जारी करके यह बताने लगी कि कांग्रेस के प्रधानमंत्री कितने कमजोर थे।
अब कमजोर थे ताकतवर थे पता नहीं मगर कश्मीर पर किसी की मध्यस्थता स्वीकार करना तो बड़ी बात किसी को इस पर बात भी करने की इजाजत नहीं देते थे। देश एक बहुत अनिश्चित मोड़ पर खड़ा है। प्रधानमंत्री मोदी बिल्कुल खामोश हैं। पहलगाम के बाद दो आल पार्टी मीटिंग हुईं मगर एक में भी प्रधानमंत्री नहीं आए। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी दोनों में मौजूद थे। जबकि उनसे कहा गया कि जब नेता सत्ता पक्ष नहीं आ रहा हो तो नेता प्रतिपक्ष को जाने की क्या जरूरत? मगर राहुल ने अपनी जिम्मेदारी को समझा और वहां जाकर दोनों बार सरकार को पूरा समर्थन देने का भरोसा देकर आए।
लेकिन अब एक अचानक अमेरिका द्वारा युद्ध विराम और फिर दूसरा कश्मीर पर अमेरिका की मध्यस्थता राहुल को बोलने पर मजबूर करेगी। नेता प्रतिपक्ष के तौर पर उनका दायित्व है। कश्मीर का मामला बहुत नाजुक है। भारत की भावनाओं से जुड़ा है। इसमें अचानक कोई तीसरा देश दखल देने की कोशिश करे यह भारत के लोगो को कभी स्वीकार नहीं होगा।
प्रधानमंत्री मोदी को इस पर अपना रुख साफ करना चाहिए। अभी अचानक युद्धविराम से देश हतप्रभ है। शांति सब चाहते हैं। मगर उसकी घोषणा हम करते तो बात दूसरी थी। अभी जिस भाषा में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बात कर रहे हैं वह नहीं होती। उनकी भाषा लिखने योग्य भी नहीं है। ट्रोलों जैसी। घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। भारत चीखने लगा! यह एक प्रधानमंत्री की भाषा होती है? अपनी जनता को बेवकूफ बनाने की कोशिश। उसके समर्थक चीन और अमेरिका भी जानते हैं कि पाकिस्तान युद्ध में ज्यादा दिन भारत के सामने टिक नहीं पाएगा। इसलिए उन्होंने युद्धविराम करवाया। पाकिस्तान को बचाने के लिए।
मगर अब कश्मीर पर बात लाकर ट्रंप ने किसी बड़े गेम के संकेत दे दिए हैं। यह अमेरिका के, चीन के, पाकिस्तान के फायदे में हो सकता है। मगर भारत के नहीं। किसी दबाव में कश्मीर पर बात करना उसके स्वाभिमान के खिलाफ है।
मोदीजी को स्टेंड लेना पड़ेगा। नहीं तो देश लेगा। अगर ट्रंप और मोदी यह समझते हैं कि वे कश्मीर पर कोई फैसला ले सकते हैं तो भारी भूल कर रहे हैं।
ऊपर बताया ही इसीलिए कि यह 22 फरवरी 1994 का संसद के दोनों सदनों का सर्वसम्मत प्रस्ताव है। इसमें कोई फेरबदल नहीं हो सकता। और अगर कश्मीर पर कोई बात करना है तो पहले संसद से इसकी अनुमति लेना होगी।
विपक्ष पहलगाम के आतंकवादी हमले के बाद से ही संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग कर रहा है। ट्रंप के ताजा बयान कश्मीर के बाद फिर यह मांग दोहराई है। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा है।
मोदी के लिए यह समय बहुत मुश्किल है। अचानक युद्धविराम को उनके समर्थक भी धोखा मान रहे हैं। इससे पहले जातिवार गणना की घोषणा से भी उन्हें बहुत धक्का लगा था। जिसे वे राष्ट्रविरोधी, अरबन नक्सल का अजेंडा, भारत को तोड़ने की साजिश बताते घूम रहे थे वही उनके नेता ने कर दिया।
उस सदमे से वे उबरे नहीं थे कि ट्रंप ने पहले युद्धविराम और फिर कश्मीर पर मध्यस्थता की घोषणा कर दी। मोदी की छवि पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ा है। वे खामोश हैं। उनके पास कोई जवाब नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


