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कर्पूरी ठाकुर का सम्मान या राजनीतिक एजेंडा

22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया

कर्पूरी ठाकुर का सम्मान या राजनीतिक एजेंडा
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- प्रो रविकान्त

ब्रिटिश हुकूमत की मद्रास प्रेसीडेंसी में सबसे पहले 1921 में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। लेकिन तात्कालिक विरोध के चलते यह 1927 में लागू हुआ। दरअसल, मद्रास प्रेसीडेंसी में आरक्षण लागू करने का ठोस और बुनियादी कारण मौजूद था। इस प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों का वर्चस्व और पिछड़े-दलितों की बड़ी दयनीय स्थिति थी।

22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। इसके 11 दिन पहले से मोदी दक्षिण भारत के तमाम मन्दिरों में घूम -घूमकर अनुष्ठान करने में लगे थे। मीडिया के जरिये इस अनुष्ठान को चुनावी माहौल में तब्दील कर दिया गया। भाजपा, संघ, विश्व हिन्दू परिषद और अनेक हिंदूवादी संगठनों ने इस आयोजन को देशव्यापी बना दिया। मीडिया ही नहीं तमाम राजनीतिक विश्लेषक भी ये कहने लगे थे कि राम मंदिर की लहर में मोदी को 2024 में रोकना नामुमकिन है। यानी हिंदुत्व के मुद्दे पर बीजेपी की जीत तय है। लेकिन 24 घंटे के भीतर नरेंद्र मोदी के एक ऐलान ने सबको चौंका दिया।

नरेंद्र मोदी ने जननायक कहे जाने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का ऐलान किया। मंडल कमीशन से पहले, कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में ओबीसी आरक्षण लागू किया। उन्होंने ओबीसी को 30 फ़ीसदी आरक्षण दिया और इसे पिछड़ा, अति पिछड़ा में विभाजित किया। अति पिछड़ा (लोवर ओबीसी) को 12 फीसदी और पिछड़ों (अपर ओबीसी) को 8 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। इसे सामाजिक न्याय के कुशल फॉर्मूले के तौर पर याद किया जाता है। अति पिछड़ा ; जिसमें कारीगर, हुनरमंद और दस्तकार तथा सेवादार जातियां आती हैं। ब्रिटिश राज में औद्योगिकीकरण के चलते इनकी आर्थिक स्थिति बहुत बदहाल हुई। इनके लिए अलग से आरक्षण का प्रावधान करके कर्पूरी ठाकुर ने बड़ा काम किया था। इसलिए आज अतिपिछड़ा तबका उन्हें मसीहा के तौर पर देखता है।

कर्पूरी ठाकु र को भारतरत्न दिया जाना सराहनीय है। लेकिन यहां कई सवाल उठते हैं। क्या यह वास्तव में कर्पूरी ठाकुर का सम्मान है या छिपा हुआ राजनीतिक एजेंडा? क्या नागरिक सम्मानों के पीछे भी राजनीति होगी? जो काम बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने किया, वही काम तमिलनाडु में करुणानिधि ने किया। ऐसे में यह सवाल उठता है कि करुणानिधि को भारत रत्न क्यों नहीं? हालांकि कई और ऐसे नाम हैं, जिनके बारे में चर्चा हो सकती है। लेकिन यहां मसला सामाजिक न्याय और आरक्षण के जरिए पिछड़ों के सशक्तिकरण का है। इसीलिए कर्पूरी ठाकुर की तरह करुणानिधि की चर्चा जरूरी है। करुणानिधि की चर्चा इसलिए भी की जा रही है क्योंकि तमिलनाडु पहला राज्य है, जिसने सामाजिक न्याय के लिए पिछड़ों को सबसे पहले आरक्षण दिया।

ब्रिटिश हुकूमत की मद्रास प्रेसीडेंसी में सबसे पहले 1921 में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। लेकिन तात्कालिक विरोध के चलते यह 1927 में लागू हुआ। दरअसल, मद्रास प्रेसीडेंसी में आरक्षण लागू करने का ठोस और बुनियादी कारण मौजूद था। इस प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों का वर्चस्व और पिछड़े-दलितों की बड़ी दयनीय स्थिति थी। आंकड़ों के अनुसार मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्राह्मण आबादी केवल 3.2 फीसदी थी, लेकिन (1912 में) 55फीसदी डिप्टी कलेक्टर, 72.6फीसदी जिला मुंसिफ और 83फीसदी उप न्यायाधीश पदों पर ब्राह्मण काबिज थे।

1921 की जनगणना के अनुसार तीन चौथाई ब्राह्मण शिक्षित थे। जबकि यहां पर देवदासी जैसी अमानवीय प्रथा मौजूद थी। जमीनों पर एक खास तबके का कब्जा था। दलितों-पिछड़ों का शोषण और उत्पीड़न होता था। इसके खिलाफ मद्रास प्रेसीडेंसी में 1915-16 में पिछड़ी जातियों के नेतृत्व में जस्टिस आंदोलन शुरू हुआ। इसे द्रविड़ आंदोलन भी कहा गया। सी. एन. मुलियार, टी. एन. नायर, त्यागराज चेट्टी जस्टिस आंदोलन के मजबूत स्तंभ बने। आगे चलकर जस्टिस आंदोलन एक राजनीतिक दल में तब्दील हो गया। 1920 में जस्टिस पार्टी ने पहला चुनाव जीता। देवदासी प्रथा को समाप्त किया गया। भूमि सुधार लागू किए गए। दलितों की वंचना को गैर कानूनी घोषित किया गया। स्वतंत्रता के बाद बने मद्रास प्रान्त में 1954 में दलितों-पिछड़ों के लिए 41 फीसदी आरक्षण था। 1968 में मद्रास का नाम बदलकर तमिलनाडु हो गया। 1957 में पहली बार विधानसभा पहुंचने वाले करुणानिधि ने 13 बार जीत हासिल की। हमेशा अपराजेय रहने वाले करुणानिधि 1969 में पहली बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। 1990 में करुणानिधि ने 41 फीसदी आरक्षण को बढ़ाकर 69फीसदी कर दिया।

डीएमके नेता करुणानिधि ने तमिलनाडु में बहुत वैज्ञानिक ढंग से आरक्षण का निर्धारण किया। ओबीसी को 50 फ़ीसदी आरक्षण दिया गया। इसको पिछड़ा और अति पिछड़ा में विभाजित किया गया। इनकी भी दो-दो अलग कैटेगरी बनाई गई। पिछड़ा को दो कैटेगरी में विभाजित किया गया। बीसी जनरल को 26.5 फ़ीसदी और बीसी मुस्लिम को 3.5 फीसदी आरक्षण दिया गया। दूसरी कैटेगरी, मोस्ट बैकवर्ड क्लास के 20 फीसदी आरक्षण को दो भागों में विभाजित किया गया।

मोस्ट बैकवर्ड कम्युनिटीज को 13 फीसदी और डी नोटिफाईड कम्युनिटी को 7 फीसदी। इसी तरह अनुसूचित जाति के लिए 18 फ़ीसदी आरक्षण को 15 और 3 फीसदी की दो कैटेगरी में बांटा गया। अनुसूचित जनजाति के लिए 01 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया। यानी कु ल मिलाकर 69 फीसदी आरक्षण तमिलनाडु में किया गया। ये आंकड़े गवाह हैं कि तमिलनाडु में सामाजिक न्याय के लिए बहुत स्पष्ट नियम और नीतियां बनाई गईं। इसीलिए यह सवाल पूछा जा रहा है कि-
पिछड़ा समाज से आने वाले और पिछड़ों के लिए सामाजिक न्याय को बड़ी मजबूती से लागू करने वाले करुणानिधि को भारत रत्न क्यों नहीं? क्या नागरिक सम्मान भी राजनीतिक जरूरत के हिसाब से दिए जाएंगे?

क्या लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर कर्पूरी ठाकुर को सम्मान दिया गया? बिहार में बीजेपी की खिसकती जमीन को बचाने के लिए और खासकर अति पिछड़ों के बीच पैठ बरकरार रखने के लिए कर्पूरी जी को भारत रत्न दिया गया है। यह महज छलावा है। इसका प्रमाण यह है कि 1978 में जब कर्पूरी ठाकुर ने आरक्षण लागू किया था तो भाजपा की पूर्व पार्टी जनसंघ ने उनकी सरकार को दिया गया समर्थन वापस ले लिया था और तमाम जनसंघियों ने खुलकर नारे लगाए थे-
'ई आरक्षण कहां से आई, करपुरिया की माई बियाई!'


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