कर्नाटक: डबल इंजनियों की सांप्रदायिक पैंतरेबाजी
कर्नाटक के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के आखिरकार, खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक-धार्मिक नारों का सहारा लेने पर उतर आने पर, जैसा कि अनुमान लगाया जा सकता था

- राजेंद्र शर्मा
वास्तव में, 2014 के आम चुनाव में ''अच्छे दिन'' के अपने सारे वादों के बावजूद, नरेंद्र मोदी ने सांप्रदायिक धु्रवीकरण के मुद्दों से भी खास परहेज नहीं किया था। इसीलिए, जहां उनके प्रचार अभियान में कथित ''पिंक रिवोल्यूशन'' पर (यानी मांस के कारोबार के नाम से मुसलमानों पर) हमले के बहाने, आम तौर पर मुस्लिमविरोधी भावनाओं को सहलाया गया था, तो 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगों के संघी-भाजपायी आरोपियों को उनकी सेवाओं के लिए, उनके खिलाफ मामले दर्ज होने के बावजूद, चुनाव में तथा चुनाव के बाद भी, बखूबी पुरस्कृत किया गया था।
कर्नाटक के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के आखिरकार, खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक-धार्मिक नारों का सहारा लेने पर उतर आने पर, जैसा कि अनुमान लगाया जा सकता था, चुनाव आयोग के कान पर जूं तक नहीं रेंगी है। लेकिन, यह मोदी निजाम मेें भारतीय जनतंत्र से लोगों की अपेक्षाओं को जिस रसातल में पहुंचा दिया है उसी का बयान करता है कि कर्नाटक में भाजपा की मुख्य-प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस समेत, दूसरी किसी भी उल्लेखनीय राजनीतिक ताकत ने, चुनाव आयोग से इसकी शिकायत तक करना जरूरी नहीं समझा है कि मोदी का कर्नाटक में अपने चुनावी प्रचार में बजरंग बली के भक्तों और विरोधियों के आधार पर, राजनीतिक-चुनावी विभाजन की दुहाई देना और अपनी सभाओं में बार-बार मतदाताओं से ''बजरंग बली की जय बोलकर'' वोट डालने की अपीलें करना, सीधे-सीधे धर्म के नाम पर वोट मांगना है, जो भारतीय चुनाव कानून के अंतर्गत स्पष्टï रूप से वर्जित है। पर जब सुनवाई की ही उम्मीद न हो, तो फरियाद करने की बेसूद मेहनत भी कौन करेगा?
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इस प्रसंग में शिव सेना के मुखिया, उद्घव ठाकरे पर ही यह याद दिलाने का जिम्मा आया कि एक समय था जब ''हिंदू'' होने की दुहाई के सहारे वोट मांगने के कारण, उनके पिता बाल ठाकरे से चुनाव आयोग ने दंडस्वरूप ''मताधिकार'' ही छीन लिया था! लगता है कि मोदी राज में नरेंद्र मोदी पर, सामान्य लोगों तथा खासतौर पर विपक्षी पार्टियों पर लागू होने वाले नियम-कायदे लागू ही नहीं होते हैं!
लेकिन, यह कर्नाटक में अपने धुंआधार चुनाव प्रचार के आखिरी दिनों में, चुनावी बाजी हाथ से निकलती देखकर मोदी के ''बजरंग बली'' के जैकारों का सहारा लेने का या अपने राजनीतिक-चुनावी विरोधियों को 'बजरंग बली विरोधी' बताने के जरिए, धार्मिक दुहाई को राजनीतिक-चुनावी हथियार बनाने भर का भी मामला नहीं है। इसे चुनावी तरकश का तीर बनाए जाने का संदर्भ भी महत्वपूर्ण है। संदर्भ है कांग्रेस के कर्नाटक के चुनाव घोषणापत्र में इसका वादा किए जाने का कि सांप्रदायिक नफरत फैलाने तथा हिंसा करने वाले संगठनों पर रोक लगायी जाएगी, वह चाहे पीएफआइ हो या बजरंग दल।
लेकिन, भारत का प्रधानमंत्री, इस विचार को ही इस भोंडी दलील से हिंदू-विरोधी साबित करने की कोशिश कर रहा था कि बजरंग दल के लोग, बजरंग बली का जैकारा लगाने वाले लोग हैं; उनके खिलाफ नफरत फैलाने तथा हिंसा करने के लिए, प्रतिबंध लगाने की या कोई अन्य दंडात्मक कार्रवाई की ही कैसे जा सकती है? याद रहे कि प्रधानमंत्री की दलील यह नहीं थी कि बजरंग दल के लोग ऐसी गतिविधियों में शामिल नहीं हैं या शामिल नहीं हो सकते हैं। उनकी दलील यह थी कि बजरंग बली की जय बोलने वाले, उसके बाद कुछ भी करें, उनके खिलाफ उस तरह कार्रवाई नहीं की जा सकती है, जैसे हिंदू-इतर धर्मावलंबियों के मामले में की जा सकती है। यहां से भारत को हिंदू राष्टï्र घोषित करने का दावा, जिसमें हिंदुओं को विशेषाधिकार तथा गैर-हिंदुओं को कमतर अधिकार होंगे, एक कदम दूर ही रह जाता है!
बहरहाल, नरेंद्र मोदी चुनाव के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए बजरंग बली को हथियार बनाने पर ही नहीं रुक गए। इसके तरा-ऊपर उन्होंने अपने चुनाव प्रचार में ''केरला स्टोरी'' नाम की एक उस घोर सांप्रदायिक प्रचार फिल्म को भी हथियार बनाया, जिसका कुल मिलाकर एक और एक ही संदेश है—'मुसलमानों से सावधान!' यह फिल्म किस कदर झूठे प्रचार का सहारा लेती है, इसका अंदाजा सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि फिल्म के रिलीज होने से पहले ही, उसकी प्रचार सामग्री को देखते हुए भड़के व्यापक विरोध के सामने, उसके प्रदर्शन पर रोक लगाने की याचिकाओं को तो केरल हाई कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया। फिर भी, अदालत ने यह सुनिश्चित किया कि फिल्म के टीजर/ प्रोमो में किए गए इस दावे को वापस ले लिया जाए कि यह केरल की किन्हीं 32,000 युवतियों की सच्ची कहानी है क्योंकि उसके इस दावे का कोई आधार ही नहीं है। इसके बजाए, फिल्म के निर्माताओं ने फिल्म के शुरू में यह डिस्क्लेमर जोड़ने का वचन दिया कि यह काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है। लेकिन, इस सारे सच को झुठलाते हुए, देश का प्रधानमंत्री इस फिल्म को न सिर्फ ''आतंकवाद का सच'' घोषित करने में जुटा था, बल्कि इसके ''सच'' होने पर सवाल उठाने वाले, अपने तमाम राजनीतिक विरोधियों को 'आतंकवाद का हिमायती' करार दे रहा था। और मोदी की भाजपा के ये विरोधी, प्रधानमंत्री के अनुसार 'आतंकवाद की हिमायत' क्यों कर रहे थे? तुष्टïीकरण के लिए! यहां आकर उनकी मंशा पूरी तरह से साफ हो जाती है। मंशा एक ही है—मुसलमान और आतंकवाद को समानार्थी बनाना!
कहने की जरूरत नहीं है कि कर्नाटक में अपने चुनाव प्रचार के बीच नरेंद्र मोदी को पहलेे किसी संभावित कार्रवाई से बजरंग दल को बचाने की और आगे चलकर इस फिल्म प्रचार करने की याद इसीलिए आयी कि ये दोनों ही उनके सांप्रदायिक धु्रवीकरण के एजेंडे को आगे बढ़ाने में मददगार तो हैं ही, इसके अलावा मुस्लिम विरोधी नफरत को किसी तमगे की तरह उनकी छाती पर टांक कर, तत्काल इस चुनाव में हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक धु्रवीकरण करने का भी साधन हैं। बजरंग दल की सार्वजनिक रूप से हिमायत, अगर खुद कर्नाटक में उसके उग्र व आक्रामक मुस्लिम विरोधी अभियान का, आए दिन के मौन अनुमोदन से आगे बढ़कर, अब एक मुखर अनुमोदन करने के जरिए वही काम करती थी, तो ''केरला स्टोरी'', बगल में स्थित केरल से 'बिना बम-गोली के, आतंकवाद' के खतरे का झूठा हौवा दिखाकर। वास्तव में यह फिल्म संघ-भाजपा के टू-इन-वन सांप्रदायिक प्रचार का हथियार है—लव जेहाद के खतरे का प्रचार और मुसलमानों से आतंकवाद के खतरे का प्रचार।
कहने की जरूरत नहीं है कि इस चुनाव में नरेंद्र मोदी की भाजपा द्वारा अजमाए गए सांप्रदायिक गोलबंदी के हथियार, खुद नरेंद्र मोदी द्वारा इस्तेमाल किए गए अपने सांप्रदायिक तरकश के इन तीरों तक ही सीमित किसी भी तरह नहीं रहे। खुद प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस्तेमाल किए गए ''बजरंग बली'' और ''केरला स्टोरी'' जैसे तीर तो एक तरह से सांप्रदायिक धु्रवीकरण के प्रयास के लिए ''टॉप अप'' की तरह थे—रही बची कसर पूरी करने के लिए। वर्ना खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चुनावी पैंतरों की शुरूआत तो, चुनाव की तारीखों की घोषणा से ठीक पहले, कर्नाटक की भाजपा सरकार ने, अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के दायरे में, पिछड़े मुसलमानों को हासिल 4 फीसदी आरक्षण को एकाएक खत्म कर के और आरक्षण का यह हिस्सा राज्य के दो असरदार समुदायों, लिंगायत तथा वोक्कलिगा के बीच बांटकर ही कर दी थी। यह दूसरी बात है कि इस चाल से उसे खास कामयाबी नहीं मिली और सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव से ठीक पहले उठाए गए इस कदम के अमल पर फौरी तौर पर रोक लगा दी। इतना ही नहीं, पहले से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था में उसकी छेड़छाड़ ने, समस्याओं तथा असंतोष का पिटारा और खोल दिया।
जब इस सब को भी उनके हिसाब से वांछित सांप्रदायिक धु्रवीकरण के लिए नाकाफी समझा गया, तो भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में 'समान नागरिक संहिता' बनाने की और इसके साथ ही राष्टï्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लाने की भी घोषणा कर दी गयी। समान नागरिक संहिता के मंसूबे को, जो आरएसएस-भाजपा के मूल एजेंडे का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, आम प्रचार के अलावा पिछले साल के शुरू में उत्तराखंड में चुनाव के अपने वादों में शामिल करने से शुरू कर, मोदी राज में अपेक्षाकृत तेजी से आगे बढ़ाया गया है। कुछ विश्लेषकों के अनुसार तो यह 2024 के चुनाव में भाजपा के प्रमुख वादों में से एक भी हो सकता है।
लेकिन, राष्टï्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) तो अभी तक अपवादस्वरूप असम राज्य तक ही सीमित रहा है। और वहां भी सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में और अस्सी के दशक के असम समझौते के प्रावधानों के अनुसार, एनआरसी की अपडेटिंग की जो कसरत की गयी थी, उसके नतीजों को खुद संघ-भाजपा और उनकी राज्य सरकार ने न सिर्फ खारिज कर दिया है बल्कि उन पर किसी भी तरह का अमल लगभग असंभव ही बना दिया है। उधर, 2019 में नागरिकता का कानून में धर्म को घुसाने वाले के संशोधन के थोपे जाने के बाद, 2020 की अब स्थगित जनगणना के साथ, एनआरसी कराए जाने की आशंकाओं से जब देश भर में विरोध की प्रबल लहर उठी थी, खुद मोदी सरकार ने एलान किया था कि देश में अन्यत्र कहीं एनआरसी कराने का उसका इरादा नहीं है। उसके बाद से खुद मोदी सरकार ने यह एलान एक से ज्यादा मौकों पर दोहराया है। इसके बावजूद, कर्नाटक में चुनाव घोषणापत्र में एनआरसी लाने का वादा किया जाना, मोदी की भाजपा के खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिकता की ढलान पर आगे से आगे खिसकते जाने को ही दिखाता है।
वास्तव में, 2014 के आम चुनाव में ''अच्छे दिन'' के अपने सारे वादों के बावजूद, नरेंद्र मोदी ने सांप्रदायिक धु्रवीकरण के मुद्दों से भी खास परहेज नहीं किया था। इसीलिए, जहां उनके प्रचार अभियान में कथित ''पिंक रिवोल्यूशन'' पर (यानी मांस के कारोबार के नाम से मुसलमानों पर) हमले के बहाने, आम तौर पर मुस्लिमविरोधी भावनाओं को सहलाया गया था, तो 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगों के संघी-भाजपायी आरोपियों को उनकी सेवाओं के लिए, उनके खिलाफ मामले दर्ज होने के बावजूद, चुनाव में तथा चुनाव के बाद भी, बखूबी पुरस्कृत किया गया था।
यह अपने उग्र सांप्रदायिक समर्थकों के लिए इसका इशारा था कि उनके अच्छे दिन जरूर आएंगे। यहां से चलकर, 2017 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव तक, खुद नरेंद्र मोदी 'श्मशान बनाम कब्रिस्तान' और 'दिवाली बनाम रमजान' पर पहुंच चुके थे। दूसरे कार्यकाल में नागरिकता कानून संशोधन, कश्मीर में धारा-370 के अंत व राज्य के विभाजन आदि से शुरू कर, समान नागरिक संहिता और अब एनआरसी तक और कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी, बजरंग दल के अनुमोदन तक, नरेंद्र मोदी ने खुल्लमखुल्ला मुस्लिमविरोधी ढलान पर तेजी से दौड़ लगायी है। अब यह तो 2024 का चुनाव ही तय करेगा कि इस दौड़ का अंत धावक के लुढ़क पड़ने मेें होगा या भारत के हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राष्ट्र बनने में।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


