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कंठमणि बुधौलिया का न रहना : पुराने मूल्यों का खत्म होना

कठमणि बुधौलिया वकील साहब के न रहने की खबर सुनकर मन बहुत पीछे चला गया। दतिया मध्य प्रदेश में वे कोई हमारे बहुत नजदीकी संपर्कवालों में से नहीं थे

कंठमणि बुधौलिया का न रहना : पुराने मूल्यों का खत्म होना
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- शकील अख्तर

कठमणि बुधौलिया वकील साहब के न रहने की खबर सुनकर मन बहुत पीछे चला गया। दतिया मध्य प्रदेश में वे कोई हमारे बहुत नजदीकी संपर्कवालों में से नहीं थे। पोलिटिकल सोच भी नहीं मिलती थी। मगर वे सबसे विश्वसनीय लोगों में से एक थे।

बुधौलिया जी का अभी 30 सितम्बर को निधन हो गया। 83 साल के थे। उम्र में हमसे काफी बड़े। जब हम लोग कालेज में थे तब वे किला चौक पर समाजवाद के पक्ष में भाषण देते थे। स्थानीय अखबारों में लेख और कविता लिखते थे। और कलेक्ट्रेट एवं सेशन कोर्ट ऊपर चढ़कर राजगढ़ ( महल) में होता था। वहां पेक्टिस करते थे। बहुत सीधी चढ़ाई थी कोर्ट जाने की। दतिया में मुहावरा था कि बेटा राजगढ़ चढ़ा-चढ़ाकर मार लेंगे! मतलब इतने मुकदमे कर देंगे कि रोज पेशी होगी और राजगढ़ चढ़ना होगा। सिर्फ गाड़ियां चढ़ पाती थीं। जज कलेक्टर के पास होती थीं। एक वकील साहब की याद है। शिरोमणि सिंह बुंदेला की। उनकी जीप होती थी। वे उससे आते थे।

श्याम सुन्दर श्याम जो कई बार दतिया के विधायक रहे और वकील भी थे, उन्हें जब जाना होता था तो बुंदेला जी या महाराजा किशन सिंह जो दतिया के महाराज थे, और दतिया भिंड से सांसद भी बने, एक बार जो वसुन्धरा राजे हारी थीं, उनसे ही हारी थीं, अपनी जीप में लेकर जाते थे।

उन दिनों की राजनीति ऐसी ही होती थी। श्यामजी जो कई बार विधायक रहे। 1977 में भी जनता पार्टी की आंधी में जीते। 1980 भी जीते। उससे पहले भी कई। उनके पास गाड़ी नहीं थी। मृत्यु तक। 1984 में वे नहीं रहे थे। अभी कुछ समय पहले आसिफ इब्राहिम जो आईबी चीफ रहे एक दिन पूछ रहे थे कि वे दतिया में कांग्रेस के कौन से नेता थे जो तांगे में बैठकर आया करते थे?

एस पी आफिस बग्गीखाने में था। आसिफ इब्राहिम दतिया एसपी थे। हमने बताया श्याम जी। चुनाव भी केवल एक जीप से लड़ लिया जाता था। किराए की जीप नेता कार्यकर्ताओं के लिए। और महाराजा किशन सिंह की जीप जो रोज नहीं मिल पाती थी, प्रत्याशी श्याम जी के लिए।

तो बता यह रहे थे कि गरीब कमजोर को भी और छात्र युवा नेताओं को भी धमकी यह दी जाती थी कि राजगढ़ चढ़ा-चढ़ाकर मार लेंगे। मगर चढ़ने का तो कष्ट था। लेकिन उपर एक वकील साहब हुआ करते थे जो किसी के साथ अन्याय नहीं होने देते थे। यही कंठमणि बुधौलिया जी। सबके केस फ्री में लड़ना। और पुलिस प्रशासन राजनीति किसी के दबाव में न आना। हमने जो कहा विश्वसनीय! वह यही बात थी कि जिस को भी वकील साहब के पास पहुंचा दो मदद हो जाती थी। और बंदा जब वापस लौटता था भरोसे के साथ। वकील साहब मिल गए अब कुछ नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि और वकील मदद नहीं करते थे। मगर बुधौलिया जी तक पहुंचना सबसे आसान हुआ करता था। शाम को किला चौक पर भी मिल जाते थे। सुबह घर पर भी। दिन भर कोर्ट में कहीं भी पकड़ लो।

इतने सहज सरल और शांत व्यक्ति अब कम होते हैं। माहौल में गुस्सा, नफरत क्रूरता भर दिया है। बुधौलिया जी हल्की मुस्कान, दाढ़ी और हमेशा खादी की पेंट-शर्ट और वकालत का काला कोट भी खादी का। समाजवादी थे। इमरजेन्सी में जेल गए। मगर जब जनता पार्टी की सरकार आई तो उसने सबसे पहले छात्र आंदोलनों को ही कुचलने का काम किया। आज की तरह आंदोलनजीवी और अरबन नक्सल तो नहीं बोल सके मगर झूठे मुकदमे इसी तरह कायम किए। जेल भेजा।

उस समय कंठमणि बुधौलिया जो इस सरकार को लाने के लिए जेल गए थे उन लोगों के लिए लड़े जिन्हें अब यह जनता पार्टी की सरकार प्रताड़ित कर रही थी। छात्र और युवा नेताओं के लिए सड़कों पर जुलूस निकालाना, धरना प्रदर्शन जेल जाना कोई मुश्किल काम नहीं होता था। उन दिनों खूब संघर्ष होता था।

लेकिन मुश्किल होता था ढेर सारे झूठे मुकदमे लड़ना। बुधौलिया जी सबके ऐसे मुकदमे लड़ते थे। मदद और लोग भी करते थे। श्याम जी खुद बहुत अच्छे वकील थे। मगर उन्हें ले जाना आसान नहीं था। चल रहे हैं, चल रहें है कहते-कहते दोपहर हो जाती थी। ब्रजमोहन नगार्च भी कभी पैसे नहीं मांगते थे। मगर इतने व्यस्त वकील थे कि उन्हें छोटे-छोटे मामलों में रोज खड़ा करना मुश्किल था। युगल किशोर लिटोरिया भी मददगार वकील थे। मगर वे भी बड़े वकील। ड्राफ्टिंग वगैरह करने में मदद कर देते थे। कोर्ट में चले भी जाते थे। मगर उनके पास भी काम इतना होता था कि ज्यादा परेशान नहीं कर सकते थे।

बुधौलिया जी की खास बात यह थी कि वे जिसे पहुंचाओ उससे आत्मीयता से मुस्करा के मिलते थे। गरीब कमजोर की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि वह कहीं जाते हुए किसी से मिलते हुए डरता है। हर बार आप से कहेगा कि आप चलो। यह संभव नहीं होता। लेकिन बुधौलिया वकील साहब के मामले में एक बार जो चला जाता था फिर वह आप से कहना तो दूर दूसरे को ले जाकर भी खुद ही मिलवा देता था। यह सहजता थी उनमें कि मिलने वाला एक ही मुलाकात में उन पर अधिकार समझने लगता था।

दरअसल व्यक्ति के बहाने वह दौर जिन्दा हो जाता है। करीब 45 -50 साल पुराना। वैचारिक मतभेद तब भी होते थे। मगर उनमें धर्म जाति का विभाजन करने वाले लोग नहीं होते थे। बुधौलिया जी जाति धर्म से परे सबकी मदद करते थे। 1980 में जब नई कलेक्ट्रेट बन गई तो ग्राउन्ड फ्लोर पर ही सीढ़ियों के पास बुधौलिया जी कुर्सी लगी होती थी।

वकीलों का आप को मालूम है कि कोर्ट में बैठने की बहुत मारामारी होती है। मगर जो भी नया वकील पहुंचता था उसे बैठने के लिए बुधौलिया जी अपने आस पास कहीं जगह कर देते थे। उसे सिखाते भी थे। और जैसा कि हमारे यहां के स्मार्ट लोग होते हैं थोड़े ही दिन में बुधौलिया जी के ही क्लाइंट तोड़ने की कोशिश करने लगते थे। मगर वे कभी गुस्सा नहीं होते थे। यह सबसे बड़ी परीक्षा होती है। और वकील साहब इसमें हमेशा पास होते थे।

लगता है कई वैल्यूज ही खत्म हो गईं। शराफत, कोई नाराजगी नहीं, कोई पैसे की मारामारी नहीं, किसी से कोई काम्पिटिशन नहीं।
अलविदा आदरणीय वकील साहब!


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