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चरित्र की कसौटी पर कंगना और दीपिका

महिला स्वतंत्रता की परिभाषा भी संकीर्ण मानसिकता के लोग अपने हिसाब से ही तय करना चाहते हैं

चरित्र की कसौटी पर कंगना और दीपिका
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- सर्वमित्रा सुरजन

महिला स्वतंत्रता की परिभाषा भी संकीर्ण मानसिकता के लोग अपने हिसाब से ही तय करना चाहते हैं। इसलिए इन लोगों को कभी दीपिका पादुकोण से तकलीफ होती है, कभी महुआ मोईत्रा से और राहुल गांधी से तो हमेशा ही ये लोग चिढ़े रहते हैं, क्योंकि महिलाएं, बच्चियां, किशोरियां सब बड़ी सहजता से राहुल गांधी से मिलती हैं। दिक्कत ये है कि मजबूत इच्छाशक्ति के इन लोगों को सत्ता के हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता है।

बीते शुक्रवार को कंगना रनौत की फिल्म तेजस रिलीज हुई, और बुरी तरह पिट गई। फिल्मों का फ्लॉप होना कोई अनहोनी नहीं है। तीसरी कसम जैसी उत्कृष्ट फिल्म को भी दर्शकों ने नकार दिया था, लेकिन बाद में उसकी सार्थकता समझ आई। वैसे तेजस की कोई तुलना कालजयी रचना तीसरी कसम से नहीं की जा सकती, न ही ये कहा जा सकता है कि इस फिल्म का भविष्य क्या होगा। फिलहाल तो ये देखकर आश्चर्य हुआ कि जिस फिल्म को लोग थियेटर में देखने नहीं जा रहे, जिस फिल्म के कई शो दर्शकों की गैरमौजूदगी के कारण रद्द करने पड़े, उसे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी और पूरी योगी केबिनेट ने लखनऊ में लोकभवन में की गई स्पेशल स्क्रीनिंग में देखा। बताया जा रहा है कि इस फिल्म के आखिरी दृश्यों में योगीजी के आंसू भी निकल आए। इस स्पेशल स्क्रीनिंग की जगह अगर ये दोनों मुख्यमंत्री अपनी केबिनेट के साथ सिनेमा हॉल जाकर ही फिल्म देख लेते तो थियेटर वालों की कमाई भी हो जाती साथ ही इस पर जनता के पैसों से हुआ खर्च भी बच जाता।

खैर, दोनों मुख्यमंत्रियों के साथ फिल्म देखने के लिए कंगना रनौत भी मौजूद थीं और इसके बाद उन्होंने पत्रकारों से कहा कि महाराज जी ने इस फिल्म को देखा और सराहा, इससे उन्हें कितनी खुशी हुई है। इसके साथ ही कंगना ने इस फिल्म को न देखने वालों को एंटी नेशनल भी करार दिया। कंगना के विचार सुनने के बाद लगा कि क्या अब इस देश में मनोरंजन का हक भी जनता से छीन लिया जाएगा। क्या अपनी मर्जी से लोग ये भी तय नहीं कर पाएंगे कि कौन सी फिल्म उन्हें देखनी है और कौन सी नहीं। खबर है कि अहमदाबाद में तेजस जिस थियेटर में लगी थी, वो पूरा खाली था, तो क्या कंगना अब अहमदाबाद की जनता को राष्ट्रविरोधी कह देंगी।

वैसे बीते शुक्रवार फिल्म की निराशाजनक शुरुआत के बाद कंगना ने सोशल मीडिया पर आकर लोगों से नाटकीय तरीके से अपील की कि उनकी फिल्म को लोग थियेटर में जाकर देखें। कंगना ने अपनी बात में वजन डालने के लिए कोरोनाकाल के बाद की दुश्वारियों और फिल्म उद्योग की परेशानियों का जिक्र भी किया, हालांकि उनकी ये अपील हास्यास्पद ही लगी, क्योंकि कोरोना के बाद पठान और गदर 2 जैसी फिल्मों ने खूब कमाई की है। जबकि कंगना रनौत की फिल्में लगातार पिट रही हैं और इसकी एक ही वजह हो सकती है कि दर्शक उनमें उत्कृष्टता की कमी महसूस कर रहे होंगे। दर्शक हो या जनता लोकतंत्र में उनके मन की बात ही सुनी जानी चाहिए। मगर 2014 के बाद जो तथाकथित आजादी देश को मिली है, उसमें दर्शकों और जनता की आजादी पर पहरे बिठाए जा रहे हैं। कंगना ने अपनी फिल्म को देखने की अपील के बाद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लोगों से अपने फैन क्लब से जुड़ने की अपील भी की और इसके अलावा अपने साथ न जुड़ने वाले लोगों को एक तरह से बद्दुआ देते हुए लिखा कि, 'वे सभी लोग जो मेरा बुरा चाह रहे हैं, उनका जीवन हमेशा दुखों से भरा ही रहेगा, क्योंकि उन्हें जीवन भर हर दिन मेरा गौरव ही देखना होगा। '

कंगना रनौत जाहिर तौर पर ये सब प्रचार के लिए कर रही हैं और उनसे पहले भी खुद को लाइमलाइट में लाने के लिए ऐसे अतरंगी तरीके दूसरे कलाकार अपनाते रहे हैं। अब तक ऐसे कलाकारों का मखौल बनाया जाता रहा है। लेकिन कंगना रनौत के मामले को हल्के में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि सक्रिय राजनीति में न होने के बावजूद जिस तरह वो कभी इजरायली राजदूत से मिल रही हैं, जैसे उनकी फिल्म को देखने पूरी यूपी सरकार पहुंच रही है, उससे समझ आता है कि इस प्रचार-प्रसार के पीछे कोई राजनैतिक खेल छिपा हुआ है। कंगना बार-बार कम उम्र में घर छोड़कर निकलने और अपने संघर्षों का हवाला देकर बताती हैं कि अपना जीवन उन्होंने खुद संवारा है। छोटे शहर की लड़की होने के बावजूद अपनी मेहनत से शोहरत हासिल करना अच्छी बात है। लेकिन ये चारित्रिक दृढ़ता बरकरार भी रहना चाहिए। आपकी फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया तो आप उन्हें राष्ट्रविरोधी कह देंगी, ये तो गलत बात है। मगर राष्ट्रवाद की अफीम का सेवन जिन लोगों ने कर लिया है, उन्हें इस चारित्रिक कमजोरी में भी देशप्रेम ही दिखेगा।

वहीं दूसरी ओर हैं दीपिका पादुकोण, जिन्होंने फिल्म जगत में अपनी मेहनत से ही नाम कमाया है। दीपिका की फिल्म पद्मावत को लेकर किस तरह का बवाल पूरे देश में खड़ा किया गया था, यह सभी को याद होगा। इसके बाद दीपिका की जेएनयू में छात्रों के साथ खड़ी तस्वीर भी बहुत से लोग नहीं भूले होंगे। 2020 में जेएनयू के छात्रों पर नकाबपोश लोगों के हमले के बाद दीपिका जेएनयू पहुंची और चुपचाप प्रदर्शन करने वाले छात्रों के बीच खड़ी रहीं। उनकी चारित्रिक दृढ़ता का एक बड़ा उदाहरण सामने आया। लेकिन दीपिका को केवल इसलिए निशाने पर लिया गया, क्योंकि उन्होंने अपने समकालीन बहुत से कलाकारों की तरह मोदी सरकार की जी हुजूरी नहीं की।

दीपिका अब भी वही कर रही हैं, जो उन्हें ठीक लगता है। जैसे कॉफी विद करण शो में अपने पति रणवीर सिंह के साथ पहुंची दीपिका ने शादी के पूर्व के अपने संबंधों, मानसिक स्वास्थ्य, डिप्रेशन पर खुलकर बात की। इस पर दीपिका को चरित्रहीन ठहराने की मुहिम सोशल मीडिया पर चल गई। दो वयस्क, जो लंबी दोस्ती के बाद अब पति-पत्नी हैं, खुलकर अपने संबंधों पर बात कर रहे हैं, तो इसमें चरित्रहीनता की बात कहां से आ गई।

दीपिका और रणवीर की जिंदगी में उनके आपसी संबंध कैसे रहे और कैसे आगे बढ़े, ये उनका निजी मामला है, जिस पर कुछ बोलने या न बोलने का हक उनका है, दूसरों का कोई हक नहीं बनता कि इसमें किसी को चारित्रिक प्रमाणपत्र दें। विडंबना ये है कि विश्वगुरु बनने के लिए अब भारत ने मध्यकालीन संकीर्णताओं की गलियों से गुजरना शुरु कर दिया है, जहां किसी महिला के चरित्र की मजबूती उसके संबंधों के आधार पर तय की जाती है। उसकी आत्मनिर्भरता और मुद्दों पर स्वतंत्र राय से पुरुष सत्तात्मक समाज तिलमिला जाता है। यहां सिंदूर और खाली प्लॉट जैसी बेहूदगी भरी बातों पर लोगों को गुस्सा नहीं आता, लेकिन एक महिला ने शादी के पहले के अपने जीवन पर कुछ खुलासा कर दिया, तो उन्हें तकलीफ हो जाती है।

दरअसल महिला स्वतंत्रता की परिभाषा भी संकीर्ण मानसिकता के लोग अपने हिसाब से ही तय करना चाहते हैं। इसलिए इन लोगों को कभी दीपिका पादुकोण से तकलीफ होती है, कभी महुआ मोईत्रा से और राहुल गांधी से तो हमेशा ही ये लोग चिढ़े रहते हैं, क्योंकि महिलाएं, बच्चियां, किशोरियां सब बड़ी सहजता से राहुल गांधी से मिलती हैं। दिक्कत ये है कि मजबूत इच्छाशक्ति के इन लोगों को सत्ता के हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता है, इसलिए इनके चरित्र हनन की कोशिशें जारी रहती हैं। मगर ट्रोलर्स यहां भी मार खा जाते हैं। क्योंकि दो लोगों के बीच संबंधों के आधार पर किसी का चरित्र तय करने वाले ये समझ ही नहीं पाते कि चरित्र सच्चाई, ईमानदारी, बुलंद हौसले, दृढ़ इच्छाशक्ति जैसे चुनिंदा अवयवों से मजबूत बनता है और जहां इन अवयवों का अभाव होता है, वहां चरित्र कमजोर पड़ जाता है।

कबीर दास जी ने समाज को बहुत पहले चरित्रचित्रण और परीक्षण का तरीका समझा दिया था। कबीर ने
कहा था-

सोना सज्जन साधु जन, टूटि जुरै सौ बार।
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एकै धका दरार॥
तो कंगना हो या दीपिका, संघर्ष तो सबके जीवन में रहा है। लेकिन यह उनका चयन है कि सौ बार धक्का खाने के बावजूद वो खुद को जोड़ने की हिम्मत रखती हैं या एक धक्का खाकर ही दरार को भरने के लिए सत्ता का फेवीकोल लेने सरकार की शरण में पहुंचती हैं।


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