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मालवा में बदलाव के कबीर

कुछ समय पहले मुझे मालवा की कबीर मंडलियों से मिलने का मौका मिला। यहां मैं कई कबीर मंडलियों के गायकों से मिला

मालवा में बदलाव के कबीर
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- बाबा मायाराम

कबीर मंडलियां पहले से बनी हैं, उन्हें किसी ने नहीं बनाया है। वे मौखिक परंपरा की वाहक हैं। वे लोगों की जरूरत हैं और उनकी अपेक्षाएं पूरी करती हैं। हमने देखा कि लोग दिन भर काम करते हैं और रात में बैठते हैं और सुंदर भजन गाते हैं। तरोताजा होते हैं। कई बार तो रात भर भजन गाकर सीधे सुबह काम पर चले जाते हैं। इसने हमें प्रभावित किया। हम उनसे मिले और सिलसिला चल पड़ा।

कुछ समय पहले मुझे मालवा की कबीर मंडलियों से मिलने का मौका मिला। यहां मैं कई कबीर मंडलियों के गायकों से मिला। गांवों में घूमा और ऐसे समुदाय के लोगों से मिला, जिन्होंने कबीर वाणी को न केवल सुना, बल्कि उनके जीवन में भी आत्मसात किया। इस कॉलम में अपने अनुभव को साझा करना चाहूंगा, जिससे पता चला कि कबीर ने लोगों को कैसे प्रभावित किया है, उनके जीवन को छुआ है।

इस यात्रा में मैं कबीर वाणी के प्रचार प्रसार में लगे कई कबीर गायकों से मिला था। इन सबका कहना था कि वे कबीर के भजनों के माध्यम से उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं, जिससे समाज में भाईचारा बढ़े।

इस पहल की शुरूआत एकलव्य संस्था ने करीब तीन दशक पहले शुरू की थी। संस्था ने कबीर मंडलियों से संपर्क व संवाद स्थापित किया था। कबीर के सामाजिक विचारों को केन्द्र में रखकर इस तरह के नियमित कार्यक्रमों को प्रोत्साहित किया था। हालांकि कबीर को मालवा में मौखिक वाचिक परंपरा में सालों से गाया जाता रहा है। यह श्रुति (सुनना) और स्मृति (याद करना) कबीर परंपरा शताब्दियों से चल रही है। मौखिक परंपरा, श्रुति और स्मृति के आधार पर चलती है, इसमें गीतों में जोड़-घट होती रहती है।

कबीर 15 वीं शताब्दी के क्रांतिकारी कवि, समाज सुधारक थे। वे ऐसे कवि व संत हैं जिन्होंने आर्थिक अभाव में रहते हुए धार्मिक कर्मकांड, जातिवाद और पाखंड का विरोध किया था। जुलाहे के रूप में अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने एक निडर सामाजिक आलोचक की भूमिका को भक्ति और आध्यात्मिकता से जोड़ा था। कबीर के भजनों की खूबी यह है कि 6 सौ साल बाद भी वे जनसामान्य में कई रूपों में मौजूद हैं। कबीर उनके भजन व उन्हें गाने वालों में हैं। मैं इसी मालवा के कबीर को जानने- समझने की कोशिश करने आया हूं।

मध्यप्रदेश का पश्चिमी भाग में मालवा अंचल है। मालवा की एक पुरानी कहावत है- मालव धरती गहन गंभीर, डग डग रोटी पग पग नीर। यह कहावत यहां की उपजाऊ भूमि, जिसमें अच्छी उपज होती है, यहां की समृद्धता को दर्शाती है और पानी की बहुलता को भी। यहां की बोली मालवी है। यहां के ज्यादातर लोग खेती करते हैं। जो भूमिहीन या कम जमीन वाले हैं, वे खेतों में मजदूरी करते हैं। यहां के मालवी गेहूं बहुत प्रसिद्ध थे। कम पानी या बिना पानी के यह गेहूं होते थे। मालवा के दाल-बाफला भी बहुत प्रसिद्ध हैं।

मालवा में कबीर का यह रूप मेरे लिए बहुत आकर्षक था जिसमें पहले लोगों ने कबीर को जाना, समझा और बाद में माना। यानी उनके जीवन में बदलाव किया। यह व्यक्ति के साथ परिवार में बदलाव था। और इसी का संदेश वे कबीर के भजनों के माध्यम से समाज को दे रही हैं। महिला कबीर गायकों को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं। बच्चों की भी मंडलियां बनाई गईं। इस पूरी कोशिश से कई महिला गायक सामने आईं। बच्चों को स्कूल में जाकर कबीर भजनों का प्रशिक्षण दिया, उनकी टीम बनाई।

हालांकि कबीर भजन मंडलियों के साथ एकलव्य का काम 90 के दशक से चल रहा है। इसे व्यवस्थित रूप देने के लिए उस समय पूरा नाम कबीर भजन विचार मंच बनाया गया। बाद में इसे कबीर भजन विचार मंच समूह का नाम दिया गया। इसमें कबीर भजन गाना और उन पर चाय के साथ चर्चा करना, उसके सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ को समझना। वर्ष 1991 से 1998 तक कबीर मंच को एकलव्य ने सहयोग किया, उसका आयोजन किया। कुछ अंतराल के बाद अब नारायण देलम्या की पहल से यह कार्यक्रम चल रहा है।

देवास एकलव्य के सेन्टर प्रभारी रहे रामनारायण स्याग कहते हैं कि कबीर से दो धाराएं निकली हैं- एक है धार्मिक, जिसमें भगवान की भक्ति, गुरू पर श्रद्धा, परमात्मा का नाम, अध्यात्म आदि की है। और दूसरी है सामाजिक, जिसमें जातिवाद, अंधविश्वास, पाखंड, कुरीतियों का विरोध की, सामाजिक बदलाव की, इसी धारा को हमने महत्व दिया। कबीर ने निडरता से सामाजिक बदलाव किया।

एकलव्य संस्था का काम शिक्षा के क्षेत्र में हैं और विशेषकर विज्ञान में, य़ह कबीर से कैसे जुड़ता है, इस पर रामनारायण स्याग कहते हैं कि विज्ञान भी सत्य की खोज करता है, और कबीर ने भी यही किया। कबीर ने कहा कि जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। यानी जिन्होंने खोजा है उन्हें मिला है। दोनों इसी तरह जुड़ते हैं।

रामनारायण स्याग कहते हैं कि गांव समाज में लोगों की पहचान जाति से होती है। वे कहां बैठेंगे, कैसे बात करेंगे, इससे तय होता है। वहां महिला-पुरूष में भेदभाव है। छुआछूत है। इसलिए हमने सोचा कि गांव की जो कबीर मंडलियां हैं, उनसे बातचीत की जाए, उनसे संवाद किया जाए और उन्हें मजबूत किया जाए। इसी सोच से हमने लगातार इसको महत्व दिया।

वे आगे कहते हैं कि सबसे पहले हम नारायण देल्म्या से मिले थे। वे बस से तम्बूरा लेकर जा रहे थे। हम उनके साथ गए, कार्यक्रम में शामिल हुए। यह 1990 के आसपास की बात है। एकलव्य कार्यकर्ताओं ने कबीर साहित्य का संग्रह किया, खुद पढ़ा और लोगों को पढ़ाया। कबीर वाणी से परिचित कराया और अर्थ समझाया।

कबीर मंडलियां पहले से बनी हैं, उन्हें किसी ने नहीं बनाया है। वे मौखिक परंपरा की वाहक हैं। वे लोगों की जरूरत हैं और उनकी अपेक्षाएं पूरी करती हैं। हमने देखा कि लोग दिन भर काम करते हैं और रात में बैठते हैं और सुंदर भजन गाते हैं। तरोताजा होते हैं। कई बार तो रात भर भजन गाकर सीधे सुबह काम पर चले जाते हैं। इसने हमें प्रभावित किया। हम उनसे मिले और सिलसिला चल पड़ा।

एकलव्य कार्यकर्ताओं में भी बदलाव हुआ। स्याग भाई में खुद भी बदलाव आया और उन्होंने एकलव्य से अलग होकर समावेश संस्था के साथ समुदाय आधारित काम किया। वे पंचायतों में महिला सशक्तीकरण का काम करने लगे।

पहले कबीर भजन गायन में भी बदलाव आया। पहले इकतारा, करताल, खंजरी, मंजीरा जैसे वाद्ययंत्रों से कबीर भजन गाए जाते थे। लेकिन अब इसमें कई नए वाद्ययंत्र जुड़ गए हैं। तम्बूरा, हारमोनियम, वायलिन, ढोलक, नगाड़ी, करतार और मंजीरे ने इसे नया रूप दिया है। सुर-तान व कबीर संगत को मजेदार बनाया है। बाजार में कई सीडी आ गई हैं। जगह-जगह कार्यक्रम होते हैं।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि कबीर के 6 सौ साल बाद भी कबीर धारा बह रही है। वह आज मालवा में कबीर भजन मंडलियों में जीवंत हैं, जो नियमित तौर पर उन्हें गाते हैं, सुनते हैं और गुनते हैं, उसमें कुछ जोड़ते और आगे बढ़ाते हैं। कबीर से सीख लेते हैं। खुद बदलते हैं और दूसरों को यही संदेश देते हैं।

कबीर मनुष्य को सबसे बड़ा समझते थे। उन्होंने सभी धर्मों के पाखंड की बात की है और इंसानियत को केन्द्र में रखा है। यह संदेश कबीर गायक लेते हैं और जन-जन तक भजनों के माध्यम से पहुंचाते हैं। यह धारा एक दूसरे को जोड़ती हैं, मिलाती है, भाईचारा सिखाती है। सामाजिक बदलाव लाती है। लेकिन क्या हम ऐसे कबीर से कुछ शिक्षा लेने चाहेंगे?


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