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संयुक्त प्रतिपक्ष की तस्वीर और पैगाम

कई-कई अवरोधों को पार करते हुए आखिरकार एक संयुक्त प्रतिपक्ष का वह चेहरा मतदाताओं के सामने आ ही गया है जिसके बारे में सत्ता पक्ष यानी भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक यह उम्मीद लगाये बैठे थे कि उसे (भाजपा को) चुनौती देने वाली कोई ताकत खड़ी हो ही नहीं सकती

संयुक्त प्रतिपक्ष की तस्वीर और पैगाम
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कई-कई अवरोधों को पार करते हुए आखिरकार एक संयुक्त प्रतिपक्ष का वह चेहरा मतदाताओं के सामने आ ही गया है जिसके बारे में सत्ता पक्ष यानी भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक यह उम्मीद लगाये बैठे थे कि उसे (भाजपा को) चुनौती देने वाली कोई ताकत खड़ी हो ही नहीं सकती। पिछले लगभग डेढ़ वर्षों के प्रयासों के बाद देश के सियासी परिदृश्य में एक ऐसा मजबूत प्रतिपक्ष अंतत: खड़ा नज़र आ रहा है जो अपने बुलन्द हौसलों एवं जनहित से जुड़े मुद्दों के साथ मतदाताओं के समक्ष उपस्थित है, कि जिसे देखकर कहा जा सकता है कि हां, यह भाजपा का विकल्प है और दो दर्जन से ज्यादा दमदार सियासी दलों में ही कई ऐसे नाम हैं जो नरेन्द्र मोदी के स्थान पर चुने जा सकते हैं। कांग्रेसी नेता राहुल गांधी की 6300 किलोमीटर दूरी की 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' के समापन अवसर पर मुंबई के शिवाजी पार्क में आयोजित 'इंडिया' गठबन्धन की विशाल सभा में ऐसे विपक्ष की तस्वीर उभरी है जो भाजपा से लोकसभा चुनाव में दो-दो हाथ करने को तैयार है, जिसकी घोषणा इसी शनिवार को हुई थी।

पक्षपातपूर्ण तरीके से बनाये गये चुनावी कार्यक्रम, ईवीएम के अनसुलझे सवाल, केन्द्रीय जांच एजेंसियों की विरोधी दल के नेताओं पर छापेमारी, समर्थक मीडिया, प्रचार में माहिर आईटी सेल, संसाधनों की कमी जैसे तमाम अवरोधों की चिंता किये बिना एक ऐसा एकजुट विपक्ष सामने आया है जो भयमुक्त है। यही इसकी ताकत है। साथ ही, कांग्रेस के नेतृत्व में उसने राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक न्याय का जो विमर्श रचा है, वही उसका संदेश है। दो दर्जन से अधिक राजनीतिक संगठनों से बने संयुक्त प्रतिपक्ष की जो ताकत है उसमें देश के 60 प्रतिशत मतदाताओं का समावेश है। देखना यह होगा कि क्या कार्यकर्ताओं व समर्थकों की सामूहिक ताकत इस संदेश को लोगों तक सफलतापूर्वक पहुंचा सकेगी और उसे वोटों में तब्दील कर सकेगी। 18वीं लोकसभा में बैठने की व्यवस्था कैसी होगी- यह सारा कुछ इसी प्रयत्न पर निर्भर करेगा।

मुंबई की रैली न केवल संयुक्त विपक्ष का आभास देती है वरन वह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने वाला मंच भी दिखलाई देता है। इसका विस्तार धुर उत्तर के जम्मू-कश्मीर से लेकर दक्षिण भारत के अंतिम छोर यानी तमिलनाडु तक और पूर्वी राज्य बिहार व झारखंड से लेकर पश्चिम के महाराष्ट्र तक का है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी घायल होने के कारण अनुपस्थित थीं तो वहीं उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव बीमार होने के कारण नहीं आये।

दिल्ली व पंजाब में सत्तारुढ़ आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के झंझटों में फंसे हैं इसलिये नहीं आये लेकिन उनके प्रतिनिधि के रूप में सौरभ भारद्वाज मौजूद थे जो खुद भी एक वरिष्ठ नेता हैं। कई दल वैसे अपने राज्यों में परस्पर विरोधी हैं लेकिन वे अपने विवादों को किनारे रखकर इसमें शामिल हुए थे। नेशनल कांफ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला एवं पीडीपी की महबूबा मुफ्ती चाहे अपने राज्य कश्मीर में परस्पर विरोधी हों पर यहां वे साथ बैठे नज़र आये। जिस गठबन्धन के बारे में प्रचारित किया जाता रहा कि वह साथ नहीं चल सकता, उसने वे सारी भ्रांतियां खत्म कर दीं।

विभिन्न नेताओं के दिये भाषणों में यह बात उभरकर आई कि वे सभी तीसरी बार मोदी के चुनकर आने और भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद उत्पन्न होने वाले खतरों से पूर्णत: वाकिफ़ हैं। लोकतंत्र एवं संविधान पर मंडराते बड़े खतरे को सभी महसूस करते दिखाई दिये। भाजपा के 'अबकी बार 400 पार' के नारे के पीछे की मंशा को भी वे जान चुके हैं।

देश भर में इस मंच के माध्यम से संदेश गया है कि भाजपा संविधान को बदलकर मनुस्मृति का शासन लाना चाहती है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भी लोगों को इस खतरे के प्रति आगाह किया कि दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों को किस प्रकार से संविधान के खत्म होने से नुकसान होगा। वहीं राहुल ने अपने भाषण में उस शक्ति के बारे में बतलाया जिसके कारण लोगों के राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अधिकार छीने गये हैं। लगभग सम्पूर्ण विपक्ष न सिर्फ कांग्रेस के आधिपत्य को स्वीकारता नज़र आया बल्कि वह उसी विमर्श को उच्चारित कर रहा था जिसे राहुल व कांग्रेस ने पिछले कुछ समय में गढ़ा है और जिसके ईर्द-गिर्द देश की सियासत सिमटी हुई है।

वैसे तो इस मंच पर मल्लिकार्जुन खरगे व फारुख अब्दुल्ला के अलावा शरद पवार (राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के संस्थापक) जैसे बुजुर्ग नेता थे लेकिन उसी मंच पर युवा नेतृत्व का उभरना भी देखा गया। राष्ट्रीय जनता दल के नेता व पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, शिवसेना के उद्धव ठाकरे, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री (जो जेल में हैं) हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन जैसे कई नेता भी थे जो उम्मीद जगाते हैं कि निरंकुशता एवं मनमानी का प्रतिरोध कभी खत्म नहीं होगा। इनमें वे लोग भी थे जिनकी सरकारों को अनैतिक तरीकों से कथित 'ऑपरेशन लोटस' के तहत या जांच एजेंसियों के जरिये गिराया गया।

विपक्षी नेताओं को जेलों में डालने, निर्वाचित प्रतिनिधियों को संसद में बोलने से रोकने, उनकी गैर मौजूदगी में या बगैर चर्चा के कानून पास कराने जैसे अलोकतांत्रिक कृत्यों के कारण देश भर में उपजे रोष व असंतोष की अभिव्यक्ति के रूप में इस मंच और सभा से जो आवाज़ उठी है वही शिवाजी पार्क का संदेश है। इसे लोगों तक पहुंचाना एक सामूहिक जिम्मेदारी होगी। केवल अपने नहीं, बल्कि गठबन्धन के प्रत्याशियों के लिये प्रचार किया जाएगा तभी विपक्ष कामय़ाब होगा।


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