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रो रही है झेलम कश्मीरियत के क़त्ल पर

श्रीनगर में जहां कदम-कदम पर फौजी नंगी स्टैनगनों के साथ मुस्तैद नज़र आए थे, वैसा पहलगाम में नहीं दिखा था

रो रही है झेलम कश्मीरियत के क़त्ल पर
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- वर्षां भम्भाणी मिर्जा

श्रीनगर में जहां कदम-कदम पर फौजी नंगी स्टैनगनों के साथ मुस्तैद नज़र आए थे, वैसा पहलगाम में नहीं दिखा था। पहलगाम यानी चरवाहों का गांव और वाकई लिद्दर नदी के हमराह यहां सिर्फ घोड़े ही घोड़े नज़र आते हैं। ऊपर के गांवों से नीचे आते हुए घोड़े और फिर इन्हीं रास्तों से लौटते हुए, मानों पहाड़ों के साथ सड़कों पर भी इन्हीं का राज हो। वहां के गुर्जर चरवाहों की यही रोज़ी है।

हां,झेलम मंगलवार की रात से ही रो रही है कश्मीरियत के क़त्ल पर क्योंकि यही वह नदी है जो कश्मीर की जीवन रेखा है; और गवाह है धरती के इस ख़ूबसूरत हिस्से की भोगी हुई पीड़ाओं की। इसने जाना है कि 'धरती का स्वर्ग' कहलाने के बाद आततायी किस तरह पहले लालची नज़रों से देखते हैं और फिर ख़ूनी वार करते हैं। इसने देखा है कि शातिरों ने इसके अपने बच्चों के हाथों में कैसे बंदूकें थमा दीं, लेकिन अब इसने चाहा है कि इस बेहद सुन्दर जगह को जिन बुरी नज़रों ने घेर रखा है उनकी शिनाख्त ज़रूरी है। झेलम का ज़ार-ज़ार रोना जारी है क्योंकि जिन मासूम बेगुनाहों का खून उसने देखा है, वह उसे भीतर से सुखा दे रहा है। वह नई नवेली दुल्हन जो अपने पति के शव के पास बिलख रही है, झेलम उसके दु:ख को झेल पाने में नाकाम है। इसे कश्मीरी अवाम ने भी उसी तरह महसूस किया है और यही वजह है कि ग़मज़दा होकर वह सड़कों पर हैं, मशालें लेकर विरोध-प्रदर्शन कर रही है। अपने शहर बंद कर रही है। जम्मू से श्रीनगर तक यही भावना है, जैसे अभी चुप रहेंगे तो आगे और बड़े गुनाहों के भागी होंगे। वह गुहार लगा रही है 'बंद करो, बंद करो यह ख़ूनी हिंसा बंद करो!ज् वह शर्मिंदा भी है कि अपने मेहमानों को नहीं बचा सकी। वे लगातार बोल रहे हैं, लिख रहे हैं कि हम शर्मिंदा हैं और इस कुकृत्य पर हमारा सर शर्म से झुका हुआ है। हिंदी पट्टी का सोशल मीडिया अगर बहस कर रहा है कि धर्म पूछ कर मारा या सरकार के इंटेलिजेंस की नाकामी है या बिना फ़ोर्स के उस जगह तक पर्यटकों को जाने की अनुमति क्यों थी, तो कश्मीर के लोग लिख रहे हैं कि कोई भी कहानी ऐसे अंत के लिए नहीं बनी है। यह तस्वीर हमेशा-हमेशा के लिए कश्मीर को दर्द देती रहेगी।

आतंकियों ने धर्म पूछा फिर मारा यह बात हरेक के दिल में घर कर गई है। जो केवल यही सच है तो फिर अनंतनाग के सय्यद हुसैन शाह को किसने मारा? मृतकों में उनका नाम क्यों है? वह घायलों को बचाते हुए कुर्बान हुआ। लेखक आशुतोष कुमार लिखते हैं कि अगर आप इतना ही याद रखेंगे और यह भूल जाएंगे कि हमले के दौरान और उसके ठीक बाद घायलों को अपने कंधों पर या घोड़ों से अस्पताल पहुंचाने वालों ने न धर्म पूछा न जाति, तो आप आतंकवादियों की ही मदद कर रहे हैं। अस्पतालों में डाक्टरों और नर्सों ने बहुत कम सुविधाओं के साथ अपनी भूख, प्यास और नींद सब भूलकर घायलों का इलाज किया, जिससे मृतक संख्या को नियंत्रित किया जा सका। अगर आप इसे भूल जाएंगे तो आतंकवादियों की ही मदद कर रहे होंगे। बहुत देर तक कोई सरकारी सहायता नहीं पहुंच पाई थी, कोई वाहन नहीं थे, तब स्थानीय लोग घरों से बाहर निकले और अपनी जान की बाजी लगाकर उन लोगों को रेस्क्यू किया जो हमले की ज़द में थे। अगर आप यह भी भूल जाएंगे तो आप आतंकवादियों की ही मदद कर रहे हैं। सारा का सारा जम्मू-कश्मीर इस जघन्य हत्याकांड के विरोध में उठ खड़ा हुआ है। बिना किसी भय और हिचक के उन्हें संदेश दिया कि कश्मीर का बच्चा-बच्चा उनके खिलाफ़ तनकर खड़ा है। अगर आप यह भूल जाएंगे और केवल हिंदू-मुस्लिम नफ़रती पोस्टर बनाने वालों को याद रखेंगे तो आप आतंकवादियों की ही मदद कर रहे हैं।

पोस्टर की बात करें तो छत्तीसगढ़ भारतीय जनता पार्टी का ही एक पोस्टर सोशल मीडिया में खूब प्रचार पा रहा है। पोस्टर में पत्नी का पति के शव के साथ स्केच है और उस पर लिखा है - 'धर्म पूछा जाति नहीं... याद रखेंगे।' इसे क्या कहा जाए कि पार्टी बेहतर महसूस कर रही है कि जाति नहीं पूछी क्योंकि वे खुद धर्म की सियासत करते हैं और उनके विरोधी जाति की। आपदा में अवसर शायद इसे ही कहा जाता है कि भीषण दु:ख और अपरिहार्य परिस्थिति में भी दलों से सियासत नहीं भूली जाती। किसी को भी यह समझने में क्यों भूल करनी चाहिए कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। वे अपने हिंसक आक़ाओं की हसरतों के मोहरे भर होते हैं। अगर जो होता तो श्रीलंका में लिट्टे यानी लिबरेशन टायगर्स ऑफ़ तमिल ईलम नहीं होता जिसने भारत के एक युवा प्रधानमंत्री (राजीव गांधी) की जान ली थी।

धर्म देखकर फ्रिज खोलकर मीट चेक करने के बाद हत्या को अंजाम तो कुछ और भी लोगों ने दिया है। बेहतर है कि पहलगाम में 27 निर्दोषों की हत्या को इस तंग नैरेटिव के बीच न सीमित कर दिया जाए। सरकार को इस घटना से ऐसा सबक लेना चाहिए कि कश्मीर में फिर कभी ऐसी विभीषिका न हो। सरकार ने ही संसद में अपनी बात कहकर लोगों को यकीन दिलाया था कि कश्मीर में सब कुछ सामान्य है। गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में यह सरकार चुप बैठने वाली नहीं है, घर में घुसकर मारती है। अब जो हुआ है, यह उन सैलानियों के यकीन का क़त्ल है। उन्हें भरोसा दिलाया गया था कि आप यहां आएं, आप सुरक्षित हैं। नतीजतन 2023 में दो करोड़ दस लाख से ज़्यादा सैलानी यहां आए जो साल 2020 में 35 लाख से भी कम थे। अभी तो सीजन शुरू ही हुआ था और अगले तीन महीनों तक यह सिलसिला जारी रहना था लेकिन पहलगाम की घटना ने कश्मीर को फिर पीछे पंहुचा दिया है।

इसी यकीन के भरोसे सपरिवार पिछले बरस आठ दिन कश्मीर में और दो दिन पहलगाम में बिताए थे। सब ख़ुश थे। घोड़े वाले, टैक्सी वाले, होटल वाले, कॉफ़ी शॉप वाले कि घाटी में बहार आई है और सैलानी लगातार आ रहे हैं। ऑटो और शिकारा चलाने वाले भी बेहद ख़ुश थे कि इस बार टूरिस्टों की संख्या ने उनके घर, दुकान, गाड़ियों के लोन अदा करवा दिए। खूब तो ऊनी कपड़े पसंद किये गए, खूब मखमली केसर और अखरोट सैलानी अपने घर ले गए। उनका बस चलता तो घाटी का बेमिसाल मौसम भी साथ ले आते। वह आता भी है तस्वीरों में कैद होकर, लेकिन पहलगाम के इन पर्यटकों के साथ ऐसा नहीं हुआ।

श्रीनगर में जहां कदम-कदम पर फौजी नंगी स्टैनगनों के साथ मुस्तैद नज़र आए थे, वैसा पहलगाम में नहीं दिखा था। पहलगाम यानी चरवाहों का गांव और वाकई लिद्दर नदी के हमराह यहां सिर्फ घोड़े ही घोड़े नज़र आते हैं। ऊपर के गांवों से नीचे आते हुए घोड़े और फिर इन्हीं रास्तों से लौटते हुए, मानों पहाड़ों के साथ सड़कों पर भी इन्हीं का राज हो। वहां के गुर्जर चरवाहों की यही रोज़ी है। सर्दियों में वे अपने बनाए गर्म कपड़ों को लेकर भारत के मैदानों में आ जाते हैं। टूरिस्ट पहलगाम से टैक्सी लेकर आस-पास के स्थानों पर दिन भर में घूमकर पहलगाम लौट आते हैं। आरु वैली, बेताब वैली, चन्दन बाड़ी (जो अमरनाथ यात्रा का बेस पॉइंट है), बैसरन घाटी जैसे कई पिकनिक स्पॉट्स तक सैलानी जाते हैं।

इस यात्रा ने जिस बात ने अभिभूत किया वह थी कश्मीरियों की मेज़बानी। वे सैलानी को बहुत सम्मान देते हैं। ग़लती से आप किसी ऐसी जगह पहुंच जाते हैं जो टूरिस्ट के लिए नहीं, तब भी वे आपकी आवाभगत करते हैं। पहलगाम के आतंक ने उन्हें भीतर तक हिला दिया है। वे सड़कों पर निकल पड़े हैं। उनका विरोध और भारत सरकार के पाकिस्तान को मज़बूत जवाब देने की नीयत, दोनों का एक साथ आना कश्मीर के हालात को बदल सकता है। फ़िलहाल जवाब तो इस बात के भी ढूंढने होंगे कि इन सैलानियों की सुरक्षा के लिए क्यों कोई जवाबी कार्रवाई नहीं देखी गई? सुरक्षा बल वहां क्यों नहीं थे? यह चूक क्यों थी? बैसरन घाटी का हमला पुलवामा के बाद सबसे बड़ा हमला माना जा रहा है। इतना बड़ा इंटेलिजेंस फेलियर कैसे हुआ ? जो कोई इनपुट मिले थे तो सुरक्षा क्यों नहीं बरती गई और जो नहीं मिले तो यह कैसे संभव हुआ?

मुख्यधारा का मीडिया और हिंदी के ज़्यादातर अख़बार धर्म के नैरेटिव को सेट करने में लगे हैं? ज़िम्मेदार देश को यूं बांटने और अस्थिर करने की साज़िश पर क्यों मौन हैं? कश्मीर के अख़बारों ने काली जगह छोड़कर विरोध जताया है। कश्मीर टाइम्स ने अपनी एक स्टोरी में बताया है कि पहलगाम की किशोरी रूबीना, जो वहां पर्यटकों को नन्हें ख़रगोश बेचती है, उसने अपने छोटे से घर को सैलानियों के लिए सुरक्षित आवास में बदल दिया। वह और उसकी बहन मुमताज़ तीन बार पार्क में गए और घायलों को सुरक्षित नीचे अपने घर ले लाए। आज रूबीना है और सोलहवीं सदी में शायरा हब्बा ख़ातून थीं जिनका संदेश केवल मोहब्बत रहा है। दोनों ने हर बार, हर हाल में कश्मीरियत को ज़िंदा रखा। हब्बा ख़ातून (जूनी ) जिनके प्रेम में पगे लोकगीत आज भी गाए जाते हैं। यह शायरी जैसे उन्होंने अपने साथ उन जोड़ों के लिए भी लिखी थी जो इस दुर्दांत आतंकी घटना में बिछड़ गए। उनकी इस रचना 'तुम बिन' का अनुवाद सुरेश सलिल ने किया है-

अनुपम छवि वाले,ओ मेरे प्यारे,
ललक रहे हैं
मेंहदी-रचे मेरे हाथ
तुम्हें सहलाने को,
तड़प रही हूं
तुम्हारी रतनारी झलक
एक पाने को!
आओ, बुझाओ प्यारे, मेरी अबूझ प्यास
कैसे कटें तुम बिन ये बंजर दिवस-मास!
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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