इस दौर का जनतानामा
प्रतिष्ठित एवं वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी ने हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'जनतानामा'में विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर गंभीरता के साथ चिंतन किया है

- रोहित कौशिक
प्रतिष्ठित एवं वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी ने हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'जनतानामा'में विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर गंभीरता के साथ चिंतन किया है। इस दौर में सत्ता और सत्ता की चरणवंदना करने वाले ठेकेदार जनता को व्हाट्सएप यूनिवर्सिर्टी के माध्यम से शिक्षित कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। इस कारण आज जनता विशेषत: युवा वर्ग नकली ज्ञान के सहारे नकली नारे लगा रहा है। इन नकली नारों से अंतत: युवा वर्ग ही सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहा है।
विकसित होते भारत में लगातार आपसी विश्वास कम होता जा रहा है और नकली मुद्दों पर ज्यादा बहस हो रही है। ऐसे माहौल में कनक तिवारी अपनी पुस्तक 'जनतानामा'के माध्यम से हमारे दिमाग का जाला तो साफ करते ही है, हमें विकास का असली अर्थ भी समझाते हैं। कनक तिवारी इस पुस्तक में जिस तरह से तर्कसंगत विश्लेषण करते हैं, वह उनकी अद्भुत मेधा का परिचायक है। जाहिर है कि सटीक विश्लेषण करने के लिए साहस की भी जरूरत होती है। साहस के साथ अपने समय का सच लिखने के अपने जाखिम हैं। सुखद यह है कि कनक तिवारी ये जाखिम उठाते हैं और सत्य के साथ कोई समझौता नहीं करते। इस दौर में यह साहस बहुत कम लेखकों में बचा है।
कनक तिवारी संविधान विशेषज्ञ हैं। इसलिए वे उस साजिश का पर्दाफाश भी करते हैं, जिसके माध्यम से संविधान का सहारा लेकर नकली भारत बनाने की कोशिश हो रही है। चाहे आदिवासियों का सवाल हो या फिर किसानों की समस्याएं हो, उनकी कलम बेबाकी से सत्य उजागर करती है। एक ऐसा सत्य जिससे देश के नागरिकों को दूर करने की कोशिश लगातार की जा रही है। वन अधिनियमों में जिस तरह से आदिवासियों के अधिकारों को समाप्त किया जा रहा है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। अनावश्यक और बेतरतीब उद्योगों का जाल बिछाने के लिए खेती और रिहायशी अधिकारों को छीना जा रहा है। लेखक किसान आन्दोलन को बदनाम करने की नीयत पर भी सवाल उठाता है।
दरअसल भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है लेकिन कृषि प्रधान देश में किसानों की हालत दयनीय है। कुछ बड़े किसानों की बात छोड़ दें तो आज देश के अधिकांश किसान कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि देश का एक वर्ग किसानों की इन समस्याओं के लिए किसानों को ही जिम्मेदार ठहरा रहा है। कुछ समय पहले दिल्ली में 378 दिनों तक चले किसान आन्दोलन को जिस तरीके से बदनाम करने की कोशिश की गई, उससे यह पता चलता है कि किसानों की समस्याओं को भी हम राजनीतिक चश्मे से देखने की कोशिश करते हैं।
आन्दोलन के दौरान और आन्दोलन के बाद भी किसानों को आन्दोलनजीवी, खालिस्तानी और नक्सलवादी कहा गया। एक बार फिर किसानों को बदनाम करने की कोशिश हो रही है। अपना हक माँगने के लिए यदि किसानों को आन्दोलनजीवी, खालिस्तानी और नक्सलवादी होने के ताने सुनने पड़ें तो हम सहज ही यह अंदाजा लगा सकते हैं कि कुछ लोग किसानों को बदनाम करने के लिए किस हद तक जा सकते हैं। लेखक सभी सरकारों द्वारा किसानों को जानबूझकर बदहाल रखने के षड़यंत्र की पोल बखूबी खोलता है।
लेखक भारत और हिन्दू धर्म को विवेकानन्द की दृष्टि से समझने का प्रयास करता है। इस दौर में जिस तरह से हिन्दू धर्म के नाम पर हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात हो रही है, क्या वह विवेकानंद के भारत की कल्पना को साकार करता है ? विवेकानन्द ने तो यहां तक कहा था कि हर शिक्षित हिंदू का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दुइज्म के तत्वों का वैज्ञानिक परीक्षण करे। लेखक यह सवाल भी उठाता है कि क्या हम सच्चे अर्थों में ऐसा कर पा रहे हैं ? इस पुस्तक में लोकतंत्र की विसंगतियों पर गहन विमर्श किया गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि विकसित होते भारत में लोकतंत्र की विसंगतियां बढ़ती जा रही हैं।
चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव कहा जाता है लेकिन शुचिता का लबादा ओढ़े चुनावों में जिस तरह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शुचिता का जनाजा निकाल दिया जाता है, वह शर्मनाक तो है ही, दुखद भी है। कनक तिवारी सत्ता पर तो सवाल उठाते ही है, कांग्रेस के क्रियाकलापों पर सवाल उठाते हुए राहुल गांधी को भी सुझाव देते हैं। कोरोना काल की अव्यवस्थाओं पर भी सटीक चिंतन किया गया है। इससे दुखद और क्या हो सकता है कि कोरोना काल में लाशों के ढेर पर भी राजनीति की गई और सत्ता द्वारा अपनी अव्यवस्था को बेहतरीन व्यवस्था का लाबादा ओढ़ाने के लिए प्रचार तंत्र का भरपूर इस्तेमाल किया गया।
जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के मुद्दे पर लेखक द्वारा किया गया विश्लेषण हमें एक नई दृष्टि प्रदान करता है। न्यायपालिका को पूरी तरह कार्यपालिका और विधायिका के नियंत्रण से बाहर कर स्वायत्त बनाने के मुद्दे पर भी गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है।
400 पृष्ठों की यह पुस्तक सच्चे अर्थों में जनतानामा है। एक ऐसा जनतानामा जिसमें इस दौर के लगभग सभी मुद्दे पर गहनता के साथ विचार-विमर्श हुआ है। निश्चित रूप से इस गंभीर कार्य के लिए लेखक कनक तिवारी बधाई के पात्र हैं।


