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खाली शिकारे, खामोश किनारे, पर्यटन के पतन के बीच अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे शिकारा वाले, नावें छोड़ने पर मजबूर

कभी कश्मीर के पर्यटन की जीवनरेखा रही डल झील के शिकारा मालिक अब एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहे हैं। 22 अप्रैल को पहलगाम हमले के बाद, कश्मीर में पर्यटन में भारी गिरावट आई है, जिससे सैकड़ों नाविक बेरोजगार हो गए हैं और कई को अपनी नावें छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है

खाली शिकारे, खामोश किनारे, पर्यटन के पतन के बीच अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे शिकारा वाले, नावें छोड़ने पर मजबूर
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जम्मू। कभी कश्मीर के पर्यटन की जीवनरेखा रही डल झील के शिकारा मालिक अब एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहे हैं। 22 अप्रैल को पहलगाम हमले के बाद, कश्मीर में पर्यटन में भारी गिरावट आई है, जिससे सैकड़ों नाविक बेरोजगार हो गए हैं और कई को अपनी नावें छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है।

जहां कभी झील पर्यटकों और शिकारों की लयबद्ध चहलकदमी से गुलजार रहती थी, आज उसके शांत जल में कुछ ही नावें तैरती हैं। शिकारा एसोसिएशन के अध्यक्ष वली मोहम्मद के अनुसार, इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। जहां कभी पर्यटकों की भीड़ हुआ करती थी, अब केवल 2-3 प्रतिशत ही बचे हैं। पहले, प्रत्येक घाट से 10-12 शिकारे निकलते थे, और दिन भर में लगभग 200-300 शिकारे चलते थे। अब, घाट से केवल दो या तीन नावें ही निकलती हैं।

घाट संख्या 17 के अध्यक्ष शब्बीर अहमद ने भी यही निराशा व्यक्त की। उन्होंने कहा कि इस पर लगभग 80 प्रतिशत असर पड़ा है और अब केवल 10-20 प्रतिशत काम ही बचा है। पहले एक शिकारा यात्रियों को लेकर 5-6 बार निकलता था, लेकिन अब 60-70 शिकारे हैं, जिनमें से केवल 5-10 ही निकल पाते हैं, और वह भी बड़ी मुश्किल से। पर्यटकों की संख्या में भारी गिरावट ने इन नाविकों की आजीविका को चौपट कर दिया है। मोहम्मद के बकौल, पहले एक शिकारा मालिक 80,000-10,0000 रुपये कमा लेता था, कभी-कभी कम से कम 30,000 रुपये, लेकिन अब 100 रुपये कमाना भी मुश्किल हो गया है।

उन्होंने आगे कहा कि कुछ घाटों पर, जहां 50-60 शिकारे लगे होते हैं, वहां से दिन में केवल एक ही निकलता है, अक्सर पर्यटकों के बजाय स्थानीय यात्रियों को लेकर। कई लोगों के लिए, डल झील पर शिकारा चलाना सिर्फ एक व्यवसाय नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही एक पारिवारिक परंपरा थी। मेरे पिता, और उनसे पहले उनके पिता, डल नदी पर शिकारा चलाते थे। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे गुजारा करने के लिए सब्जियां बेचनी पड़ेंगी, एक शिकारा मालिक ने कांपती आवाज और नम आंखों से कहा था।

हाउसबोट एसोसिएशन के अध्यक्ष मंजूर पख्तून कहते थे कि कि पूरी पर्यटन अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। इससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हर व्यक्ति पर्यटन अर्थव्यवस्था का हिस्सा था। पर्यटन से मिलने वाले पैसे से सभी को फायदा होता था, लेकिन अब सब कुछ प्रभावित हो गया है।

पख्तून ने आगे कहा कि कई हाउसबोट और शिकारा मालिक, जिन्होंने बैंकों से कर्ज लिया था, अब अपनी ईएमआई चुकाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। कई शिकारा मालिक अपनी आजीविका चलाने के लिए सब्जियां बेचने लगे हैं। यह बदलाव इसलिए हुआ क्योंकि उनके पास परिवार का पेट पालने के लिए पैसे हैं।

इस मंदी ने हाउसबोट क्षेत्र में रोजगार को भी बुरी तरह कम कर दिया है। पख्तून ने बताया, पहले हम कई लोगों को रोजगार देते थे, लेकिन अब उस पर भी असर पड़ा है। उदाहरण के लिए, एक हाउसबोट में चार कर्मचारी हुआ करते थे, लेकिन अब सिर्फ दो ही बचे हैं, और उन दो लोगों को भी अपनी नौकरी का भरोसा नहीं है। पर्यटन के पतन ने न केवल आय को कम किया है, बल्कि डल झील के आसपास के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को भी प्रभावित किया है। कभी प्रतिष्ठित तैरती टैक्सियां, जो पीढ़ियों से यात्रियों को ले जाती थीं, अब किनारे पर धूल और शैवाल जमा कर रही हैं।

जो लोग कभी गीतों और कहानियों से पर्यटकों का स्वागत करते थे, वे अब ठेले लगाते हैं, सब्जियां बेचते हैं, या गुजारा करने के लिए छोटे-मोटे काम करते हैं। पख्तून ने दुख जताते हुए कहा कि जिन लोगों ने सब कुछ खो दिया है, उनके पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है। उन्हें कुछ न कुछ तो करना ही होगा, चाहे वह दिहाड़ी मजदूरी हो, सब्जियां बेचना हो, या कुछ और, क्योंकि आखिरकार उन्हें अपने परिवार का पेट पालना ही है। और जैसे-जैसे सीजन खत्म हो रहा है, डल झील के नाविकों का भविष्य अनिश्चित बना हुआ है, जो एक समृद्ध अतीत की धुंधली यादों और जीवनयापन की कठोर वास्तविकताओं के बीच उलझा हुआ है।


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