राम चैत की मदद सरकार का काम था मगर राहुल ने की
जैसा कि हमने ऊपर शुरू में लिखा यह चीजें व्यक्तिगत मदद करने से ठीक नहीं होंगी

- शकील अख्तर
जैसा कि हमने ऊपर शुरू में लिखा यह चीजें व्यक्तिगत मदद करने से ठीक नहीं होंगी। आज तक नहीं हुईं। यह सोच का मामला है। नीति बनाने उसे लागू करने का। गरीबी से ऐसे नहीं लड़ा जा सकता। भारत दुनिया के करीब 190 देशों में 142 वें स्थान पर है। गरीबी में। प्रति व्यक्ति की आय नहीं बढ़ रही है। उधर करीब एक हजार अरबपतियों की आय लगातार बढ़ती जा रही है।
अच्छे इन्सान के तौर पर राहुल जो कर सकते थे वह उन्होंने किया। मगर व्यक्ति की अपनी सीमाएं होती हैं। राम चैत जैसे लाखों लोगों की मदद करना और उन्हें आगे बढ़ाना सरकारों का काम होता है।
इन्दिरा गांधी ने इसलिए बैकों का राष्ट्रीयकरण किया था। कुटीर, लघु, मध्यम दर्जें का काम करने वालों को कम ब्याज पर आसानी से लोन देने के लिए। केन्द्र सरकार सहित सभी राज्यों ने इसके लिए कारपोरेशन बनाए थे। जहां ट्रेनिंग के साथ आसान शर्तों पर लोन भी मिलता था। उस पर सब्सिडी भी होती थी।
मगर यह सब बंद हो गया। राष्ट्रीयकृत बैंक अब कुछ बड़े उद्योगपतियों को ही लोन दे रहे हैं और उनमें से कई देश छोड़कर भाग रहे हैं। पिछले दस साल में 18 लाख लोग देश छोड़कर जा चुके हैं। केवल पिछले पांच साल में छह लाख से ज्यादा लोगों ने भारतीय नागरिकता छोड़ी है। यह कितना पैसा लेकर भागे हैं सरकार इसका कोई अधिकृत आंकड़ा नहीं दे रही है।
मगर बैंकों द्वारा बट्टे खाते में डाले जा रहे पैसों के हिसाब से कुछ वित्त एजेंसियों ने जो आंकड़े जुटाए हैं वे बेहद चिन्ताजनक हैं। उनके मुताबिक चालीस-पचास बड़े उद्योगपति विजय माल्या, नीरव मोदी जैसे लोग चालीस हजार करोड़ रुपये लेकर भागे हैं।
देश में पिछले दस सालों में पैसों वालों को ही और आगे बढ़ाने का काम हो रहा है। इन्हीं में से कुछ पैसे लेकर भाग गए कुछ फिलहाल यहीं और पैसा बना रहे हैं। आंकड़े बहुत गंभीर हैं। एक तरफ 1319 लोग एक हजार करोड़ रुपये से अधिक संपत्ति के मालिक बन गए हैं। दूसरी तरफ देश के 80 करोड़ से ज्यादा लोग पांच किलो मुफ्त अनाज पर गुजर कर रहे हैं। इन लोगों को काम धंधा देने की कोई योजना नहीं है। केवल जिन्दगी काटने पर मजबूर कर दिए गए हैं। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई आगे बढ़ना कोई मतलब नहीं है केवल जीते रहना ही उद्देश्य हो गया है।
अमीर कैसे और अमीर होता जा रहा है यह इससे समझें कि पिछले एक साल में ही इनकी दौलत 41 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी है। और गरीबों की हालत क्या है, यह इससे समझें कि गरीबी में भारत 142 वें स्थान पर है। मतलब 141 देश में जिनमें बहुत छोटे-छोटे देश अंगोला, आइवरी कोस्ट जैसे शामिल हैं, भारत से बेहतर स्थिति में हैं। बेरोजगारी की स्थिति भयावह है। 83 प्रतिशत युवा बेरोजगार हैं।
देश की चालीस प्रतिशत संपत्ति अब केवल एक प्रतिशत लोगों के पास पहुंच गई है और यह न रोजगार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं और न देश में ऐसे उद्योग लगाने की। जिससे देश की चीन पर निर्भरता कम हो बल्कि चीन से व्यापार करके वहां से छोटी-छोटी चीजें मंगाकर यहां बेचकर पैसा बढ़ाने में लगे हुए हैं।
लाखों सरकारी पद खाली हैं। कहीं भर्ती नहीं हो रही। हर जगह ठेके पर काम चलाया जा रहा है साथ ही पहले जो राम चैत जैसे लोगों के कौशल विकास, अपना धंधा बढ़ाने की योजनाएं चलती थीं वे भी सब बंद हो गई हैं। इसलिए कभी राहुल को अग्निवीर जैसी चार साल की नौकरी बंद करके परमानेंट नौकरी की मांग करनी पड़ती है तो कभी राम चैत जैसे मेहनतकशों को अपने व्यक्तिगत साधनों से जूता सिलाई की मशीन दिलानी पड़ती है।
आश्चर्य और दुख की बात यह है कि यूपी में चार बार मायावती मुख्यमंत्री रहीं मगर कमजोर वर्ग को आर्थिक रूप से अपने पांवों पर खड़ा करने की कोई स्थायी कोशिश नहीं की। अभी लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न मिलने के बाद कहा कि मेरे समाज के लोग मेरे साथ रहें। मगर उनके लिए किया क्या यह कभी नहीं बताया। खाली दलित की बेटी कहने से दलितों की कोई मदद नहीं हो जाती है। दलित के पास कोई कृषि भूमि नहीं है। वह भूमिहीन श्रमिक है। उसे स्किल डेवलपमेंट, आर्थिक सहायता, पक्की दुकान जैसे मूलभूत ढांचे की जरूरत है।
हमें कई बार बहुत आश्चर्य होता है कि दलित पिछड़े की बात करने वाले उस समाज के ही लोगों ने पिछले करीब चालीस साल से कई राज्यों में सरकार चलाई और इस दौरान सरकार, डेवलपमेंट अथारटी स्थानीय निकाय विभिन्न एजेंंिंसयों ने बहुत सारे मार्केटों, कमर्शियल सेंटर का निर्माण किया। सैकड़ों हजारों दुकानें बनाईं मगर कहीं मोची के लिए, कपड़े प्रेस करने वाले के लिए, फूल बेचने वाले माली के लिए, सब्जी, फल बेचने वाले के लिए, छोटी चाय की दुकान चलाने वाले और खाने-पीने का छोटा स्टाल रखने वाले के लिए अलग से दुकानें निर्धारित नहीं कीं। उन्हें रियायती दरों, आसान किस्तों पर कार्नर पर दुकानें कहीं नहीं दीं।
अफसर तो यह काम करने नहीं देंगे। यह तो मुख्यमंत्रियों के विजन की इच्छाशक्ति का और सबसे बड़ी सोच का मामला था। अगर हर शहर में हर नए बने इलाकों में यह हो जाता तो देश के पिछड़े, दलितों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बदल जाती।
पता नहीं मायावती, पासवान और अन्य दलित नेता यह देखकर क्या सोचते थे जब बरसते पानी में, तेज धूप में, कड़कड़ाती सर्दी में एक छाते के नीचे वह मोची को बैठा हुआ देखते थे। सड़क पर उनके ठिकाने देखकर पता नहीं इनमें से कितने नेता, मुख्यमंत्री, मंत्री रुके। मगर राहुल गांधी रुक गए। उन्होंने मोची राम चैत की समस्या, उसका काम समझने की कोशिश की और उसने जो मदद मांगी थी वह अगले दिन ही पूरी कर दी।
जैसा कि हमने ऊपर शुरू में लिखा यह चीजें व्यक्तिगत मदद करने से ठीक नहीं होंगी। आज तक नहीं हुईं। यह सोच का मामला है। नीति बनाने उसे लागू करने का। गरीबी से ऐसे नहीं लड़ा जा सकता। भारत दुनिया के करीब 190 देशों में 142 वें स्थान पर है। गरीबी में। प्रति व्यक्ति की आय नहीं बढ़ रही है। उधर करीब एक हजार अरबपतियों की आय लगातार बढ़ती जा रही है।
सरकारी नौकरी नहीं, छोटे उद्योग धंधे नहीं। खेती में आय दुगनी करने के बदले और लागत बढ़ा दी है। घाटे का सौदा तो पहले ही थी अब अपमान की भी हो गई। आतंकवादी से लेकर मवाली सब कह दिया गया। देश में लोग रोजी रोटी के लिए दो ही साधनों पर निर्भर हैं। एक सरकारी नौकरी, दूसरे कृषि। दोनों की हालत खराब कर दी। और इन दोनों से ही गांव, कस्बों, शहरों में व्यापार-व्यवसाय चलता था। बाजार में खरीदारी दो ही वर्ग करते हैं। एक किसान और एक वेतन पाने वाला। जब इन दोनों के पास ही पैसा नहीं होगा तो बाजार काहे से चलेगा?
राहुल ने फिर एक नई राह दिखाई है। आम मेहनतकश की आमदनी बढ़ाने की। राहुल हमेशा से कहते रहे हैं कि आम आदमी की जेब में पैसा डालो तो अर्थव्यवस्था चल जाएगी। उसके हुनर को निखारो। पहले आईटीआई, पोलोटेक्निक और दूसरे कई ऐसे संस्थान थे जो ट्रेनिंग देकर युवाओं को नौकरी के लिए तैयार करते थे। मगर अब बातें तो बहुत हैं। वहां क्या काम हो रहा है और वहां से निकलने के बाद कितने युवाओं को काम मिल रहा है यह किसी को पता नहीं।
हेडलाइन बनाने के लिए बड़े चमकीले अंदाज में प्रधानमंत्री ने कह दिया कि देश को आईआईटी की जरूरत नहीं आईटीआई की है। क्या हुआ? अब आईआईटीयन भी बेरोजगार हैं। पहली बार उनका प्लेसमेंट नहीं हुआ। आईटीआई वाले तो पहले ही थे। दोनों को बेरोजगार कर दिया!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)


