छोटे बैंकों के डूबने की भी फ़िक्र करनी जरूरी है
भारतीय रिजर्व बैंक की पूर्ण स्वामित्व वाली एक सहायक कंपनी है जिसे डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन (डीआईसीजीसी) कहा जाता है

- जगदीश रत्तनानी
न्यू इंडिया जैसे सहकारी बैंक का पतन विशेष रूप से दर्दनाक है क्योंकि इसका इतिहास संगठित श्रमिकों से जुड़ा है। इसके संस्थापक तेजतर्रार समाजवादी, ट्रेड यूनियन नेता स्वर्गीय जॉर्ज फर्नांडीस (1930-2019) हैं जिनका जीवन भारतीय अर्थव्यवस्था के जमीनी स्तर पर लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए समर्पित था।
भारतीय रिजर्व बैंक की पूर्ण स्वामित्व वाली एक सहायक कंपनी है जिसे डिपॉजिट इंश्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन (डीआईसीजीसी) कहा जाता है। यह कंपनी रिजर्व बैंक विनियमित बैंकों में किसी बैंक के पतन की स्थिति में बचतकर्ताओं की सुरक्षा के लिए प्रति ग्राहक अधिकतम 5 लाख रुपये तक सभी जमा राशियों का बीमा करती है। अब नवीनतम बैंक पतन पर विचार करें। यह एक छोटा बैंक है जिसने बैंकिंग प्रणाली में कुछ सबसे गरीब और कमजोर जमाकर्ताओं को चोट पहुंचाई है। यह देखते हुए कि बैंक छोटा है, इसका नेटवर्क सीमित है और जमाकर्ताओं का कोई प्रभाव नहीं है इसलिए इसकी कोई चर्चा नहीं है। यह न्यू इंडिया कोऑपरेटिव बैंक एक शहरी सहकारी बैंक है जिसका मुख्यालय मुंबई में है। यह बैंक 13 फरवरी, 2025 को दीवालिया हो गया। इसके जमाकर्ताओं में ऑटो व टैक्सी ड्राइवर, छोटे बचतकर्ता, सब्जी विक्रेता, छोटे स्टोर के मालिक जैसे लोग शामिल हैं। अब उनके व्यवसाय मंझधार में हैं। यह एक बहु-राज्य अनुसूचित बैंक है जिसकी महाराष्ट्र और गुजरात में करीब 22 शाखाएं और कुल 6,000 जमाकर्ता हैं। बड़ी बैंकिंग प्रणाली का अर्थव्यवस्था में तेजी से प्रभाव बढ़ रहा है पर उसमें इन छोटे जमाकर्ताओं की कोई आवाज नहीं है।
छोटे जमाकर्ता बैंक के बाहर कतार में खड़े थे, पुलिस उनको नियंत्रित कर रही थी। इनमें कई वरिष्ठ नागरिक थे। सभी को आश्वासन दिया जा रहा था कि उनका पैसा सुरक्षित है और मई 2025 तक दूसरे खाते में भुगतान किया जाएगा। इनके फॉर्म भरे गए और जमा बीमा के लिए दावों को भेजा गया लेकिन तीन महीने बाद 13 मई 2025 को उन्हें पैसे निकालने से रोक दिया गया। बाद में प्रति जमाकर्ता अधिकतम 25,000 रुपये निकालने की अनुमति दी गई। डीआईसीजीसी की ओर से एक पंक्ति की सूचना आई कि 'डीआईसीजीसी ने न्यू इंडिया को-ऑपरेटिव बैंक लिमिटेड के जमाकर्ताओं को भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होने की तारीख को 90 दिनों की अवधि यानी 12 अगस्त, 2025 तक के लिए बढ़ा दिया है।' सूचना में उन परिस्थितियों के बारे में कोई अन्य संदर्भ, स्पष्टीकरण या विवरण नहीं था जिनके तहत जमाकर्ताओं को तीन और महीनों तक इंतजार करने के लिए कहा गया है।
एक तरफ भारतीय बैंकिंग प्रणाली को वित्तीय रूप से अधिक समावेशी कहा जाता है जबकि दूसरी ओर कुछ सबसे गरीब जमाकर्ता अपने जीवन की बचत खोने के अंदेशे में खुद को अंधेरे में पाते हैं जिसे वे समझ नहीं सकते हैं। आरबीआई के डिप्टी गवर्नर एम. राजेश्वर राव ने पिछले पखवाड़े ही मुंबई में एक वित्तीय शिखर सम्मेलन में कहा था कि 'आरबीआई का वित्तीय समावेशन सूचकांक, जो पूरे देश में वित्तीय समावेशन की सीमा को दर्शाता है, मार्च 2023 में 60.1 से बढ़कर मार्च 2024 में 64.2 हो गया है जो वर्ष-दर-वर्ष 6.82 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है।'
यह एक बड़ी तस्वीर की कहानी है जिसका शीर्षक तो अच्छा है लेकिन जब यह एक छोटे से पतन की छोटी तस्वीर में तब्दील हो जाता है जिसने अपने साथ आम नागरिकों की किस्मत और जीवन भर की कमाई ले ली है, जिसमें लोग जिंदा रहने के लिए संघर्ष करते हैं तो यह एक डरावनी कहानी में बदल जाती है। भले ही हम विकास और समावेश की एक बड़ी तस्वीर की कहानी का जश्न मना रहे हों लेकिन सरकारी कार्रवाई में ढिलाई, जमाकर्ताओं को जमा बीमा के भुगतान करने की अस्पष्ट धीमी गति और विस्तारित समय अवधि व बैंक में आपराधिक जांच के आलोक में उभर रहे भ्रष्टाचार के चौंकाने वाले खाते एक ऐसे भारत की कहानी बताते हैं जिसने अपने संचालन की परियोजना के मूल तत्वों और व्यवहारिक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित नहीं किया ताकि आगे बढ़ने से पहले सब कुछ सुनिश्चित किया जा सके। पतन के बारे में उल्लेखनीय बात यह है कि बैंक अप्रत्याशित रूप से पूरी तरह से गायब हो गया है जैसे कि कुछ भी नहीं हुआ है। सिस्टम में सबसे कमजोर लोगों पर लगभग किसी का ध्यान नहीं गया।
जिन्होंने बैंक पर रोजमर्रा की सेवा के लिए घरेलू संस्थान के रूप में भरोसा किया उनके लिए यह एक विनाशकारी प्रभाव है। इस मामले में 12,000 पन्नों की चार्जशीट दायर की गई है लेकिन यह अभी भी अपने पैसे का इंतजार कर रहे जमाकर्ताओं को बहुत कम सांत्वना देता है। पुलिस ने बताया कि कुछ आरोपी देश छोड़कर भाग गए हैं।
न्यू इंडिया जैसे सहकारी बैंक का पतन विशेष रूप से दर्दनाक है क्योंकि इसका इतिहास संगठित श्रमिकों से जुड़ा है। इसके संस्थापक तेजतर्रार समाजवादी, ट्रेड यूनियन नेता स्वर्गीय जॉर्ज फर्नांडीस (1930-2019) हैं जिनका जीवन भारतीय अर्थव्यवस्था के जमीनी स्तर पर लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए समर्पित था। जब एक टैक्सी ड्राईवर को लाइसेंस-नियंत्रण-राज वाले दिनों में 'नियमित' बैंकों द्वारा ऋ ण देने से इनकार कर दिया गया तो फर्नांडिस ने टैक्सी ड्राइवरों को बैंक बनाने के लिए एकजुट किया। बड़े और कट्टर बैंकों ने जिन्हें छोड़ दिया गया था, इस बैंक ने यूनियन श्रमिकों, ऑटो चालकों और छोटे व्यवसायियों का स्वागत किया। नए, उदारीकृत भारत में यूनियनों को लंबे समय से भंग कर दिया गया है या कम से कम वे अपने दांत खो चुके हैं। जिस बैंक की स्थापना श्रमिकों की रीढ़ के रूप में की गई थी उसे अब अंदरूनी लोगों के एक समूह द्वारा लूट लिया गया है। आरोपियों में जॉर्ज फर्नांडिस के सहयोगी संस्थापक रंजीत भानु के परिवार के सदस्य भी शामिल हैं।
हालांकि सहकारी बैंकों में राजनेताओं, स्थानीय क्षेत्र के प्रभाव और आधुनिक प्रणालियों को धीमी गति से अपनाने के कारण सुशासन की कमी संभव हो सकती है लेकिन आरबीआई अपने पर्यवेक्षी कार्यों में विफल होने की जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है। इन बैंकों पर स्पष्ट रूप से अलग ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि वे छोटे हैं, वे अंदरुनी इलाकों में वित्तीय समावेशन का काम करते हैं और वे उन कुछ सबसे कमजोर व सबसे गरीब लोगों की जमा रकम पर चलते हैं जिन्होंने बैंकिंग प्रणाली पर भरोसा किया है। हाल के दिनों में बैंकों के दीवालिया होने की एक श्रृंखला देखी गई है जिनमें से न्यू इंडिया नवीनतम है। यह बात संरचनात्मक और शासन के मुद्दों को इंगित करती है जिन्हें आरबीआई प्रभावी ढंग से संबोधित करने में असमर्थ या अनिच्छुक रहा है।
इस साल मार्च में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राज्यसभा को बताया था कि पिछले तीन साल में 40 शहरी सहकारी बैंकों के लाइसेंस रद्द किए गए हैं। मंत्री ने आरबीआई के हवाले से कहा कि उसने पिछले तीन वर्षों में उधारकर्ताओं और उधारदाताओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफल रहने वाले संस्थानों में जमा और अग्रिम की राशि का बैंक-वार विवरण नहीं रखा है। इसके साथ ही आरबीआई द्वारा उन पर कोई कार्रवाई भी नहीं की गई है। बैंक विफलताओं की सूची का एक अनुलग्नक डीआईसीजीसी से आया है। इसने पिछले तीन वर्षों में 43 'बैंक विफलताओं' को सूचीबद्ध किया, उनमें से सभी सहकारी बैंक थे।
करीब पांच साल पहले एसबीआई ने निजी क्षेत्र के चौथे सबसे बड़े बैंक 'यस बैंक' को बचाया था। लोगों का विचार था कि यह संस्थान इतना बड़ा है कि वह विफल नहीं हो सकता क्योंकि वह लापरवाही या गलत कामों न करने के खिलाफ निहित गारंटी देता है। यह सच है कि अर्थव्यवस्था पर असाधारण विफलताओं से पड़ने वाले प्रभावों का जोखिम होता है, लेकिन न्यू इंडिया के मामले की तरह की अप्रत्याशित विफलताएं एक अलग तरह का नुकसान पहुंचाती हैं- वे लगभग अनदेखे, अनसुने लेकिन कम विघटनकारी नहीं होते। वे बैंकिंग प्रणाली और इसके पूरे नियामक ढांचे में आम नागरिक के विश्वास को खत्म करते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)


