क्या गिरता जा रहा है मोदी का इकबाल
विपक्ष अभी तक सरकार या इसके मुखिया नरेंद्र मोदी को किसी सवाल पर मजबूती से घेरने में सफल नहीं हुआ है लेकिन इसके बावजूद मोदी जी का इकबाल लोक सभा चुनाव के बाद से अचानक घटता दिख रहा है

- अरविन्द मोहन
नेता ही नहीं पार्टी समझ ही नहीं पा रही है कि उसे जाति के पक्ष में खड़ा होना है या सांप्रदायिक धु्रवीकरण के पुराने राग को अलापना है। यह बात कांवड़ यात्रा और वक्फ के मामले से भी ज्यादा दलित आदिवासी आरक्षण पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सरकार के व्यवहार से जाहिर हुआ। कैबिनेट ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने का निश्चय किया।
विपक्ष अभी तक सरकार या इसके मुखिया नरेंद्र मोदी को किसी सवाल पर मजबूती से घेरने में सफल नहीं हुआ है लेकिन इसके बावजूद मोदी जी का इकबाल लोक सभा चुनाव के बाद से अचानक घटता दिख रहा है। उनकी और पार्टी में उनके समर्थकों/प्रवक्ताओं की सारी ऊर्जा इसी बात पर खर्च होती लगती है कि हमने तिबारा सरकार बनाकर कोई ऐतिहासिक काम किया है और ऐसा कोई दूसरा नहीं कर पाया है। और इस पूरे कथन का मतलब यही है कि हमारा इकबाल बुलंद है। प्रधानमंत्री ने चुनाव के पहले से चार सौ पार के नारे के साथ अपने मंत्रियों से नई सरकार के लिए सौ दिन का एजेंडा तय करने को भी कहा था। अभी सौ दिन पूरे नहीं हुए हैं लेकिन मोदी जी का इकबाल सिमटता दिखता है। इसे देखने के लिए नई लोक सभा के कामकाज और उसमें अचानक आक्रामक हुए विपक्ष के कामकाज से ज्यादा भाजपा, सरकार और बाहर के कामकाज को देखना चाहिए। लोक सभा चुनाव के नतीजों में ताकत बढ़ने से राहुल गांधी और विपक्ष का उत्साह निश्चित रूप से बढ़ा है लेकिन असली कमजोरी दूसरी तरफ दिखाई देती है। एक राहुल के भाषण में प्रधानमंत्री समेत सात-आठ मंत्री अगर सीट से उठाकर दखल देने को बाध्य हों तो यह उनकी कमजोरी है।
संसद में विपक्ष के तेवर बदले हैं, मीडिया की बहसों में विपक्षी प्रवक्ताओं का ही नहीं एंकर/एंकरनियों का व्यवहार भी बदला है। लेकिन यह कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है संघ प्रमुख से लेकर विद्यार्थी परिषद तक का व्यवहार बदलना जिसने नीट परीक्षा की गड़बड़ी पर सीधे धर्मेन्द्र प्रधान से इस्तीफा मांगने में हिचक नहीं दिखाई। संघ प्रमुख और संघ के दूसरे लोगों के बयान की चर्चा तो अलग लेख ही लिखा गया है और लिखा जाएगा और भाजपा में आम राय है कि लोक सभा चुनाव में उसे संघ के लोगों का पूरा समर्थन नहीं मिला। इसकी बहुत वजहें हैं और मोहन भागवत के बयान भी उसकी तरफ इशारा कर रहे हैं। पर बीच चुनाव में भाजपा को संघ के समर्थन की जरूरत न होने का दावा करने वाले अध्यक्ष जेपी नड्डा के केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री बनने के बाद यह साफ लगा कि भाजपा नया अध्यक्ष लाने वाली है। पर जैसे ही जेपी का और नए नामों के प्रति पार्टी के विभिन्न धड़ों का रुख सामने आया पार्टी ने कदम वापस खींच लिए हैं। ऐसा मोदी-अमित शाह के राज में पहले नहीं होता था।
लेकिन इस जोड़ी के इकबाल में इससे भी ज्यादा कमी उत्तर प्रदेश मामले में दिखी जहां पार्टी को सबसे बुरी पराजय का मुंह देखना पड़ा था। लक्षण साफ लग रहे थे कि योगी की विदाई होने वाली है। दोनों उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक उनकी बुलाई बैठकों में भी नहीं जाते थे, साथ-साथ घर होने पर भी मिलना-जुलना बंद था। आदित्यनाथ ने भी कुछ दांव-पेंच चले लेकिन जब कांवड़ यात्रा के समय खाने-पीने की दूकानों पर मालिक के नाम की तख्ती लगाने का आदेश दिया(और जल्द ही यह एक जिले से बढ़कर पूरे प्रदेश में और उत्तराखंड तथा मध्य प्रदेश भी पहुंच गया) केन्द्रीय नेतृत्व को और फिर मौर्य और पाठक को सांप सूंघ गया। वक्फ कानून में बदलाव पर भी पार्टी बहुत उछल-कूद कर रही थी लेकिन कानून का प्रारूप पेश करते समय तक उसके पांव कांपने लगे और बिल को एक कमेटी के हवाले कर हाथ झाड़ लिया गया। सीएए और जनसंख्या रजिस्टर की बात तो पार्टी कब का भूल सी गई है, अब लगता है वह जनगणना भी नहीं कराएगी क्योंकि उसे हर आंकड़े से डर लगने लगा है। जीएसटी वसूली बढ़ती दिख रही थी तो उसके आंकड़े भी जारी करने पर रोक लगा दी गई।
लग रहा है कि नेता ही नहीं पार्टी समझ ही नहीं पा रही है कि उसे जाति के पक्ष में खड़ा होना है या सांप्रदायिक धु्रवीकरण के पुराने राग को अलापना है। यह बात कांवड़ यात्रा और वक्फ के मामले से भी ज्यादा दलित आदिवासी आरक्षण पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सरकार के व्यवहार से जाहिर हुआ। कैबिनेट ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर करने का निश्चय किया। क्रीमी लेयर वाली बात छोड़ दें तो अनुसूचित जातियों और जनजातियों में नया वर्गीकरण करके आरक्षण का लाभ अति पिछड़े जमातों को देने का फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन कांग्रेस और विपक्ष द्वारा जाति जनगणना कराने की मांग के साथ जाति के सवाल को प्राथमिकता देने से (हालांकि इस फैसले पर कांग्रेस ने कोई राय नहीं दी है और तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने इसे लागू करने की घोषणा की है) भाजपा की घिग्घी बंध गई लगती है। जब रोहित वेमुला की आत्महत्या और कई जगहों पर दलितों की सार्वजनिक पिटाई के सवाल पर दलितों का पढ़ा-लिखा और अम्बेडकरवादी खेमा भाजपा के एकदम खिलाफ था तब भी भाजपा आज जितना नहीं डरी थी लेकिन उत्तर प्रदेश में बसपा/मायावती का कारतूस फिस्स होने के बाद वह परेशान है।
शासन का इकबाल जम्मू-कश्मीर के बिगड़ते हालात और वहां सितंबर तक चुनाव कराने की बाध्यता से और गिर रहा है। जून के बाद से शुरू हुए आतंकी हमलों का क्रम अभी जारी है और उन्होंने जम्मू को नया निशाना बनाया है। उधर सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन लागू होने के पाच साल पूरे होने पर सितंबर तक चुनाव कराने का फैसला भी दिया है। कई राज्यों में विधान सभा के उपचुनाव हैं-अकेले उत्तर प्रदेश में दस सीटों पर चुनाव है। फिर दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव होने हैं। लोक सभा चुनाव से दिखे लक्षण बताते हैं कि इन राज्यों में भाजपा की स्थिति ज्यादा ही खराब है। विपक्ष लोक सभा में ताकत बढ़ाने के बाद इन राज्यों को लेकर भी उछल रहा है। इनमें से दो राज्यों में भाजपा का शासन है और वहां और ज्यादा हालत खराब लगती है। सो यह हिसाब लगाया जाने लगा है कि अगर उपचुनावों और विधान सभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा तो मोदी जी का इकबाल रसातल में पहुंच जाएगा। यह उनके शानदार ढंग से दो या तीन चुनाव जीतने से बड़ी राजनैतिक घटना होगी। पर मोदी जी चुनाव और भी खास ढंग से लड़ते हैं, यह बात भूलनी नहीं चाहिए।


