काव्यात्मकता से लबरेज रोचक डायरी
प्रतिष्ठित पत्रकार और कवि शिवप्रसाद जोशी की बॉन डायरी 'किनारे किनारे दरिया'हाल ही में काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश से प्रकाशित हुई है

- मनोज निगम
प्रतिष्ठित पत्रकार और कवि शिवप्रसाद जोशी की बॉन डायरी 'किनारे किनारे दरिया'हाल ही में काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश से प्रकाशित हुई है। डॉयचे वेले रेडियो की नौकरी के दौरान लेखक को जर्मनी में राइन नदी के किनारे बसे शहर बॉन में कुछ समय तक रहने का मौका मिला। लेखक ने बॉन शहर के अनुभवों को बहुत ही मार्मिकता के साथ अपने शब्दों में पिरोया है। यह कृति केवल बॉन शहर के समाज, इतिहास, भूगोल और संस्कृति से ही हमारा साक्षात्कार नहीं कराती बल्कि लेखक के काव्यात्मक गद्य से भी हमारा परिचय कराती है।
लेखक के अनुसार बॉन 150 से ज्यादा संगठनों और संस्थानों का शहर है। 1996 से बॉन को संयुक्त राष्ट्र शहर का दर्जा भी हासिल है। लेखक बॉन के संगीत को बहुत ही ध्यान से सुनता है। निश्चित रूप से अनंत चहचहाटों, नदी के शांत बहाव और बादलों की करवटों का संगीत कविता से प्रेम करने वाला संवेदनशील इंसान ही सुन सकता है। लेखक यहीं नहीं रुकता। वह बॉन की खामोशी भी दर्ज करता है।
लेखक को राइन नदी का सौन्दर्य बार-बार मोहित करता है। राइन नदी जर्मनी की सबसे लंबी नदी है। राइन के संदर्भ में अनेक कथाएं और लोक मिथन हैं। गौर करने लायक बात यह है कि लगभग बीस साल पहले स्विट्जरलैंड में हुई एक आपदा में यह नदी गंभीर रूप से प्रदूषित हो गई थी। ऐसा लगने लगा था कि यह दोबारा साफ नहीं हो पाएगी लेकिन अथक प्रयासों के बाद राइन अपने मौलिक स्वरूप में लौट आई। सवाल यह है कि हमारे देश में प्रदूषित हो चुकी अनेक नदियां क्या कभी अपने मौलिक स्वरूप में लौट पाएंगी ? यह शिवप्रसाद जोशी की भाषा का जादू ही है कि कभी-कभी उनका कथ्य एक कविता लगने लगता है। उनकी भाषा का एक नमूना देखिए-'मैं आसमान को देखता हूूं और उसमें झाँककर अपना घर देखता हूं, अपना गांव अपने लोग। आसमान की टोकरी से मैंने कुछ तारे निकाले, एक नदी निकाली और यहां बिछा दिया' यह तो केवल एक उदाहरण है। इस किताब में इस तरह के अनेक कथ्य हैं।
लेखक राइन नदी के बहाने अपनी माँ, पिता, भागीरथी, भिलंगना और टिहरी को याद करता है। वह महसूस करता है कि यह शहर रोज नया होता है। जो शहर कल था, वो आज नहीं है। यानी यह तेजी से बदलता हुआ शहर है। शिवप्रसाद जोशी डॉयचे वेेले रेडियो, जर्मन डाक सेवा के मुख्यालय डॉयचे पोस्ट और संयुक्त राष्ट्र की इमारतों की भव्यता और जटिलता का वर्णन करते हुए एक अलग और रोमांचक दुनिया का खाका खींचते हैं। यहां कुत्तों के शौकीन बहुत हैं। कबूतर भी काफी दिखाई देते हैं। बाकी चिड़िया कम दिखाई देती हैं। बाजार नई पीढ़ी के सपनों को भुनाने में पूरी तत्परता से लगा हुआ है।
लेखक को बॉन की उत्सवधर्मिता आकर्षित करती है। इसके बावजूद वह आशा और निराशा के सागर में गोते लगाता रहता है। बॉन में रहते हुए भी उसके साथ भीमसेन जोशी, फतेह अली खान और कुमार गंधर्व हैं और उनका संगीत है। इस संगीत के सहारे वह अपनी उदासी दूर करने का प्रयास करता है। लेखक का मानना है कि खिड़की कभी धोखा नहीं देती। इसलिए उसे विनोद कुमार शुक्ल की किताब 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' याद आती है और वह इस खिड़की के सहारे अपनी उदासी दूर भगाता है। उनके पास जर्मन भाषा सीखने के अनुभव हैं तो फरवरी में जर्मनी के बड़े हिस्से में होने वाले कार्निवल की ऐय्याशी के किस्से भी हैं। लेखक एक तरफ बॉन की शांति, सुंदर हवा और सहजता के आनंद को महसूस करता है तो दूसरी तरफ सप्ताहांत की नशे में डूबी अराजकता को भी दर्ज करता है।
एक सच्चा लेखक विदेश में रहकर पूर्व में अपने देश में घटित बर्बरतापूूर्ण घटनाओं को याद कर बेचैन न हो तो उसकी संवेदनशीलता किसकाम की। जर्मनी में रहकर भी शिवप्रसाद जोशी अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंस की 15वीं बरसी पर दुखी होते हैं। उसके बाद उन्हें विदेश की कई जगहों समेत नंदीग्राम, सिंगुर और मुजफ्फरनगर में हिंसा का नंगा नाच याद आने लगता है।
लेखक कई बार चुनौती के सामने खड़े नजर आते हैं। वह ठीक ही तो कहता है कि हम सबके भीतर बॉन है, अपने प्रकाश, अपनी नदी, अपनी सड़क, अपनी इच्छा, अपनी अहमियत, अपने रुतबे, अपने रहस्य, अपने झंझटों, अपनी क्रूरता और अपनी अच्छाई के साथ। निश्चित रूप से शिवप्रसाद जोशी की यह किताब डायरी विधा की रोचक किताब है लेकिन यह आत्मचिंतन का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज भी है। यह शिवप्रसाद जोशी की भाषा का कमाल है कि कभी उनका लिखा हुआ गद्य एक कविता लगने लगता है तो कभी एक यात्रा वृत्तांत। कभी-कभी ऐसा भी महसूस होता है कि वे दार्शनिक चिंतन कर रहे हैं।
यानी उनके गद्य में बहुत सारी विधाएं गुथी हुई लगती हैं। अगर शिवप्रसाद जोशी यह डायरी न लिखते तो क्या हम बॉन के इस तरह जान पाते ?


