भोग्य और भोग्या
सबसे पहले दिखे उसके मांसल जंघे जीन्स में कसे हुए

- प्रदीप मिश्र
सबसे पहले दिखे उसके
मांसल जंघे जीन्स में कसे हुए
और नज़रें कमर के आसपास जाकर ठहर गयीं
कल्पना ने वह सब देखा
जो दिख नहीं रहा था
पूरे बदन में उत्तेजना की एक लहर दौड़ गयी
उसके स्तनों के आस-पास तो
मंडरातीं रहीं नज़रें
निजी क्षणों के अनुभवों ने
कल्पना में उड़ान भर ली
नख से शिख तक डूब गया
भोग की कामना में
जैसे दारू की घूँट ने मदहोश कर दिया हो
या ड्रग्स के नशे में मदमस्त
धड़ के ऊपर पहुँचते ही
उतर गया सारा नशा
सामने एक सुन्दर-मोहक-मासूम चेहरा
प्रकृति की सबसे सुन्दर रचना
मन अंदर तक भीग गया
झुक गयीं नजरें
आत्मग्लानि ने दी दस्तक
काँपने लगा अंदर तक
मन ने बचाव में गढ़ा तर्क
उसके वस्त्र ही ऐसे थे
जिसमें उभरे अंग
विचलित कर रहे थे
सभ्यता और संस्कृति के
लिज़-लिज़े तर्कों ने भी हूँकार भरी
सारी गलती उसकी
हम निरा संत और सभ्य
अपनी संस्कृति के रक्षक
उसकी नियति है
भोग्य और भोग्या
स्थगित हो चुके आत्मग्लानि ने
अंदर... बहुत अंदर जाकर
जोर से आवाज़ दी - माँ
वह भोग्य और भोग्या
माँ में बदल गयी
बदल गया
जंघे से कमर तक का दृश्य
हमारे अस्तित्व का सूत्र
उर्वर था वहाँ
मन जहाँ पर उत्तेजित हुआ फिर रहा था
वहाँ पूरी अस्मिता नतमस्तक थी
वह सृजन की पीड़ा
सर्जक की प्रर्थना स्थली
वस्त्र और संस्कृति के तर्क
धू..धू...करके जलने लगे
अक्षम्य अपराध के
गंदे धुएं में घनीभूत हो रही थी घुटन
इतनी गंदी नज़र
इतना गंदा मन
इतनी फूहड़ कल्पना
इतनी मूढ़ चेतना
धिक्कार.... धिक्कार...... धिक्कार ।


