वेंटिलेटर पर है भारतीय लोकतंत्र
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को उनकी आबकारी शराब नीति के लिए गिरफ्तार किया है

- हरेश एम. जगतियानी
अब समय आ गया है कि संयुक्त विपक्ष एक संयुक्त घोषणापत्र प्रकाशित करे जिसमें वे पीएमएलए, यूएपीए, मकोका जैसे घातक कानूनों और ऐसे अन्य कठोर अधिनियमों को निरस्त करने का वादा करें जिनका उपयोग सत्ता में बैठी एक दुर्भावनापूर्ण कार्यपालिका द्वारा विरोधियों के खिलाफ उत्पीड़न के हथियार के रूप में किया जाता है।
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को उनकी आबकारी शराब नीति के लिए गिरफ्तार किया है। ईडी को व्यापक रूप से भारतीय जनता पार्टी का अंग माना जाता है। ईडी का दावा है कि यह शराब नीति कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए तैयार की गई थी। जिन कुछ लोगों को इसका फायदा हुआ उन्होंने केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को रिश्वत के रूप में सौ करोड़ रुपये दिए जिनका उसने गोवा में चुनाव लड़ने के लिए इस्तेमाल किया। इस प्रकार अपराध (रिश्वत) की आय को चुनावी उद्देश्यों के लिए वैध बनाया गया था जो धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) यानी मनी लांड्रिंग का प्रकरण बनता है।
केजरीवाल को 22 मार्च को गिरफ्तार किया गया था और न्यायपालिका के अलग आदेश आने तक 28 मार्च तक प्रवर्तन निदेशालय की हिरासत में भेजा गया। गिरफ्तारी को सही ठहराने वाले सबूत कहते हैं कि केजरीवाल ने रिश्वत ली थी। मुकदमा अभी शुरू नहीं हुआ है और सबूत यह है कि कुछ संभावित सरकारी गवाह हैं। आरोपपत्र भी अभी तैयार नहीं हुआ है और यह कि ईडी कार्यालय द्वारा नौ समन जारी किए जाने के बावजूद केजरीवाल द्वारा पूछताछ के लिए कार्यालय जाने से इनकार करना इस बात का संकेत है कि वे इस अपराध में शामिल हैं। इसी कारण से उनकी गिरफ्तारी की गई है। यह सब लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर हो रहा है जो नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में लगातार तीसरा कार्यकाल दे सकता है। सवाल यह है कि यह प्रकरण क्या दर्शाता है?
क्या अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी कानूनी तौर पर जायज थी? यहां तक कि अगर आप इस आधार से शुरू करते हैं कि सभी राजनेता बेईमान हैं, तो भी इसका एक ही जोरदार जवाब है- नहीं। सत्तारुढ़ हर राजनीतिक दल का काम राजकोषीय नीतियों को कानून बनाना है। सिर्फ इसलिए कि इस तरह की नीति जनता के एक वर्ग को लाभ पहुंचाती है या लाभ प्रदान करती है, यह अपने आप में एक विधेय अपराधिक कृत्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है जिससे मिली आय पीएमएलए के दायरे में आती है। अब तक सामने आए सबूत कमजोर, संदिग्ध और संभवत: विशिष्ट उद्देश्य से प्रेरित हैं। शराब नीति के 'लाभार्थियों' से आप के खजाने तक धन की आवाजाही को साबित करने के कोई ठोस सबूत नहीं है। यह न्यायपालिका पर निर्भर करता है कि वह मामलों को ठीक करे और केजरीवाल को जल्द से जल्द जमानत पर रिहा करने का आदेश दे।
अफसोस की बात है कि कुल मिलाकर भारत में जमानत न्यायशास्त्र निराशाजनक है जो राज्य और अभियोजन पक्ष के पक्ष में है। यह जानते हुए भी कि वास्तविक मुकदमे में असाधारण रूप से देरी हो सकती है जिससे अभियुक्त को अपनी बेगुनाही साबित करने का अवसर नहीं मिलता है, अदालतें अक्सर अपराध के एक संदिग्ध को दंडित करने के साधन के रूप में जमानत से इनकार करती हैं । महिलाओं को इस संबंध में कुछ हद तक वैधानिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त हैं लेकिन यह एक और गंभीर चर्चा का विषय है। यह कहने के लिए पर्याप्त अवसर है कि न्यायिक प्रणाली, विशेष रूप से निचली अदालतें आरोपी के साथ उदार नजर नहीं आती हैं।
एक अधिक प्रभावशाली शिकायतकर्ता अपने से कम प्रभावशाली विरोधी के नुकसान के लिए मामले में हेरफेर कर सकता है। मोदी बनाम केजरीवाल मुकाबले में परिणाम पहले से तय मालूम होता है। केवल जमानत न देकर केजरीवाल को चुनावी मैदान से बाहर रखा जा सकता है।
जब किसी राष्ट्रीय पार्टी के नेता को दौड़ से बाहर रखा जाता है तो ऐसे में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनावों का क्या होगा? लोकतंत्र वेंटिलेटर के लिए रोता है। इस जीवन निर्वाह उपकरण का प्रभारी कौन है? फिलहाल तो मोदी हैं और जब तक कि निम्नलिखित दोनों परिस्थितियां न बनती हों और वे मोदी के हाथ को स्विच से दूर करने का प्रयास न करें। पहला, ममता बनर्जी और वामपंथियों समेत पूरे विपक्ष को अपने महत्वहीन मतभेदों को भुलाकर भाजपा के खिलाफ संयुक्त चुनावी जंग लड़नी होगी। एक भी लोकसभा सीट पर त्रिकोणीय मुकाबला नहीं होना चाहिए।
भाजपा के पास देश के 36 प्रतिशत वोट हैं। शेष 64 फीसदी वोट यदि निराश नहीं हैं तो भी निश्चित रूप से सत्तारूढ़ दल पर मोहित नहीं हैं। मोदी इस बात को जानते हैं। दूसरी, और शायद अधिक महत्वपूर्ण बात है कि न्यायपालिका, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय को मजबूती के साथ स्वतंत्र रहना चाहिए। अगर निष्पक्ष चुनाव के हित में हो तो केजरीवाल को समय पर जमानत मिलनी चाहिए। यहां तक कि अगर अदालत केजरीवाल को जमानत देने की इच्छुक हो तो वह उनसे वचन भी ले सकती है कि चुनाव के बाद वे एक बार फिर खुद ईडी के समक्ष आत्मसमर्पण कर देंगे। लोकतंत्र के हित में ऐसा हो सकता हो, तो ऐसा ही सही। चुनावी मैदान से एक राष्ट्रीय पार्टी को बाहर रखने की कोशिश में लोकतंत्र की मौत की घंटी बज गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को केवल इसलिए रद्द कर दिया क्योंकि उसे लगा कि सार्वजनिक महत्व के मामलों में गोपनीयता लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। यह एक गंभीर स्थिति है। प्रधानमंत्री पद के तीसरे कार्यकाल के आकांक्षी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को जेल में बंद कर दिया। इसके बावजूद उसकी आकांक्षाओं की एक वैध चुनौती को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता है।
यह वैश्विक चिंता का विषय है कि भारत में लोकतंत्र बना रहे। हम ऐसे भावी लोकतंत्रों से घिरे हैं जो युवा और महत्वाकांक्षी हैं जहां रूस और चीन एक होने का दिखावा भी नहीं करते हैं। हमारे नागरिकों को अपनी पसंद का प्रतिनिधि चुनने के निरंकुश विकल्प से वंचित करके उनसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीन लें तो समझिये कि लोकतंत्र मर चुका है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ('यदि' शब्द ज्यादा उचित है) केजरीवाल को कब रिहा किया जाता है और वे भाजपा की जीत को खतरे में डालने के लिए अपेक्षित समर्थन हासिल नहीं करते हैं। उनकी रिहाई से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि तब भाजपा निष्पक्ष और लोकतांत्रिक तरीके से जीत जाती। लेकिन केजरीवाल की उपस्थिति के बिना होने वाला चुनाव एक ऐसा चुनाव होगा जो कभी हुआ ही नहीं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए फ्रांसीसी दार्शनिक वोल्टेयर ने कहा है- 'मैं आपके विचारों से सहमत नहीं हो सकता हूं, लेकिन उन्हें व्यक्त करने के आपके अधिकार की रक्षा मैं अपनी आखिरी सांस तक करूंगा।' अपने प्रवक्ता के जरिए जर्मनी ने केजरीवाल की गिरफ्तारी पर सवाल उठाए हैं लेकिन भारत ने उसे अपने काम से काम रखने को कहा है। 'भारतीय मामलों में जर्मनी के हस्तक्षेप' के बावजूद यह भारत के मजबूत लोकतांत्रिक होने के महत्व का संकेत है। यह सभ्य दुनिया के लिए मायने रखता है।
अब समय आ गया है कि संयुक्त विपक्ष एक संयुक्त घोषणापत्र प्रकाशित करे जिसमें वे पीएमएलए, यूएपीए, मकोका जैसे घातक कानूनों और ऐसे अन्य कठोर अधिनियमों को निरस्त करने का वादा करें जिनका उपयोग सत्ता में बैठी एक दुर्भावनापूर्ण कार्यपालिका द्वारा विरोधियों के खिलाफ उत्पीड़न के हथियार के रूप में किया जाता है। इसके अतिरिक्त संयुक्त विपक्ष को हमारी न्यायिक मशीनरी को पूरी तरह से स्वतंत्र बनाने और ऊर्जा प्रदान करने की शपथ लेनी चाहिए। इस मुकाबले को न्यायपालिका बनाम 'मोदी की अदालत' तक सीमित न किया जाए। आम धारणा यह है कि भाजपा अजेय है और उसकी जीत की घोषणा औपचारिक रूप से की जानी चाहिए। फिर अरविंद केजरीवाल को चुनाव लड़ने से रोककर और सलाखों के पीछे रखकर मोदी अपने तीसरे कार्यकाल की गरिमा को क्यों धूमिल कर रहे हैं? प्रिय प्रधानमंत्री जी, लोकतांत्रिक ढंग से प्रदर्शित करें कि आप अपने आप में विश्वास रखते हैं।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। सिंडिकेट : द बिलियन प्रेस)


