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सीमित युद्ध से भारत को सीखने होंगे कई सबक

पहलगाम में आतंकवादी हत्याओं की निंदा करने और रक्षा बलों को सलाम करने में सारा देश प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा है

सीमित युद्ध से भारत को सीखने होंगे कई सबक
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- जगदीश रत्तनानी

आज समझदारी इसी में है कि युद्ध के कोहरे के बीच क्या सही या गलत हुआ, इस बाबत सभी बाहरी दावों और प्रतिदावों को त्याग दिया जाए। समाचार मीडिया एंकरों और स्व-घोषित अति-राष्ट्रवादियों ने कई (ज्यादातर झूठे) दावे कर गड़बड़ कर दी है। सरकार समर्थक मीडिया ने अपने आकाओं की सेवा में काल्पनिक दावों की ऐसी झड़ी लगा दी जिससे सरकार शर्मिंदा हो सकती है और मीडिया ने खुद को बेकार साबित कर दिया है।

पहलगाम में आतंकवादी हत्याओं की निंदा करने और रक्षा बलों को सलाम करने में सारा देश प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा है। इस घटना के कारण पाकिस्तान पर भारत ने पांच दशकों में इतना सघन हमला किया। भारत की इस कार्रवाई के लिए व्यापक समर्थन आतंकवादियों को खोजने और उन्हें न्याय के कटघरे में लाने के राष्ट्रीय संकल्प को दर्शाता है। फिर भी, यह संकल्प आत्म-प्रशंसा के शोर के एक प्रतिध्वनि कक्ष में उतरने का जोखिम उठाता है जो राष्ट्र को उस गहन विश्लेषण से रोक सकता है।

इस संघर्ष में हालांकि कुछ भारतीय उद्देश्यों को हासिल कर लिया गया लेकिन इस स्तर पर यह तर्क देना मुश्किल है कि ऑपरेशन सिंदूर एक बड़ी सफलता थी। भले ही ऑपरेशन में सीमित सफलता मिली है लेकिन इससे मिले सबक असीमित हैं। हमारे पास डेटा की एक खदान है जिसमें राजनीतिक ग्राउंड वर्क, राजनयिक जुड़ाव और योजना, रणनीति या परिचालन मुद्दों के विचारों से लेकर उच्च तकनीक वाले सैन्य हार्डवेयर व अत्याधुनिक प्लेटफार्मों के प्रदर्शन पर समृद्ध युद्ध क्षेत्र डेटा तक शामिल हैं।
अगली लड़ाई उन लोगों द्वारा जीती जाएगी जो सैन्य मोर्चे पर इन सीखों पर अच्छी तरह से अमल कर सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा सबक विशेष रूप से राजनीतिक मोर्चे पर होगा जहां युद्ध पर बड़े निर्णय लिए जाते हैं। सीखना हमेशा आसान नहीं होता है। उच्चतम राजनीतिक स्तर पर, यह उस रणनीति को चुनौती देता है जिसने हमें मर्दानगी की बातें और युद्ध के नारे दिए, जिसमें चुनावी रैली भी शामिल है, लेकिन युद्ध के समय अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाने के लिए आवश्यक कड़ी मेहनत के कम सबूत मिले. साथ ही, विनम्रता, ईमानदारी और जिज्ञासा की भावना के साथ कठिन सवालों को प्रोत्साहित करने की इच्छा भी होनी चाहिए, जिनमें से कोई भी आत्म-प्रशंसा से मदद नहीं करता है जो गहन जांच को बंद कर देता है।

साथ ही अगर हमें इस मुद्दे पर राष्ट्रीय एकता का पूरा लाभ उठाना है तो विपक्ष पर चुनावी शैली के हमलों के बजाय राजनीतिक दलों को अधिक विश्वास-निर्माण करने वाले कदमों के साथ एक साथ लाना होगा।

पहलगाम आतंकी हत्याओं के ठीक दो दिन बाद 24 अप्रैल को बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में जब लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेताओं सहित सभी राजनीतिक नेता मौजूद थे, उसमें प्रधानमंत्री के शामिल न होने के फैसले से विश्वास बहाली में कोई मदद नहीं मिली। वह गलत निर्णय पुरानी ढर्रे की नीतियों के आधार पर लिया गया था। विभिन्न देशों की राजधानियों में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का सरकार का निर्णय अलग है। यह दृष्टिकोण में बदलाव का संकेत देता है लेकिन कांग्रेस द्वारा नामित नहीं किए गए शशि थरूर के सूची में शामिल होने पर पैदा हुआ विवाद- एक अनावश्यक चुभन- हमें बताता है कि पुरानी आदतें मुश्किल से छूटती हैं। हम उन पाठों पर वापस आ गए जो सीखे नहीं गए हैं। कांग्रेस पहले ही कह चुकी है कि भाजपा गेम खेल रही है। यह एक ऐसे मुद्दे पर कमजोर भरोसे और खराब राजनीतिक संबंधों में उतरता है जो गहरी राजनीतिक एकता की मांग करता है।

जानकारियां जिस तरह से अर्थहीन हो गई है उससे कुछ सबक मिलते हैं। आज समझदारी इसी में है कि युद्ध के कोहरे के बीच क्या सही या गलत हुआ, इस बाबत सभी बाहरी दावों और प्रतिदावों को त्याग दिया जाए। समाचार मीडिया एंकरों और स्व-घोषित अति-राष्ट्रवादियों ने कई (ज्यादातर झूठे) दावे कर गड़बड़ कर दी है। सरकार समर्थक मीडिया ने अपने आकाओं की सेवा में काल्पनिक दावों की ऐसी झड़ी लगा दी जिससे सरकार शर्मिंदा हो सकती है और मीडिया ने खुद को बेकार साबित कर दिया है। यह ऐसे दोस्तों का मामला है जो दुश्मनों से भी बदतर काम कर रहे हैं। मीडिया तब सही तरीके से काम करता है जब सभी प्रकार के विचारों को फलने-फूलने की अनुमति दी जाती है। इसका उदाहरण ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म अमेज़ॅन हैं जहां पर ग्राहक समीक्षाओं का समग्र मूल्यांकन कर नकारात्मक और सकारात्मक प्रतिक्रिया प्रकाशित की जाती है। एकतरफा विचारों से चिह्नित एक पारिस्थितिकी तंत्र सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण रूप से उस पक्ष के लिए बुरा है जिसे आगे बढ़ाया जा रहा है। ये प्राथमिक सबक हैं जिन्हें फिर से सीखने की आवश्यकता हो सकती है।

युद्ध अंतिम उपाय है। यह भारत कह चुका है और इसे वास्तव में प्रधानमंत्री ने अतीत में व्यक्त किया है। 2022 में कारगिल में प्रधानमंत्री को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था- 'भारत ने हमेशा युद्ध को अंतिम उपाय के रूप में देखा है, लेकिन राष्ट्र पर बुरी नजर डालने वाले किसी भी व्यक्ति को करारा जवाब देने की ताकत और रणनीति सशस्त्र बलों के पास है'। तो भी जब इस अंतिम उपाय का प्रयोग किया जाता है तो ब्रह्मास्र अपनी शक्ति खो सकता है। इसका उसी तरह से फिर से उपयोग या संचालन नहीं किया जा सकता। कम कार्रवाई को हल्के में लिया जाएगा, मजबूत कार्रवाई से अस्वीकार्य स्तर के जोखिम के साथ तेजी से वृद्धि का जोखिम होगा। डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा पहले जल्दबाजी में घोषित किए गए संघर्ष विराम के मद्देनजर यह भारत के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत या पाकिस्तान ने संघर्ष विराम की घोषणा नहीं की थी। भविष्य में इसका क्या मतलब है इसका पूरी तरह से विश्लेषण करने में समय लगेगा। इस बीच, व्हाट्सएप समूहों पर भेजी जा रही कुछ राजनीतिक प्रतिक्रियाओं से बचना चाहिए- एक ने कहा कि 'पूर्ण युद्ध' केवल तभी संभव है जब भाजपा 400 सीटें जीते। आतंकी हमले और युद्ध ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिन पर किसी को वोट और संसद में सीट मांगनी चाहिए। यह खतरनाक और अपमानजनक है- यह प्रतिक्रिया अति उत्साही, सहानुभूति रखने वालों और पार्टी के समर्थकों से आती है। ये लोग उस पार्टी को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं जिसका वे समर्थन करना चाहते हैं।

ध्यान दें कि ट्रम्प ने संघर्ष विराम पर बोलते समय भारत और पाकिस्तान को बराबरी का दर्जा दिया। ट्रम्प ने एक ही समय अस्तित्व में आए दो देशों के संबंध में स्वीकृत डी-हाइफ़नेशन को मिटा दिया। (डी-हाइफ़नेशन विदेश नीति का एक रूप है जहां एक देश संघर्ष की स्थिति में किसी एक देश को दूसरे पर प्राथमिकता दिए बिना परस्पर विरोधी हितों वाले दो या दो से अधिक देशों के साथ राजनयिक संबंध रखता है)। दोनों देश बहुत अलग रास्तों पर चले हैं- भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में एक आर्थिक महाशक्ति है जबकि पाकिस्तान एक असफल लोकतंत्र के रूप में है जो आर्थिक अनिश्चितता का सामना कर रहा है। यह री-हाइफ़नेशन खेदजनक तस्वीर है क्योंकि यह भारत को बौना बनाता है, भारत को चीन से स्पर्धा करने वाले और शीघ्र ही चीन की बराबरी पर आने वाले देश के रूप में देखे जाने के बजाय संकुचित और सीमित रखता है।

अंत में, पहलगाम में हुई हत्याएं सरकार के उन दावों को खोखला साबित करती हैं कि अनुच्छेद 370 को प्रभावी ढंग से खत्म करने के बाद घाटी में शांति बहाल होगी। वास्तव में कई लोगों ने तब बताया था कि ऐसा होगा लेकिन यह स्थिति स्पष्ट रूप से सामने नहीं आई है। अब हम पूछ सकते हैं कि आतंकवादी इतनी आसानी से हमला कैसे करते हैं, सुरक्षा बल कहां थे, खुफिया जानकारी का स्तर क्या है और जब बार-बार ऐसी हत्याएं होती हैं तो जिम्मेदार लोगों को दोषी क्यों नहीं ठहराया जाता। पहलगाम में निर्दोष लोगों के हत्यारे आज भी खुलेआम घूमते हैं।

इस अल्पकालीन युद्ध से सीखने वाले कई सबक हैं लेकिन ये सबक केवल उन लोगों के लिए उपलब्ध होंगे जो खुद को चुनौती दे सकते हैं और कठिन प्रश्न पूछ सकते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट : द बिलियन प्रेस)


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