गांधी को भूलने से बार-बार इंकार करता हुआ भारत
एक पुष्ट संसदीय लोकतंत्र हो या संविधान अथवा फिर आरक्षण- यह सारा कुछ भारत को गांधीजी के मरने के बाद ही मिला

- डॉ. दीपक पाचपोर
एक पुष्ट संसदीय लोकतंत्र हो या संविधान अथवा फिर आरक्षण- यह सारा कुछ भारत को गांधीजी के मरने के बाद ही मिला। तो भी इनमें गांधी के प्राण बसते हैं और उनकी आत्मा का निवास है। दक्षिण अफ्रीका से शुरू हुआ रंगभेद के खिलाफ उनका आंदोलन एक तरह से लोकतंत्र की ही लड़ाई थी, समानता का संदेश था और एक ऐसी व्यवस्था की ज़रूरत को प्रतिपादित करता था।
जिस प्रकार से लोकतंत्र, संविधान, आरक्षण जैसे मुद्दों को लेकर भारतीय जनता पार्टी भारत को हमेशा भ्रमित रखना चाहती है, उसी तरह वह गांधी को लेकर नये भारत को असमंजस में डालने की कोशिश करती है। इस भ्रम को फैलाने के अभियान की अगुवाई स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं। यह अलग बात है कि इस प्रक्रिया में वे खुद ही सर्वाधिक असमंजस में हैं। चूंकि गांधी के व्यक्तित्व के बरक्स मोदी पासंग भी नहीं हैं तथा बापू का नैसर्गिक आभामंडल मोदी की कृत्रिम चकाचौंध को फीका करता है, मोदी चाहते हैं कि भारत गांधीजी को भूल जाये। उनका दुर्भाग्य कि पिछले 10-11 वर्षों की उनकी अथक मेहनत के बावजूद भारत गांधी को भूलने से बार-बार इंकार करता रहा है।
जिस विचारधारा के मोदी प्रतिनिधि हैं वह गांधी के खिलाफ़ तभी से विद्यमान है जब वे दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे- कुछ और पहले से। उनके भारत आगमन के कुछ आगे-पीछे एक ऐसी विचारधारा पनप रही थी जो आजादी के बाद भारत को एक आधुनिक देश बनाने की बजाय मध्ययुगीन समाज की ओर लौटाना चाहती थी। महात्मा गांधी और उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया। स्वतंत्रता किस तरह से हासिल करनी है और आजाद भारत किस दिशा में बढ़ेगा- इसका ब्लू प्रिंट बापू के पास 'हिंद स्वराज्य' के रूप में बना-बुनाया था। इसलिये आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने के लिये जनता ने महात्मा गांधी और कांग्रेस की वैचारिकी को चुना था। लोग देख रहे थे कि जो विचारधारा गांधी विरोधियों की है वह समावेशी नहीं है और उसका असली उद्देश्य अंग्रेजों के जाने के बाद देश की सामाजिक व्यवस्था को कुछ लोगों के हाथों में सौंप देना था जो एक सामंती व्यवस्था के जरिये ही सम्भव था। इसलिये उसे बचाने के लिये अंग्रेजों के खिलाफ इस विचारधारा की लड़ाई कालांतर में फिरंगियों के अप्रत्यक्ष समर्थन में बदल गई। लोगों ने कोई गलती नहीं की और स्वतंत्र भारत की सत्ता सौंपी उसी संगठन को जिसने स्वतंत्रता की लड़ाई का नेतृत्व किया था।
2014 में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता मिली, तो उसने आजादी के बाद देश का जो पुनर्निर्माण हुआ, उससे कुछ सीखने की बजाय छह दशकों की संचित अपनी खीज और कुंठा को निकालना शुरू किया। मोदी ने लोगों को बताया कि 'इतने समय तक देश ने कुछ हासिल नहीं किया।' दरअसल मोदी उस पीढ़ी का नेतृत्व कर रहे हैं जो मानता है कि 'भारत को असली आजादी 2014 के बाद मिली है'; या, 'देश स्वतंत्र नहीं हुआ है बल्कि अंग्रेज उसे 99 वर्षों की लीज़ पर दे गये हैं'। मोदी इसी नये भारत के नेता हैं, जिनके अनुसार '2014 के पहले आदमी भारत में जन्म लेने पर पछताता था।' गांधी जहां समानता और धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार थे, वहीं ये शक्तियां वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज बनाने की इच्छुक हैं। इन प्रतिगामी ताकतों की विकसित भारत की अवधारणा ऐसी है जहां कुछ लोगों को तो जन्मजात विशेषाधिकार हों, शेष पांच किलो राशन पर गुजारा करें। अमीरों की थालियों से रिसते हुए भोजन से बाकी पेट भरें- यही इस वर्ग का अर्थशास्त्र है।
ऐसे अनेक कारण हैं जिनके चलते इनकी गांधी से कभी न बनी। बनती अब भी नहीं, लेकिन देश और दुनिया में गांधी जो अर्जित कर गये हैं उससे किसी में इतनी हिम्मत और नैतिक बल नहीं है कि वे गांधी की सार्वजनिक आलोचना कर सकें। सीमित सदस्यों वाली बैठकों, गोदी मीडिया के कार्यक्रमों, ड्राइंग रूम के चुटकुलों, वाट्सएप विश्वविद्यालय के सिलेबस आदि में वे चाहे जितना गांधी को गरियाएं- अपने ऐसे किसी भी बयान को रिकॉर्ड पर लाने का साहस न मोदी में है, न उनके सिपहसालारों में है, न उनकी पार्टी में। चाहे गांधी का हत्यारा उनका अपना रहा हो, उसकी यह पूरी बिरादरी मन ही मन तारीफ़ करती हो परन्तु जहां देश के भीतर अपनी छवि को साफ-सुथरा दिखाना हो, उन्हें गांधी के समक्ष सिर नवाना ही पड़ता है; और विदेश में खुद को गांधी के देश से आया हुआ बतलाना ज़रूरी हो जाता है। दूसरी ओर मोदी के लिये यह भी ज़रूरी है कि उनके प्रिय काडर में से कोई गांधी की तस्वीर पर गोलियां चलाए तो उन्हें कहना पड़ता है कि 'उसे वे दिल से कभी माफ़ नहीं करेंगे।'
गांधी जी को लेकर मोदी और उनकी सरकार की दुविधा ऐसी सघन है कि एक ओर तो वे कहते हैं कि 'दुनिया के बच्चे-बच्चे की जुबान पर गांधी का नाम होना चाहिये', दूसरी ओर संसद भवन के मुख्य द्वार पर बनी गांधी की मूर्ति उन्हें कोने में रखवानी पड़ती है। वे जानते हैं कि मूर्ति निष्प्राण ही सही, लेकिन है तो प्रेरणादायिनी। बापू की विचारधारा भारत के कोटि-कोटि लोगों के मन में अंत:सलिला बनकर प्रवाहित होती है जो सम्पूर्ण भारत के नैतिक मूल्यों को जीवन्त बनाये रखती है। गांधी अपने पीछे प्रतिरोध का जो साहस छोड़ गये हैं वह उनकी मृत्यु के लगभग चौथाई सदी के बाद भी मोदी जैसे शासकों तथा उनके जैसों को डराने के लिये काफी होता है। तभी तो सारे साल गांधी के खिलाफ विषवमन कर नयी पीढ़ी के मन में उनके प्रति घृणा फैलाने की लाख कोशिशों के बावजूद हर साल कम से कम 2 अक्टूबर और 30 जनवरी को उनके सामने झुकना ही पड़ता है। उनके लिये ये दुखदायी प्रसंग तब भी आते हैं, जब विदेश यात्रा के शौकीन मोदी को मेजबान किसी शहर में बनी गांधी प्रतिमा के समक्ष खड़ा कर देते हैं।
यह भी मोदी के लिये तकलीफ़देह होता है जब वे यह कहकर गांधी का कद छांटने का प्रयास करते हैं कि 'रिचर्ड एटनबरो द्वारा उन पर फिल्म बनाने से पहले गांधी को दुनिया बहुत नहीं जानती थी', परन्तु लोग उनकी अज्ञानता पर हंसते हैं, आलोचना करते हैं। ऐसा नहीं कि मोदी गांधी की महानता से अपरिचित हों। सच कहा जाये तो उनका यही प्रयास होता है कि लोग गांधी को भूल जायें। उल्टे, गांधीजी के इतने प्रसंग सामने आ जाते हैं कि मोदी पहले से और भी बौने हो जाते हैं। देश उस महामानव को भूलने की बजाय और शिद्दत से याद कर उठता है। अपने 11 वर्षों के कार्यकाल में मोदी ने अनेक प्रयास किये कि देश गांधी को भूल जाये और केवल उन्हें याद रखे। कभी उनके आईटी सेल ने कहानी गढ़ी कि गांधी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे; या फिर उन्हीं के कारण पाकिस्तान बना... आदि।
देश को गांधी से विमुख करने की बहुतेरी कोशिश मोदी के नेतृत्व में इन ताकतों ने की लेकिन गांधी का नाम भारत के सीने पर इतने गाढ़े अक्षरों में गोदा हुआ है कि वह मिटाये नहीं मिटता। एक पुष्ट संसदीय लोकतंत्र हो या संविधान अथवा फिर आरक्षण- यह सारा कुछ भारत को गांधीजी के मरने के बाद ही मिला। तो भी इनमें गांधी के प्राण बसते हैं और उनकी आत्मा का निवास है। दक्षिण अफ्रीका से शुरू हुआ रंगभेद के खिलाफ उनका आंदोलन एक तरह से लोकतंत्र की ही लड़ाई थी, समानता का संदेश था और एक ऐसी व्यवस्था की ज़रूरत को प्रतिपादित करता था जिसे कोई संविधान ही संजोकर, संरक्षित और सुनिश्चित कर सकता है। सत्य व अहिंसा पर आधारित इस देश का औपनिवेशिक दासता के खिलाफ महान संघर्ष गांधी को भारत ही नहीं विश्व का महानतम नेता बनाता है। मोदी के भुलाये भारत गांधी को कभी नहीं भूलेगा।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


