जान और जहान के संकट में फंसा भारत
भारत में कोरोना के लगातार बढ़ते मामले और मौतों के आंकड़े देखते हुए एक बार फिर लॉकडाउन की चर्चा हो रही है।

भारत में कोरोना के लगातार बढ़ते मामले और मौतों के आंकड़े देखते हुए एक बार फिर लॉकडाउन की चर्चा हो रही है। अमेरिकी प्रशासन के मुख्य चिकित्सा सलाहकार डॉक्टर एंथनी फाउची ने कुछ दिनों पहले मोदी सरकार को लॉकडाउन लगाने की सलाह दी थी। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने भी इस बार लॉकडाउन को कोरोना के प्रसार को रोकने का एकमात्र तरीका बताया, लेकिन इसके साथ कमजोर वर्गों के लिए 'न्यायर' की सुरक्षा की बात भी कही। सर्वोच्च अदालत ने भी मोदी सरकार को दूसरी लहर की रोकथाम के लिए लॉकडाउन लगाने की सलाह दी थी, हालांकि यह भी कहा कि हाशिए के समुदायों की जरूरतों को पूरा करने के लिए पहले से व्यवस्था की जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने यह बात 2020 में लगाए गए संपूर्ण लॉकडाउन को ध्यान में रखकर कही थी जब लाखों-लाख मजदूरों को भारी दिक्कतों के बीच किसी तरह अपने घर-गांव लौटना पड़ा था, कई मजदूर रास्ते में थकान और भूख की वजह से अपनी जान गंवा बैठे थे। पिछले साल मार्च में प्रधानमंत्री मोदी ने जब लॉकडाउन की घोषणा की थी, तब जान है, तो जहान है, का उदाहरण दिया था। उसके बाद अनलॉक की प्रक्रिया में जान भी और जहान भी, की बात कही थी।
कोरोना की पहली लहर में जान का संकट तो भारत में भयावह नहीं हुआ था, लेकिन जहान यानी दुनियावी जरूरतों और अर्थव्यवस्था के नजरिए से भारत पूरी तरह लड़खड़ा गया था। एक तिमाही में विकास दर-23.9 प्रतिशत पहुंच गई थी, ऐसी भयंकर गिरावट भारत की अर्थव्यवस्था में पहले कभी नहीं देखी गई थी।
तब सरकार का नाकारापन महामारी की आड़ में छिपाने की कोशिश की गई थी। लेकिन इस बार जान और जहान दोनों नजरिए से भारत कठिन चक्रव्यूह में फंस चुका है। फिर भी मोदीजी तमाम दबावों और सुझावों के बावजूद लॉकडाउन की घोषणा नहीं कर रहे हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि सरकार की तैयारी ऐसी नहीं है कि हाशिए के समुदायों को आर्थिक सुरक्षा देकर, उन्हें घर पर रहने कह सके। बल्कि ये कहना उचित होगा कि सरकार किसी भी मोर्चे पर तैयार नहीं है। बीमारी के बीच स्वास्थ्य सुविधाओं और रोकथाम के उपायों का आलम तो देश देख ही रहा है। महंगाई और बेरोजगारी जैसे मोर्चों पर भी देश की हालत खराब है।
कोरोना की दूसरी लहर को अभी कुछ ही वक्त हुआ है और भारतीय अर्थव्यवस्था के बुरे दिन अभी से नजर आने लगे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने अभी से भारत को 1.25 अरब डॉलर के नुकसान का अंदेशा जतलाया है। देश का उत्पादन और सेवा क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकानॉमी यानी सीएमआईई के मुताबिक कई राज्यों में लॉकडाउन और अन्य पाबंदियों के चलते बेरोजगारी दर 8 प्रतिशत पर पहुंच गई है। जो चार महीने में सबसे अधिक है।
अप्रैल महीने में ही 75 लाख नौकरियां चली गई हैं। महंगाई की मार बीमारी और बेरोजगारी के दर्द को और बढ़ा रही है। दवाओं से लेकर खाद्यान्न तक हरेक चीज महंगी हो गई है। और सरकार ने इस ओर से बिल्कुल चुप्पी साध रखी है। बल्कि विधानसभा चुनाव खत्म होते ही फिर से पेट्रोल-डीजल के दाम जिस तरह बढ़ने लगे हैं, उससे जाहिर होता है कि सरकार जनता की ओर से बिल्कुल उदासीन है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश में दूध, मांस-मछली, सब्जी-फल, दालें, अनाज सब की कीमतें देखते-देखते दोगुनी कैसे हो गईं।
लोगों के पास आय के जरिए खत्म होते जा रहे हैं और महंगाई बढ़ती जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी के पास यह कहने की सुविधा है कि वे झोला उठाकर चले जाएंगे, लेकिन आम आदमी अपनी जिम्मेदारियों को छोड़कर न घर छोड़ सकता है, न हिमालय जाकर ध्यान लगा सकता है, न झोला उठाकर कहीं भी जा सकता है। उसे इन संकटों के बीच ही जीने की राह तलाशनी है। सरकार इस तलाश में उसकी मदद कर सकती है।
जैसे राहत पैकेज का ऐलान, नए रोजगारों का सृजन, कीमतों को काबू में करने के उपाय इन सब पर अगर काम किया जाए, तो इस घने संकट में तिनके बराबर राहत मिल सकती है। लेकिन मोदी सरकार आम जनता को यह तिनका भी देने तैयार नहीं है। इसलिए ऐसे वक्त में तेल की कीमतों में इजाफा कर आम आदमी की कठिनाई बढ़ा रही है।


