भारत-कनाडा तनाव से बिगड़ सकते हैं द्विपक्षीय संबंध
विदेशी धरती पर पुनर्जीवित हो रहे खालिस्तानी आंदोलन का बढ़ता प्रसार। भारत सरकार को सोचना होगा कि इससे किस तरह निबटा जाना चाहिए

- डॉ. मलय मिश्रा
विदेशी धरती पर पुनर्जीवित हो रहे खालिस्तानी आंदोलन का बढ़ता प्रसार। भारत सरकार को सोचना होगा कि इससे किस तरह निबटा जाना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि इससे निबटने के तरीकों और नतीजों से दीर्घकालिक नुकसान हो। इसलिए भारत के लिए कूटनीतिक रूप से बुद्धिमत्तापूर्ण होगा कि वह इस मुद्दे को सभी संभावित मंचों पर उठाए।
हाल के कई प्रतिशोधपूर्ण और मुंहतोड़ कदमों ने कनाडा और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंधों को खराब कर दिया है। राजनयिकों को निष्कासित करना, यात्रा परामर्श जारी करना, वीज़ा जारी करने पर रोक तथा व्यापार वार्ता रद्द करना, विदेशों में खालिस्तानी एजेंटों को लक्ष्य बनाना और देश में उनकी संपत्तियों को जब्त करना अल्पावधि के उपाय हो सकते हैं, परन्तु दोनों देशों के पास खोने के लिए बहुत कुछ है। खासकर भारत को यहां से सावधानी से आगे बढ़ने की जरूरत है क्योंकि निज्जर की हत्या के खतरनाक परिणाम हो सकते हैं।
यह स्थिति और उसके बाद उठाए गए कदम एक टिंडरबॉक्स को प्रज्ज्वलित कर रहे हैं। हाल ही में 'इंटरवेंशन एंड स्टेट सॉवरेन्टी' पर आयोजित एक सम्मेलन में पूछा गया था कि क्या कनाडाई सिख चरमपंथी और प्रतिबंधित खालिस्तान टाइगर फोर्स (केटीएफ) के नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारतीय खुफिया एजेंटों की भागीदारी के बारे में कनाडाई पीएम के आरोप एक विदेशी शक्ति द्वारा कनाडाई संप्रभुता का उल्लंघन हैं? जवाब आसान है- हां, यह होगा। लेकिन क्या ये आरोप विश्वसनीय हैं?
भारत सरकार के अनुसार कनाडा ने आरोपों को साबित करने के लिए अब तक कोई भरोसेमंद सबूत पेश नहीं किए हैं और जांच में भारत का सहयोग मांगा है। जूडी फोस्टर के नेतृत्व में कनाडा के राष्ट्रीय सुरक्षा दल ने जी-20 शिखर सम्मेलन से पहले नई दिल्ली की दो यात्राएं की थीं और हत्या के संबंध में अपने स्थानीय समकक्षों के साथ बैठकें की थीं। जाहिर है, कुछ सबूत साझा किए गए होंगे। हालांकि ये सबूत विश्वसनीय थे या आगे बढ़ने लायक थे- यह तय करना भारतीय पक्ष पर छोड़ दिया जाएगा। इस मामले में दोनों पक्षों पर संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के उल्लंघन का मामला लागू होता है।
यह प्रश्न कई परस्पर विरोधी मुद्दों को उठाता है जो सामान्य रूप से भू-राजनीतिक हैं, व्यापार, आर्थिक, डायस्पोरिक और यहां तक कि ऐतिहासिक विचारों से गुजरते हैं। यह काफी हद तक भारत-कनाडा के तनावपूर्ण संबंधों के भविष्य की कल्पना करने पर टिका है जिसमें खालिस्तान मुद्दा वह खूंटा है जिस पर यह मौजूदा विवाद जुड़ा हुआ है। 1980 के दशक में स्वर्ण मंदिर पर हमले और कट्टरपंथी सिख नेता भिंडरावाले को बाहर निकालने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई थी और इसके बाद सिख विरोधी दंगे हुए थे। यह मुद्दा इतिहास में दफन हो चुका है और आज पंजाब में इसका कोई महत्व नहीं है।
हालांकि कनाडा में चार दशकों से अधिक समय से खालिस्तान का मुद्दा गरमाया हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में यह बढ़ गया है और हिंसक रूप ले चुका है। जस्टिन ट्रूडो सरकार द्वारा कनाडा के खालिस्तानी समूहों को समर्थन उसकी घरेलू मजबूरियों के कारण है। उनकी लिबरल पार्टी को खालिस्तानी नेता जगमीत सिंह के नेतृत्व वाली न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन प्राप्त है। कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका में सिख प्रवासियों के छोटे से तबके में खालिस्तानी मुद्दे को पुनर्जीवित किया गया है। इसकी वजह से भारतीय राजनयिकों को जान से मारने की धमकी मिली है और राजनयिक मिशनों में तोड़फोड़ की गई है।
सैन फ्रांसिस्को में भारतीय वाणिज्य दूतावास पिछले जुलाई में आगजनी के हमले में बच गया था। इसके अलावा सिख फॉर जस्टिस समूह के नेता पन्नुन ने हाल ही में हिंदुओं से कनाडा छोड़ने को कहा था। कनाडा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे भारतीय प्रवासियों के बीच सौहार्द्र बिगाड़ने का यह शर्मनाक प्रयास है। कनाडा सरकार की आंखों के सामने में ही एसएफजे ने भारत में खालिस्तानी राज्य की स्थापना के लिए पिछले महीने एक जनमत संग्रह का आयोजन भी किया था। खालिस्तानी नेताओं के प्रत्यर्पण के लिए भारत सरकार के कई अनुरोधों पर कनाडा सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है जिसके बाद भारत ने आरोप लगाया है कि अलगाववादी नेताओं के लिए कनाडा एक सुरक्षित पनाहगाह बन गया है।
ब्रिटिश कोलंबिया के सरे में 18 जून को निज्जर की हत्या के 3 महीने बाद पीएम जस्टिन ट्रूडो ने जब कनाडा के हाउस ऑफ कॉमन्स में विस्फोटक बयान दिया कि हत्या में भारत का हाथ है तो एक मामले ने अलग मोड़ ले लिया। भारत सरकार ने इन आरोपों को 'बेतुका' और 'दुर्भावना से प्रेरित' बताते हुए खारिज कर दिया है।
न्यूयॉर्क टाइम्स की एक हाल की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अमेरिकी सरकार ने ओटावा में भारतीय मिशन में इंटरसेप्ट किए गए संदेश के आधार पर कनाडा के साथ खुफिया जानकारी साझा की थी। इसके तुरंत बाद अमेरिकी सरकार के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने भारतीय अधिकारियों से कनाडाई सरकार के साथ 'जवाबदेही पूर्ण' सहयोग का आह्वान करते हुए कड़ा रुख अपनाया। उन्होंने 'किसी भी देश के लिए किसी भी विशेष छूट' से इनकार किया। ये दोनों नेता भारत के साथ दोस्ताना रुख रखने वाले माने जाते हैं। फाइव आईज़ गठबंधन के एक मुखर सदस्य के रूप में अमेरिकी सरकार के इस रुख की घरेलू आलोचक यह कह कर आलोचना कर सकते हैं कि वह भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं के पतन, मानवाधिकारों के उल्लंघन और अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार के बावजूद इस क्षेत्र में चीन के मुकाबले के रूप में भारत को समर्थन देने की अपनी रणनीति के कारण भारत के प्रति बहुत नरम रवैया अपना रही है।
इन सभी झटकों के बीच मुख्य मुद्दा सामने आता है वह है विदेशी धरती पर पुनर्जीवित हो रहे खालिस्तानी आंदोलन का बढ़ता प्रसार। भारत सरकार को सोचना होगा कि इससे किस तरह निबटा जाना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि इससे निबटने के तरीकों और नतीजों से दीर्घकालिक नुकसान हो। इसलिए भारत के लिए कूटनीतिक रूप से बुद्धिमत्तापूर्ण होगा कि वह इस मुद्दे को सभी संभावित मंचों पर उठाए।
कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि निज्जर की हत्या कनाडाई खालिस्तानी समुदाय के भीतर एक आंतरिक झगड़े का परिणाम हो सकती है। 'वाशिंगटन पोस्टÓ ने एक खबर चलाई थी जिसमें कहा गया था कि निज्जर की हत्या में दो लोगों और एक वाहन के बजाय छह व्यक्ति तथा दो वाहन शामिल थे। जो भी हो, भारत सरकार के पास दो विकल्प हैं- या तो वह सार्वजनिक रूप से जनता के सामने जाए और कानून के शासन के पालन के साथ एक लोकतंत्र के रूप में भारत की बेगुनाही का जोरदार दावा करे या शांत कूटनीति अपनाए और सरकारी व गैरसरकारी चैनलों के माध्यम से कनाडा सरकार के साथ सीधे बात करे तथा मामले को सुलझाए। अपनी प्रमुख बाहरी खुफिया एजेंसी के संदेह के घेरे में होने के साथ अगर भारत विदेशी धरती पर, विशेष रूप से उदार लोकतंत्रों में भारतविरोधी तत्वों को मारने वाले 'कपटी देशÓ की ख्याति अर्जित करता है तो यह दोगुना गंभीर मामला होगा।
भारत को घेरने के लिए उठाए गए कदमों पर अपने सहयोगियों की ठंडी प्रतिक्रिया के बाद कनाडा सरकार ने कुछ कदम पीछे खींच लिए गए हैं लेकिन दिल्ली को खालिस्तान समर्थकों की बढ़ती गतिविधियों का सामना करना पड़ रहा है जिन्होंने अपने उद्देश्य के लिए भौगोलिक सीमाओं से परे गठबंधन किया है। स्कॉटलैंड स्थित गुरुद्वारे से भारतीय उच्चायुक्त की जबरन वापसी इसका एक उदाहरण है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि कनाडा में भारतीय प्रवासियों का बढ़ता धु्रवीकरण भारत की विदेश नीति प्रबंधन में अत्यधिक तनाव पैदा कर सकता है। सरकार द्वारा हाल ही में कनाडा के 41 राजनयिकों को भारत छोड़ने के लिए भेजे गए पत्र से व्यापार और निवेश, शिक्षा और पर्यटन के गंभीर रूप से बाधित होने के साथ द्विपक्षीय संकट और बढ़ सकता है।
(लेखक सेवानिवृत्त राजनयिक हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)


