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तर्कहीनता और तर्कशीलता के दोराहे पर भारत

कौआ कान लेकर उड़ गया, भारत में यह एक पुरानी कहावत है

तर्कहीनता और तर्कशीलता के दोराहे पर भारत
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- सर्वमित्रा सुरजन

धर्म के आगे तर्क का क्या काम, या भावनाओं के आगे सवाल लाचार हो जाते हैं, ऐसी बेतुकी बातों से जनता का ध्यान बेशक भटकाया जा सकता है। लेकिन यहां फिर जनता को गौर करना होगा कि कौआ कान ले गया, जैसी कहानियां हमारे बुजुर्गों ने इसलिए गढ़ी ताकि हमें कोई आसानी से मूर्ख न बनाए, हमारे विश्वास का फायदा न उठाए। भारत में तर्कशीलता की सदियों पुरानी परंपरा रही है और इसका मकसद सामाजिक न्याय रहा है।

कौआ कान लेकर उड़ गया, भारत में यह एक पुरानी कहावत है, जो लोगों में तार्किक बुद्धि के इस्तेमाल की नसीहत देती है। यानी कोई कहे कि कौआ कान लेकर उड़ गया तो बिना सोचे-समझे कौए के पीछे भागने की जगह पहले अपने कान को टटोलना चाहिए, इससे आपका वक्त और उर्जा दोनों की बचत होगी, साथ ही दुनिया के सामने आसानी से मूर्ख बन जाने की शर्मिंदगी भी नहीं उठानी पड़ेगी। इस वक्त भारत के सामने भी यही स्थिति आ गई है। अब ये जनता को तय करना है कि वो अपने कान टटोलकर मूर्ख बनाने की कोशिश करने वालों को नाकाम करती है या फिर कौए के पीछे भागने का विकल्प चुनती है।

राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के दिन नजदीक आते जा रहे हैं। भाजपा सत्ता में बैठी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस राजनैतिक अंग की स्थापना का उद्देश्य ही भारत में हिंदुत्व का राज कायम करना है और इसके लिए अयोध्या में राम जन्मभूमि को जरिया बनाया गया। राम मंदिर के नाम पर रथयात्रा निकाल कर, समाज में हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई बनाकर भाजपा ने अपने लिए सत्ता की सीढ़ी तैयार की। अब तक उसके हर घोषणापत्र में राम मंदिर के निर्माण का मुद्दा शामिल होता था। 22 जनवरी के बाद अब जब भी चुनाव की घोषणा होगी, ये मुद्दा घोषणापत्र से हट जाएगा। उसकी जगह शायद ज्ञानवापी और शाही ईदगाह को हटाकर वहां मंदिरों के निर्माण का ऐलान कर दिया जाएगा। इसके बाद चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री मोदी जनता से शायद यह कहेंगे कि अपने 140 करोड़ भाई-बहनों के सहयोग से, आपकी सामर्थ्य से मैंने यह महती दायित्व पूरा किया है। मैंने रामलला को उनका घर वापस दिलाया है। जिस उद्देश्य के लिए मेरा जन्म हुआ, उसे मैंने पूरा किया है। भाजपा के बाकी नेता भी इसी तरह का श्रेय श्री मोदी को देंगे और कोई आश्चर्य नहीं अगर कोई तारीफ करते-करते श्री मोदी को साक्षात देवता या अवतार ही कह दे। वैसे भी कुछ भाजपा नेता सार्वजनिक तौर पर यह कह चुके हैं कि भारत के लोगों का सौभाग्य है कि उन्हें मोदीजी जैसा प्रधानमंत्री मिला।

भाजपा के नेताओं को पूरा हक है कि वे जिसकी चाहे पूजा करें, जिसे चाहे अपने सौभाग्य या दुर्भाग्य का निमित्त मानें। उन्हें यह भी हक है कि वे अपनी सत्ता बचाने के लिए चाहे धार्मिक मुद्दे का राजनीतिकरण करें या राजनीति में धर्मांधता को मिलाकर वोट हासिल करने की जुगत लगाएं। लेकिन देश की जनता को भी अपने हक पता होने चाहिए। जिन लोगों को उसने संसद और विधानसभाओं में अपनी बेहतरी के लिए, अपने भविष्य और वर्तमान को संवारने के लिए भेजा है, वो अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर रहे हैं या अगली बार सत्ता में आने के लिए लोगों की भावनाओं को भुना रहे हैं, ये सवाल करने की जागरूकता जनता में होनी चाहिए।

अभी राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा की तैयारियों की हलचल पूरे देश में है। भाजपा और संघ के लोग मिलकर घर-घर अक्षत बांटने में जुट गए हैं। इसके लिए बाकायदा समितियां बनाई गई हैं। हर रिहायशी इलाके में कुछ लोगों को जिम्मेदारी देकर, आम लोगों को साथ जोड़ने की मुहिम चलाई जा चुकी है। भाजपा और संघ के पास निष्ठावान और अनुशासित कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज है, जिनके जरिए मंदिर के काम हो रहे हैं। लेकिन यहां भारत की तर्कशील जनता को सवाल उठाने चाहिए कि अगर भाजपा घर-घर अक्षत भेज सकती है, तो कोरोना के वक्त घर-घर मास्क, जरूरी दवाइयां, राशन और आक्सीजन की व्यवस्था क्यों नहीं करवा सकी? कोरोना के वक्त भी जब भाजपा और कई हिंदुत्ववादी मानसिकता के लोगों ने गौमूत्र पीने की नसीहत दी या श्री मोदी ने ताली-थाली बजाने का आह्वान किया, एक साथ दीए, टार्च, मोमबत्ती जलाने कहा, तब भी उनसे कड़ाई से सवाल किए जाने थे कि ध्यान भटकाने के ये पैंतरे क्यों आजमाए जा रहे हैं, क्यों नहीं लोगों को सुरक्षित रखने पर ध्यान दिया दिया जा रहा है? अगर तब कौआ कान ले गया की अफवाह पर ध्यान न देकर अपने कान टटोले होते तो देश एक बड़ी त्रासदी से बच जाता। लेकिन जनता ने तब भी उड़ते कौए के पीछे भागने का विकल्प चुना, अब भी वही गलती की जा रही है।

अयोध्या में करोड़ों की लागत से बन रहे राम मंदिर को देश की सबसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर भाजपा पेश कर रही है। लोगों की आस्था का बेजा फायदा उठाया जा रहा है। जो राम मंदिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बन रहा है, उसे भाजपा ने अपना बताकर पेश कर दिया और लोगों ने भोलेपन से उसे सच भी मान लिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा था कि बाबरी मस्जिद को तोड़ना गलत था। यानी एक गलत काम को करके उस पर मंदिर खड़ा किया गया है, ऐसे में यह सवाल सहज उठना चाहिए कि क्या कोई भी भगवान किसी गलत काम पर अपने भक्तों को आशीर्वाद देंगे। राम मंदिर अभी पूरा बना ही नहीं है, लेकिन फिर भी वहां मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हो रही है। तो धार्मिक लोग अपने वेद-पुराणों के तर्कों के आधार पर विचार करें कि क्या यह कार्य धार्मिक रिवाजों के हिसाब से सही है। देश के चारों शंकराचार्यों ने इसलिए मंदिर उद्घाटन में शामिल न होने का फैसला लिया है, क्योंकि इसमें धार्मिक नियमों का पालन न होकर राजनीति हो रही है। भाजपा से यह सवाल भी होना चाहिए कि आखिर वह मंदिर के पूरा बनने तक का इंतजार क्यों नहीं कर रही है। किस हड़बड़ी में वह मंदिर का उद्घाटन करा रही है और यह काम किसी योग्य धार्मिक गुरु के हाथों न होकर श्री मोदी के हाथों क्यों हो रहा है। श्री मोदी को वाराणसी से दो बार सांसद ही चुना गया है, धर्म गुरु नहीं।

तर्क के आधार पर सवाल तो यह भी होना चाहिए कि जिस राम मंदिर के लिए भाजपा ने बरसों तक आंदोलन चलाया और आखिरकार उसमें सफलता मिल भी गई, तो उससे देश की जनता को क्या हासिल होगा। देश में पहले से कई ऐतिहासिक, भव्य मंदिर मौजूद हैं और उसके बाद अक्षरधाम जैसे नए मंदिर भी कई हैं। हर गली-चौराहे पर किसी पीपल या बरगद के पेड़ के नीचे मंदिर बने रहते हैं। लेकिन इनसे आखिरकार भारत के गरीब, पीड़ित इंसान को क्या मिलता है। क्या राम मंदिर बनने से सरकारी अस्पतालों में इलाज की सुविधाएं बढ़ जाएंगी और लोगों को इलाज के लिए महीनों भटकना नहीं पड़ेगा। क्या मंदिर बन जाने के बाद 80 लाख लोग पांच किलो अनाज के मोहताज नहीं रहेंगे और भारत का नाम हंगर इंडेक्स में शामिल ही नहीं होगा। क्या मंदिर बनने से लड़कियां पहले से अधिक सुरक्षित हो जाएंगी, क्या देश से अशिक्षा दूर हो जाएगी और सभी को समान शिक्षा हासिल करने के मौके मिल जाएंगे, क्या अदालतों से मुकदमों का बोझ कम हो जाएगा, क्या रोजगार की समस्या दूर हो जाएगी, क्या खेतों में फसलें लहलहाने लगेंगी और हर किसान समृद्धशाली होगा। भगवान के लिए एक पर्याववाची दरिद्रनारायण भी बना है, तो फिर सवाल ये भी उठता है कि क्या अपने नाम पर हो रहे भव्य निर्माण और लाखों-करोड़ों रूपयों के खर्च को देखकर दरिद्रनारायण प्रसन्न होंगे।

धर्म के आगे तर्क का क्या काम, या भावनाओं के आगे सवाल लाचार हो जाते हैं, ऐसी बेतुकी बातों से जनता का ध्यान बेशक भटकाया जा सकता है। लेकिन यहां फिर जनता को गौर करना होगा कि कौआ कान ले गया, जैसी कहानियां हमारे बुजुर्गों ने इसलिए गढ़ी ताकि हमें कोई आसानी से मूर्ख न बनाए, हमारे विश्वास का फायदा न उठाए। भारत में तर्कशीलता की सदियों पुरानी परंपरा रही है और इसका मकसद सामाजिक न्याय रहा है। चार्वाक से लेकर, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक , ज्ञानेश्वर, तुकाराम, पेरियार, ज्योतिबा फुले, और बाबा साहेब अम्बेडकर तक कई समाज सुधारकों ने इसी तरह तर्कशीलता से समाज को नयी राह दिखाई है। हालांकि इसका मोल भी उन्हें चुकाना पड़ा। या तो उन्हें भगवान बना दिया गया या उनकी बातों को अपनी सुविधा से प्रस्तुत किया गया। नरेन्द्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे जैसे लोगों को अपनी जान भी देनी पड़ी। भारत एक बार फिर तर्कहीनता और तर्कशीलता के दोराहे पर खड़ा है। अब जनता तय करे कि वो कौन सी राह पर चलती है। बस पहले अपने कान टटोल ले।


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